काशी अद्भुत परंपराओं वाला शहर है। चाहे वह मसाने की होली हो, होली का हुड़दंग हो, आपसी वार्तालाप में अनायास निकलने वाली गाली हो, कुछ सालों पूर्व तक होली पर होने वाला कवि सम्मेलन हो, बनारस का पान हो, बनारसी खानपान हो और गोदौलिया चौराहे की रात्रि कालीन रौनक हो, सब कुछ अद्भुत है। और उतना ही अद्भुत है यहां मणिकर्णिका घाट पर 350 सालों से होने वाला नगर वधुओं का नृत्य। बताते हैं कि जब राजा मान सिंह ने के महा श्मसानेश्वर मंदिर का जीर्णोद्धार कराया तो कोई भी कलाकार इसके लिए होने वाले समारोह में गायन और वादन के लिए तैयार नहीं था। और तब ऐसे धार्मिक कार्यों के लिए गायन और वादन की अनिवार्य परंपरा थी। ऐसे में इलाके की नगर वधुओं ने राजा मानसिंह की लाज रखी और मणिकर्णिका घाट पर नृत्य कर महादेव को प्रसन्न किया। तभी से यह परंपरा चली आ रही है। यह आयोजन चैत्र नवरात्रि की षष्ठी तिथि को होता है।
काशी की परंपराएं काशी वासी बखूबी निभाते भी हैं, क्योंकि उन्हें परंपराओं से प्यार है। और ये परंपराएं ही काशी की पहचान भी हैं। इन्हीं में से एक है जलती चिताओं के बीच नगर वधुओं के नृत्य की अनोखी परम्परा। बताते हैं कि नगर वधुएं अपना अगला जन्म सुधारने और वर्तमान जीवन से मुक्ति पाने के लिए इस बार भी जमकर नाचीं। ऐसे में मणिकर्णिका घाट पर रात में अद्भुत नजारा दिखा। पूरी रात यह कार्यक्रम चलता रहा। इन नगर वधुओं को देखने के लिए लोगों की भीड़ लगी रही। पूरी रात जागरण चलता रहा। बनारस की यह अनोखी परंपरा 350 वर्षों से भी ज्यादा पुरानी है।
महा श्मशान पर लोगों की आध्यात्मिक दृष्टि से बड़ी श्रद्धा है। वहां, जहां इंसान राख में तब्दील हो जाता है और वह राख मुक्ति की राह अग्रसर करती है। हालांकि दुनिया से जाने वाले पीछे रोते-बिलखते परिजनों को छोड़ जाते हैं। बनारस में इस स्थान से कई अद्भुत परंपराएं भी जुड़ी हैं। इस अद्भुत आयोजन के बारे में महाश्मशान नाथ मंदिर सेवा समिति के अध्यक्ष और आयोजक चैनू प्रसाद गुप्ता बताते हैं कि यह परंपरा काफी पुरानी है। कहा जाता है कि राजा मानसिंह द्वारा जब बाबा के इस मंदिर का जीर्णोद्धार कराया गया था, तब मंदिर में संगीत के लिए कोई भी कलाकार आने को तैयार नहीं हुआ था। हिन्दू धर्म में हर पूजन या शुभ कार्य में संगीत का कार्यक्रम जरूरी होता है।
पर जब कार्य को पूर्ण करने के लिए कोई तैयार नहीं हुआ तो राजा मानसिंह काफी दुखी हुए। यह संदेश धीरे-धीरे पूरे नगर में फैलते हुए काशी की नगर वधुओं तक भी जा पहुंचा। बाद में नगर वधूओं ने डरते-डरते अपना संदेश राजा मानसिंह तक भिजवाया कि यह मौका अगर उन्हें मिलता है, तो वह अपने आराध्य और संगीत के जनक नटराज महा श्मसानेश्वर को अपनी भावाजंलि प्रस्तुत कर सकती हैं। यह संदेश पाकर राजा मानसिंह काफी प्रसन्न हुए, और उन्होंने नगर वधुओं को आमंत्रित किया। तब से यह परंपरा चल निकली। बताते हैं कि नगर वधुओं के मन में यह विचार भी आया कि अगर वे इस परंपरा को निरंतर बढ़ाती रहीं तो उन्हें इस नारकीय जीवन से मुक्ति भी मिलेगी। तभी से लगातार यह परंपरा चली आ रही है। कहा जाता है कि आज भी नगर वधुएं कहीं भी रहें, लेकिन चैत्र नवरात्रि के इस दिन को वे मणिकर्णिका घाट पर स्वयं आ जाती हैं।
अभयानंद शुक्ल, लखनऊ