… तो इसलिए कोई भी पैथी सर्वोच्च नहीं

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आजकल संपूर्ण भारत में जिस तरह से एक खींचतान अपनी अपनी पैथी को सर्वोच्च बताने के लिए चल रही है, यह ठीक उसी तरह से है जैसे दो गोलार्ध में बंटी पृथ्वी में यह बहस होने लगे कि कौन सा गोलार्ध श्रेष्ठ है या फिर मानव मस्तिष्क के दो भागों में बंटे हुए हिस्से इससे आपस में बहस करने लगे हैं कि बायां गोलार्ध ज्यादा महत्वपूर्ण है या दाया जबकि निर्विवाद रूप से यह भी स्वीकार करना होगा कि चाहे पृथ्वी के दोनों गोलार्ध हो या चाहे मानव मस्तिष्क के दोनों गोलार्ध हो, दोनों के मिलने पर ही संपूर्णता की प्राप्ति होती है।

..यदि तात्कालिक दर्द से निवारण पाना है और ऑपरेशन की स्थिति है तो एलोपैथ की सर्वोच्चता को कोई नहीं नकार सकता लेकिन यदि शरीर की संपूर्णता को उसकी मूल स्थिति में बनाए रखते हुए स्वस्थ रहना है तो आयुर्वेद को कोई नकार नहीं सकता लेकिन फिर भी बाजारीकरण की युग में लोगों की भावना को उद्वेलित करके अपनी बाजार को मजबूत करने के लिए पूंजीवादी व्यवस्था में जो होड़ चल रही है, उससे हर पैथी प्रभावित है। इसमें नुकसान अंततः नागरिक या मनुष्य का ही होता है।

एलोपैथिक नवीनतम चिकित्सीय प्रभाव है। जिसने बहुत जल्दी ही इसलिए अपना दायरा लोगों के बीच स्थापित कर लिया क्योंकि सबसे महत्वपूर्ण दर्द निवारक स्थिति को पैदा करने में वह सभी पैथी में सर्वोच्च है। जबकि सामान्य तौर पर विज्ञान की दुनिया के विश्लेषण से स्पष्ट है कि दर्द की दवा खाने पर सिर्फ उस जगह की कोशिकाएं निष्क्रिय हो जाती हैं। दर्द पूरी तरह समाप्त कभी नहीं होता।

यह भी सबको पता है कि वायरस का जीवन चक्र एक हफ्ते का होता है। उस समय में शरीर की प्रतिरोधक क्षमता द्वारा शरीर के तापमान को बढ़ाकर वायरस से शरीर की रक्षा किए जाने हेतु ताप और दर्द से छुट्टी दिलाने में भी एलोपैथ बहुत आगे हैं लेकिन संपूर्ण रूप से इन व्याधियों से दूर ले जाने में ज्यादा सहायक आयुर्वेद है लेकिन दोनों ही बातों को एक व्यक्ति ज्यादा नहीं जान पाता है।

इसको एक उदाहरण के द्वारा भी समझा जा सकता है। वर्तमान में भारत जैसे विकासशील देश में प्रत्येक व्यक्ति या तो किडनी के या गालब्लेडर के पथरी की समस्या से पीड़ित रहता है। किडनी में पथरी होने पर उसे निकाल लेना किसी भी पैथी के माध्यम से ज्यादा आसान है लेकिन गालब्लेडर या पित्ताशय में पथरी को निकाला जाना इतना आसान नहीं है। उसके लिए ज्यादातर एलोपैथ में यही सलाह दी जाती है कि पित्ताशय की थैली को काटकर निकलवा दीजिए क्योंकि पित्ताशय की थैली निकल जाना शरीर को बहुत ज्यादा नुकसान नहीं पहुंचाता है। ..जबकि यह मेडिकल एथिक्स के खिलाफ है और गलत जानकारी है।

यहीं पर आकर कोई भी पैथी तुलनात्मक हो जाती है। हम सभी लोग बचपन से यह सुनते आ रहे हैं कि बाएं करवट सोना चाहिए। इसके पीछे सिर्फ यही दर्शन छुपा हुआ है कि बाएं करवट लेने से पित्ताशय की थैली में पित्त रुकने नहीं पाता है लेकिन आजकल की पीढ़ी इन सब बातों पर ध्यान नहीं देती है। जिसके कारण पित्त रस और कोलेस्ट्रॉल मिलकर पथरी का निर्माण करते हैं।

यह अभी तक के लोगों को नहीं पता है कि कोलेस्ट्रॉल और पित्त के आपस में मिल जाने से पथरी का निर्माण होता है। यदि पथरी 4 एमएम से छोटी है तो होम्योपैथ, आयुर्वेद में बहुत सी ऐसी दवाएं हैं। जिनसे पित्ताशय की पथरी भी गल कर निकल सकती है लेकिन वर्तमान में एलोपैथी अपने नैतिकता के सिद्धांत से हटकर चाहे बच्चा पैदा करने की स्थिति हो, चाहे पथरी की स्थिति हो, चाहे दिल की समस्या हो सभी में डॉक्टर सबसे पहले ऑपरेशन की सलाह देने लगता है क्योंकि ऑपरेशन करने में उसे मुनाफा ज्यादा है।

इस बात को हृदय रोग विशेषज्ञ डॉक्टर नरेश त्रेहन ने भी अभी जल्दी ही कहा है कि ज्यादातर डॉक्टर बेवजह का ऑपरेशन करते रहते हैं। लेकिन यूरोपीय देश और अमेरिका की तरह भारत जैसे देश के डॉक्टर मरीज को पूरी तरह से नहीं बताते हैं कि ऑपरेशन करने के बाद क्या-क्या समस्याएं कितनी गंभीरता से उत्पन्न हो जाएंगी और इसको भी गाल ब्लैडर की पथरी की समस्या से समझा जा सकता है।

ज्यादातर डॉक्टर गालब्लेडर को निकालने की बात को इतना हल्का करके बताते हैं कि लगता है कि मानव शरीर में फर्जी अंग है। यही नहीं अपेंडिक्स का ऑपरेशन कराना भी वह इस अंग को फालतू का मानकर बताते हैं जबकि अपेंडिक्स के काट दिए जाने के बाद मानव शरीर में विटामिन बी संबंधित कई रोग उत्पन्न हो जाते हैं। पित्ताशय की थैली का प्रमुख कार्य है कि व्यक्ति जो भी खाना खाता है वह जब आहार नाल से होता हुआ छोटी आंत में पहुंचता है तो वहां पर शरीर के प्रोसेसर के रूप में कार्य कर रहे लीवर के माध्यम से पित्ताशय की थैली में एकत्र पित्त रस आकर भोजन में मिलता है। उस भोजन की अम्लीयता को उदासीन करता है क्योंकि शरीर के अंदर क्षार और अम्ल का अनुपात 80:20 का होना चाहिए।

..लेकिन जब पित्त की थैली निकाल दी जाती है तो जब खाना शरीर के अंदर आहार नाल से होता हुआ छोटी हाथ में पहुंचता है तो वहां पर पित्त रस के अभाव के कारण खाने के अंदर के अम्ल को उदासीन नहीं किया जा पाता है। जिसके कारण अम्ल- क्षार में एक असंतुलन पैदा होता है जो मनुष्य के शरीर में एसिडिटी, गैस, दिल आदि के गंभीर रोग पैदा करता है लेकिन क्योंकि यह सब तुरंत नहीं होने लगता है।

इसलिए व्यक्ति जान ही नहीं पाता कि गालब्लेडर निकलवाने के बाद वह किस मुसीबत की तरफ बढ़ गया है क्योंकि शरीर को नियंत्रित करने वाला दिमाग पित्ताशय की थैली के अभाव में शरीर के अंदर स्थित कोशिकाओं के माध्यम से उसमें उपस्थित पितरस को खाने की अम्लता को उदासीन करने के लिए उपयोग करता है लेकिन कोशिकाओं से उसके तत्वों के निकल जाने के कारण धीरे-धीरे मानव शरीर में दूसरी अनियमितताएं पूर्व शुरू हो जाती हैं।

शरीर दर्द का अड्डा बन जाता है। त्वचा संबंधी रोग होने लगते हैं.. जिसको एलोपैथ में पित्ताशय का ऑपरेशन करते समय डॉक्टर मरीज को भारत जैसे देश में बिल्कुल नहीं बताता है और यहीं पर ऑपरेशन के बाद की स्थिति में आयुर्वेद द्वारा उसके शरीर को स्वस्थ रखने का प्रयास किया जाता है। नीम और करेला दो ऐसे पदार्थ हैं। जिनका लगातार उपयोग करते रहने के कारण पित्त रस की कमी को पूरा किया जा सकता है और छोटी आंत में खाने के पदार्थों की अम्लीयता को कम किया जा सकता है।

जिससे यह स्पष्ट है कि यदि एलोपैथ के द्वारा पित्त की थैली निकालकर दर्द से तुरंत लाभ मिल जाता है। अत्यंत गंभीर स्थिति में कैंसर से बचा जा सकता है तो यह भी सत्य है कि पित्ताशय के निकलने की बाद की कठिन परिस्थितियों को आयुर्वेद के माध्यम से ना सिर्फ संभाला जा सकता है बल्कि शरीर को स्वस्थ रखा जा सकता है जो इस बात को स्थापित करता है कि कोई भी पैथी अपने आप में पूर्ण नहीं है।

..और अखिल भारतीय अधिकार संगठन के द्वारा अधिकार विज्ञान के अंतर्गत चलाए जा रहे मुहिम में हर पैथी के माध्यम से व्यक्ति को यह जानने का अधिकार है कि उसके जीवन जीने के अधिकार को दवाओं के द्वारा कितना प्रभावित किया जा रहा है। इसको बताया जाना.. पढ़ाया जाना भी आज के समय में आवश्यक है। बेवजह के विवाद, आपसी तनाव और बाजारीकरण में नागरिकों के माध्यम से पूंजीवादी व्यवस्था में अपनी पैथी को आगे ले जाकर पैसा कमाने की ओर से ज्यादा मानव जीवन की उच्चता सर्वोच्च स्तर पर कार्य किए जाने की आवश्यकता है और यही हर पैथी का उद्देश्य होना चाहिए।

डॉ आलोक चांटिया