अंगारे जैसे फूलों वाला वृक्ष सेमल

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#शिवचरण चौहान

सेमल एक विशाल, सुन्दर लाल चटक फूलों तथा काले फल दलों वाला भारतीय मूल का वृक्ष है। इसकी लम्बी-लाबी शाखाओं में तथा तने में तीखे, घने कांटे होते हैं। इस कारण इस पेड़ पर चढ़ने से बन्दर भालू या आदमी डरते हैं। इस विशाल वृक्ष की शाखाएं छितरी होती हैं, इसलिए पत्ते आम, बरगद, पीपल, नीम, महुए, जामुन. इमली. डाक की तरह घनी छाया नहीं दे पाते। धूप नीचे तक आती है।

सेमल को संस्कृत में शाल्मली नाम से पुकारा जाता है। औषधीय गुणों तथा हल्के काठ के कारण यह वृक्ष प्राचीन काल से ही आम लोगों में लोकप्रिय रहा है। सेमल का वानस्पतिक नाम-बायका-सोया है। भारत के अलावा सेमल की कुछ प्रजातिया, अमेरिका तथा अफ्रीका के जंगलों में भी पाई जाती हैं। सेमल, भारतीय उपमहाद्वीप के सूखे. रेतीले क्षेत्रों के कुछ भागों को छोडकर सारे भारत भर में उगता है। नदियों के तटो, तालाबों के किनारे, बाग, बगीचों, जगलों से लेकर पवर्तीय क्षेत्रों में एक हजार मीटर ऊँचाई तक यह वृक्ष पाया जाता है। यह 50 डिग्री सेन्टीग्रेड जैसी गर्मी तथा तीन डिग्री सेल्सियस तक की सर्दी भी बर्दाश्त कर लेता है। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, गुजरात, महाराष्ट्र, हिमाचल, पंजाब, हरियाणा तथा राजस्थान में सेमल के वृक्ष पाए जाते हैं।

पलाश की ही तरह सेमल के लाल चटक फूल इसे विशिष्टता प्रदान करते हैं। मध्य फरवरी से अप्रैल तक इसकी कोयले सी काली कलियों में लाल चटक फूल खिलते हैं, तब डालों से पत्ते झर जाते है और दूर से देखने में ऐसा लगता है कि जैसे किसी वृक्ष में अंगारे दहक रहे हों। सेमल की कच्ची कली, काली होती है। बच्चे इसे तोड़कर धूप में सुखा लेते हैं और इसके डंठल की जगह किसी पतली लकड़ी या माचिस की तीली को घुसाकर इसे जमीन पर फिरंगी (फिरकी) की तरह नचाते हैं। लाल फूलों की बड़ी-बड़ी पंखुड़ियां, मांसल व गूदेदार होती हैं। इसको बंदर, हिरन, भालू, तोते आदि पशु-पक्षी बड़े चाव से खाते हैं। हवा चलने पर जब फूल जमीन पर गिरते हैं, तो हिरनों के झुण्ड इनमें खाने दौड़ पड़ते हैं।

कई आदिवासी कबीले के लोग सेमल के फूल पका कर खाते हैं। फूल कटोरी जैसे काली कली में लाल सुर्ख होते हैं। बीच में रेशे होते हैं। सेमल के फलों को डोड़ा कहते हैं। कच्चे डोड़े की सब्जी बनाई जाती है। पके फल मे रूई भी निकलती है, जो तकियों, गद्दों, रजाई, सीट बेड, सोफे में भरी जाती है। ये रूई बेहद गर्म होती है व कुछ पीले रंग की हलकी होती है। रूई में ही काले बीज छिपे रहते हैं, जिससे पौधे उगते हैं। पौधशाला तकनीक से भी सेमल के पौधे उगाए जाते है।
“सेमल का वृक्ष चालीस-पचास मीटर तक ऊंचा होता है तथा तने की गोलाई (व्यास) चार से छ. मीटर से भी अधिक
पाई गई है। इसके पत्तों को पशुओं के चारे के रूप में प्रयोग किया जाता है तो सेमल की लकड़ी माचिस, माचिस की तीलिया बनाने, प्लाई वुड, हल्के फरनीचर बनाने के काम आती है।

“सेमल का काष्ठ, जल में न सड़ने वाला, कीड़ों से न घुनने वाला तथा हल्का होता है किन्तु आग जल्दी पकड़ लेता है। इसके फलों से निकली रूई लाइफ जैकेट में भरी जाती है। पके फलों को मीठा फल जानकर हर वर्ष तोतों के झुण्ड सेमल वृक्ष पर आते हैं और फलों को चोच मार-मार कर तोड़ते हैं, किन्तु अन्दर चिकनी स्वादहीन रूई पाकर बहुत निराश होते हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस में इस दृश्य का अच्छा चित्रण किया है। पौराणिक ग्रन्थों, कथाओं व आयुर्वेदिक ग्रन्थों में सेमल का उल्लेख मिलता है। सेमल का गोंद, एक औषधि है, जो त्वचा (चमडी) रोगो तथा पेट के रोगों की औषधि बनाने में प्रयुक्त होता है। सेमल की रूई, बीज, फूल तथा तने की छाल से अनेक आयुर्वेदिक औषधियां बनाई जाती हैं।