फिल्मों में शोहरत-पैसा मिलने के बावजूद कलकत्ता से ऊबकर लखनऊ आयीं थीं बेगम अख्तर

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बॉलीवुड में चमके लखनऊ के फनकार

बेगम अख्तर के बचपन का नाम बिब्बी था। वो फैजाबाद के शादीशुदा वकील असगर हुसैन और तवायफ मुश्तरीबाई की बेटी थीं। असगर और मुश्तरी एक-दूसरे से प्यार करते थे। वकील साहब की यह दूसरी शादी थी। जिसके फलस्वरूप 7 अक्टूबर 1914 को फैजाबाद के भदरसा कस्बे में उनका जन्म हुआ। मुश्तरीबाई को जुड़वा बेटियां पैदा हुई थीं। चार साल की उम्र में दोनों बहनों ने जहरीली मिठाई खा ली थी। इसमें बिब्बी तो बच गईं लेकिन उनकी बहन जोहरा का देहांत हो गया था।

बिब्बी को समझ नहीं आया कि हमेशा साथ रहने वाली उनकी बहन जोहरा अचानक कहां चली गई। मां ने दिल कड़ाकर समझाया कि बहन अल्लाह के घर चली गई है। बिब्बी का पढ़ाई-लिखाई में मन नहीं लगता था। एक बार शरारत में उन्होंने अपनी टीचर की चोटी काट दी थी। मामूली पढ़ाई के बावजूद उन्होंने उर्दू शायरी की अच्छी जानकारी हासिल कर ली थी। वकील असगर ने भी मुश्तरी और बेटी बिब्बी को छोड़ दिया था। शौहर के छोड़े जाने के बाद उनका घर जला दिया गया।

उस जमाने में यह आम रिवाज था कि पति द्वारा छोड़े जाने पर तवायफों का घर फूंक दिया जाता था। वे बिब्बी को लेकर गया चली आयीं। बाद में दोनों को अकेले ही जिन्दगी में संघर्ष करना पड़ा। सात साल की उम्र में उन्हें चंद्रा बाई के गानों ने प्रभावित किया, जिनका टुअरिंग थिएटर ग्रुप था। उन्हीं की देखादेखी इस छोटी सी उम्र में उन्होंने गाना शुरू कर दिया था। वहीं मां मुश्तरी तालीम दिलाने के लिए अपने गहने बर्तन बेंच दिये आैर सखावत हुसैन, पटना में उस्ताद इमदाद खां व पटियााला के उस्ताद अता मोहम्मद खान साहब की शागिर्द बनीं।

बेगम अख्तर पर आई एक किताब के मुताबिक उन्हें कई बार शारीरिक शोषण से गुजरना पड़ा था। इसके लिए जिम्मेदार लोगों में उनके एक संगीत शिक्षक भी थे। एक राजा के छोटे भाई के दुव्र्यवहार का वो शिकार बनीं थीं। उसी समय बिहार के एक राजा ने कद्रदान बनने के बहाने उनका रेप किया। इस हादसे के बाद अख्तरी प्रेगेंट हो गईं और उन्होंने छोटी सी उम्र में बेटी सन्नो उर्फ शमीमा को जन्म दिया। दुनिया के डर से इस बेटी को वह अपनी छोटी बहन बताया करती थीं। बाद में दुनिया को पता चला कि यह उनकी बहन नहीं बल्कि बेटी हैं।

1924 में मुश्तरी बाई बेटी को लेकर कलकत्ता चली आयीं। कलकत्ता उस वक्त गीत संगीत, नाटक व फिल्म का गढ़ था। पटियााला के उस्ताद अता मोहम्मद से उनकी तालीम जारी रही। इसके बाद उन्होंने उस्ताद अब्दुल वाहिद खान आैर अंत में झंडे खां से भी संगीत की बारिकियां सीखीं। उन्होंने कलकत्ता में रहकर महफिलों में जाना शुरू कर दिया था। कलकत्ता में उनकी गायिकी धूम उस वक्त हुई जब 20 की उम्र में उन्होंने पहला पब्लिक परफर्मेंस दिया। 1934 में अख्तरी बाई फैजाबादी के नाम से पहली बार मंच पर उतरीं। उनकी आवाज में जिन्दगी ने दिये जख्म के सारे दर्द साफ झलकते थे। यह कार्यक्रम बिहार के भूकंप पीडि़तों के लिए चंदा इकट्ठा करने के लिए कलकत्ता में हुआ था। अख्तरी बाई के गाने ‘दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे” पर सबने खुलकर दाद दी।

कार्यक्रम में भारत कोकिला सरोजनी नायडू भी मौजूद थीं। वे अख्तरी बाई से बहुत प्रभावित हुईं और उन्होंने दिल खोलकर सराहना की व आशीर्वाद दिया। बाद में सरोजनी नायडू ने एक खादी की साड़ी भी उन्हें भेंट में भिजवाई। इस परफार्मेंस के बाद बेगम अख्तर को एक नयी पहचान मिली। मेगाफोन कम्पनी के मालिक जेएन घोष ने उन्हें छह गजलें रिकार्ड करने का प्रस्ताव दिया। रिकार्ड की गयी उनकी पहली गजल थी ‘ओ असीरे दामे बला हंू”। ग्रामाफोन द्वारा रिलीज यह रिकार्र्ड चल निकला। अख्तरी बाई फैजाबादी ने पहली बार कामयाबी का स्वाद चखा। इसके बाद उनके ठुमरी, दादरा, चैती, खयाल के कई रिकार्ड रिलीज हुए अौर वे दिनों दिन लोगों के दिलों में राज करने लगीं। 1936 में आल इंडिया रेडियो कलकत्ता ने भी उन्हें रिकार्ड किया।

इस बीच वे अभिनेत्री के रूप में फिल्म आैर थियेटर में भी काम करने लगी थीं। नल दमयंती (1933), एक दिन का बादशाह (1933) मुमताज बेगम (1934), अमीना (1934 ), रूपकुमारी (1934), जवानी का नशा (1935), नसीब का चक्कर (1936) जैसी फिल्मों में काम करने से उनकी शोहरत आसमान छूने लगी। यही नहीं लैला मजनूं (1934) व नई दुल्हन (1934) उनके महशूर नाटक थे। फिल्मों में भी गाये उनके गीत खूब पसंद किये जाने लगे। मेगाफोन रिकार्ड कम्पनी अब उनके रिकार्ड पर उनके नाम का बाकायदा विज्ञापन जारी करती जिस पर लिखा होता था ‘अख्तरीबाई फैजाबादी फिल्म स्टार”। एक फिल्म कम्पनी उनका मेहनताना चुकाए बिना बंद हो गयी। अख्तरी बाई ने उस पर मुकदमा ठोंकने का मन बना लिया।

इसी सिलसिले में 1937 में लखनऊ के बैरिस्टर इश्तियाक अहमद सिद्दीकी से उनकी पहली मुलाकात हुई थी। वे मन ही मन इश्तियाक को चाहने लगी थीं। इसी बीच हिन्दुस्तान के मुख्तलिफ रियासतों से उन्हें मेहमान ए खुसूसी का न्योता भी मिलने लगा। निजाम हैदराबाद ने उनके लिए सौ रुपये महीने का वजीफा भी मुकर्रर कर दिया था। नवाब रामपुर उनकी खूबसूरती पर फिदा हो गये थे आैर उन्होंने अपने दरबार की अहम पदवी से नवाजा। अख्तरी बाई अपना आधा समय रामपुर आैर आधा लखनऊ में गुजारने लगीं। कलकत्ता से मिली शोहरत के बावजूद उनका दिल लखनऊ में रमने लगा।

1938 में अख्तरी बाई ने लखनऊ में अपना खुद का दो मंजिला मकान अख्तरी मंजिल हजरतगंज के करीब बनवाया। उस जमाने में गाने बजाने वालियों की बस्ती पुराने लखनऊ में हुआ करती थी। हजरतगंज क्षेत्र में मकान बनवाने से उनकी रुतबे हस्ती आैर शोहरत का पता चलता है। अभिनेत्री होने के बावजूद उनकी गायकी का जलवा अब दूर दूर तक फैलने लगा था। उनके घर की ऊपरी मंजिल पर महफिलें सजतीं। जिसमें नवाब रामपुर एचएच रजा अली खां भी खिंचे चले आते।

उस समय कुछ लोग उन्हें तवायफ भी समझते थे। बेगम अख्तर की सबसे प्रिय शिष्या रीता गांगुली ने उन पर एक किताब भी लिखी है। उनका कहना है कि पहली परफर्मेंस के समय अख्तरी बाई की उम्र 11 साल थी। एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि मुंबई के एक तवायफ संगठन ने मुश्तरी बाई से उनकी बेटी को उन्हें सौंपने का अनुरोध किया था। बदले में एक लाख रुपए देने का प्रस्ताव रखा था लेकिन अख्तरी और मां मुश्तरी ने इस पेशकश को ठुकरा दिया था।

1935 में उनका पहला डिस्क आया। उन्होंने कुछ फिल्मों में भी काम किया। धीरे-धीरे शोहरत बढ़ी और अख्तरी बाई के प्रशंसक भी बढ़ गए। मकबूलियत के नए आसमान छूने लगी थीं। अख्तरी बाई फैजाबादी का नाम अब घर-घर में लोग जानते थे।

1940 के आस पास उनका फिल्मों में काम करना उनके उस्ताद इसे गायकी के साथ अन्याय मानते थे। वे इसके खिलाफ खड़े हो गये। नवाब रामपुर भी उस्ताद जी के साथ खड़े हो गये। महबूब खान की फिल्म ‘रोटी” (1940) करने के बाद उन्होंने फिल्म से किनारा कर लिया।  (जारी…)

# प्रेमेन्द्र श्रीवास्तव