लखनऊ/नयी दिल्ली। हाथी के दांत खाने और दिखाने के अलग-अलग होते हैं। कुछ इसी तर्ज पर आरएसएस और भाजपा के रिश्ते भी चलते हैं। जो विपक्षी दलों की समझ के परे हैं। इसे वही जान सकता है जिसने अरसे तक भाजपा और संघ के रिश्तों को देखा-समझा है। राजनीति के गलियारों में इस समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी के तल्ख रिश्तों को लेकर हो रही चर्चाओं का भी हाल कुछ ऐसा ही है। विपक्ष इस बात को लेकर बहुत खुश हो रहा है कि संघ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा और बीजेपी से नाराज है। परंतु उसे नहीं मालूम कि संघ और भाजपा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। संघ अगर विचार है तो भाजपा उसका आचार। संघ अगर दिमाग है तो भाजपा उसका हाथ। कुल मिलाकर भाजपा का जन्म ही संघ की कोख से हुआ है। ऐसे में न तो कोई बेटा अपनी मां से नाराज हो सकता है और न ही मां बेटे को डांटकर बहुत देर तक नाराज रह सकती है। दोनों की नाराजगी खत्म होनी ही है। मां कभी-कभी अधिकार स्वरूप अपने बेटे को थोड़ा डांट भी देती है। किंतु इससे दोनों के रिश्ते खत्म नहीं होते।
इस बाबत विपक्ष का कहना है कि पीएम नरेंद्र मोदी के अहंकार से नाराज होकर संघ प्रमुख मोहन भागवत ने अपने वक्तव्य में नरेंद्र मोदी और भाजपा को बहुत डांटा है, संघ और भाजपा के रिश्ते इस समय अच्छे नहीं है, भाजपा और नरेंद्र मोदी के बुरे दिन आ गए हैं। दरअसल चुनाव परिणाम आने के बाद संघ प्रमुख मोहन भागवत ने एक वक्तव्य में कहा था कि काम करना अच्छी बात है, यह हमारा कर्तव्य है। किंतु हमने ही किया है, ऐसा सोचना अहंकार है। इसके अलावा उन्होंने मणिपुर के मामले को उठाते हुए कहा था कि मणिपुर एक साल से शांति की राह देख रहा है, उस पर भी ध्यान देना होगा। हालांकि उन्होंने इस मामले में न तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम लिया और न ही भाजपा का। परंतु इसी बात को लेकर उद्धव ठाकरे के शिवसेना समेत पूरा विपक्ष नरेंद्र मोदी और भाजपा सरकार पर हमलावर है। इस चर्चा को थोड़ी और हवा दे दी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुस्लिम मोर्चे के प्रमुख इंद्रेश ने। उन्होंने एक कार्यक्रम में कहा कि जिन्होंने राम का काम किया और उन्हें अहंकार हो गया तो वे बहुमत के नजदीक पहुंच कर रूक गये। परंतु जो राम द्रोही थे उन्हें जनता ने एकदम पीछे कर दिया। हालांकि बाद में जब संघ ने उनके बयान से किनारा किया तो इंद्रेश खुद सफाई देने के लिए मैदान में आए।
उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार अच्छा काम कर रही है। इसीलिए जनता ने उन्हें तीसरे कार्यकाल का आशीर्वाद दिया है। अब इसे संघ और भाजपा की नूरा कुश्ती कहें या सचमुच की लड़ाई समझ से परे है। एक तरफ तो 2024 के लोकसभा चुनाव से संघ द्वारा अपने हाथ खींच लेना उसकी भाजपा के प्रति नाराजगी दर्शाता है वहीं दूसरी तरफ संघ की मुस्लिम शाखा के प्रमुख इंद्रेश द्वारा पहले नरेंद्र मोदी और भाजपा की खिंचाई और बाद में अपने बयान से पलटना भाजपा के प्रति संघ का नरम रवैया दर्शाता है। ऐसे में झट से यह कह देना कि संघ और भाजपा के रिश्ते खराब हैं, थोड़ी जल्दबाजी होगी।
भाजपा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की एक अनुसांगिक शाखा है। इसे यह भी कह सकते हैं कि पहले का जनसंघ और बाद में बनी भारतीय जनता पार्टी का जन्म ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की कोख से हुआ है। संघ भाजपा की मार्गदर्शक संस्था है। उसके दिशा निर्देश भाजपा के लिए आदर्श होते हैं। किंतु 2019 से लेकर 2024 तक का भाजपा सरकार का कार्यकाल इस थ्योरी को नकारता है। कई अवसरों पर देखा गया कि संघ के नेताओं को भाजपा नेताओं की तुलना में तरजीह नहीं दी गई। चाहे अयोध्या में 22 जनवरी को रामलला की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम हो या लोकसभा चुनाव के लिए प्रत्याशी चयन का मामला। दोनों ही मौकों पर साफ दिखा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को संघ प्रमुख की तुलना में अधिक तरजीह दी गई। इस दौरान संघ प्रमुख के निर्देश उतनी गंभीरता से नहीं लिये गए जितने के लिए संघ जाना जाता है। हां, ये जरूर है कि संघ प्रमुख भागवत ने चुनाव परिणाम आने के बाद भाजपा और उसके नेताओं को नसीहत जरूर दिया किंतु मर्यादा में रहकर, इशारों-इशारों में। उन्होंने कहा कि अच्छा काम सबको करना चाहिए। किंतु हमने ही किया है, इस बात का अहंकार नहीं होता चाहिए। किसी भी अच्छे आदमी के लिए यह ठीक नहीं है, इससे बचना चाहिए। बाद में संघ नेता इंद्रेश ने इसे विस्तार दे दिया। तभी से विपक्ष ने इसे मुद्दा बना लिया।
बताते हैं कि संघ-भाजपा के रिश्तों की मधुरता वर्ष 2019 में भाजपा की दूसरी पूर्ण बहुमत की सरकार बनने के बाद से ही कम होने लगी थी। भाजपा के बड़े नेता संघ के सुझावों पर अमल करने की बजाय उन्हें इग्नोर करने लगे। यहां तक कि अयोध्या में 22 जनवरी 2024 को हुए रामलला के प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम में भी प्रमुखता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दी गई। उनके साथ गए संघ प्रमुख मोहन भागवत को उनकी तुलना में कम तरजीह मिली। यहां तक कि इस अवसर पर आयोजित कार्यक्रमों के संबोधनों में भी पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम लिया गया। तभी से लोगों ने अंदाजा लगाना शुरू कर दिया कि भारतीय जनता पार्टी अब संघ के ऊपर हावी हो गई है। तब तक संघ ने इस बाबत कोई प्रतिक्रिया भी नहीं दी थी। खबर ये भी है कि बीते लोकसभा चुनाव में टिकट वितरण में भी संघ के सुझावों की अनदेखी की गई। इससे संघ नाराज हो गया था। खबर है कि इसी नाराजगी में उसने चुनावों से अपना हाथ खींच लिया। उसने स्वयंसेवकों को कह दिया था कि अभी भाजपा जैसा कर रही है, उसके कार्यकर्ता जैसा करना चाहते हैं, करने दो। उनको डिस्टर्ब करने की जरूरत नहीं है।
इस संदर्भ में एक और बात विशेष रूप से उल्लेखनीय है। चुनाव के पूर्व भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और देश के स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा ने एक साक्षात्कार के दौरान संघ को एक वैचारिक मोर्चा बताते हुए उसके भाजपा में हस्तक्षेप को लेकर उसकी प्रासंगिकता पर परोक्ष रूप से सवाल उठाया था। उन्होंने कहा था कि संघ वैचारिक रूप से कार्य करता है और हम एक राजनीतिक संगठन के रूप में। जेपी नड्डा ने यह भी कहा था कि भाजपा सक्षम और बड़ी पार्टी हो गई है उसे अब संघ के समर्थन की बहुत जरूरत नहीं है। बताते हैं कि संघ ने उनके बयान को गंभीरता से लिया था। किंतु उस समय भाजपा के बड़े नेताओं ने भी नड्डा के बयान को खारिज नहीं किया तो संघ ने भी इस पर तुरंत कोई प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त की थी। अब जब भाजपा थोड़ी कमजोर हुई है तो संघ और भाजपा के कथित मतभेद दिखने लगे हैं। इसे लेकर हाल ही में जब गोरखपुर के कार्यकर्ता विकास वर्ग में एक प्रशिक्षु ने प्रश्न किया तो भागवत ने कहा कि इस पर ध्यान देने की जरूरत नहीं है। हमें केवल संगठन की प्रगति के लिए कार्य करते रहने की जरूरत है। संघ प्रमुख ने जेपी नड्डा के बयान को उनका व्यक्तिगत विचार बताया। उन्होंने कहा कि हमारे देश में हर नागरिक को अपने विचार खुलकर रखने की स्वतंत्रता है।
बताते हैं कि 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद संघ के अंदर यह बात उठने लगी कि भारतीय जनता पार्टी पर नरेंद्र मोदी, अमित शाह और गुजरात लाबी का कब्जा हो गया है। इसीलिए भाजपा के चरित्र में परिवर्तन हो रहा है, और भाजपा अहंकारी होती जा रही है। इन्हीं सब बातों से नाराज होकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने 2024 के लोकसभा चुनाव में अपने हाथ खींच लिए थे। इसके चलते मतदान प्रतिशत गिरा और भाजपा अपने अकेले दम पर पूर्ण बहुमत से वंचित हो गई। संघ चाहता तो अपनी नाराजगी के फलस्वरूप वह भाजपा के खिलाफ अभियान भी चला देता। इससे भाजपा की स्थिति और भी खराब हो जाती। किंतु ये मां-बेटे का रिश्ता था, मां की थोड़ी नाराजगी थी। इसलिए उसने सिर्फ अपने बच्चे को थोड़ा डांटा। इसके चलते मतदान प्रतिशत गिरा और भाजपा को नुकसान हुआ। इसीलिए इस बार भाजपा पिछले दो चुनावों 2014 और 2019 की तुलना में कमजोर हुई है, और अपने दम पर बहुमत नहीं पा सकी।
इस मामले में रही-सही कसर संघ के मुखपत्र ऑर्गेनाइजर अखबार में छपे पत्रकार रतन शारदा की लेख ने पूरी कर दी। उन्होंने लेख में महाराष्ट्र में अजित पवार की पार्टी के साथ हुए गठबंधन पर ही सवाल उठा दिया। अखबार ने लिखा कि जब भाजपा और शिवसेना शिंदे को मिलाकर सरकार बनाने लायक पर्याप्त बहुमत था तो अजित पवार को लेने की क्या जरूरत थी। इससे भाजपा को नुकसान हुआ है। विपक्ष ने विशेष कर शिवसेना उद्धव गुट के नेता संजय राउत ने इसे दिल का ताड़ बनाने की कोशिश की। भाजपा नेताओं ने भी अपनी मां की बात त को एक जिम्मेदार बच्चे की तरह सुना, लेकिन कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। इसलिए विपक्ष को आगे इस मामले में और नमक मिर्च मिलाने में मदद नहीं मिली। इस प्रकार मोहन भागवत की इशारे-इशारे में दी गई नसीहत, इंद्रेश के किए गए प्रहार और बाद में बयान वापसी तथा ऑर्गेनाइजर में छपे लेख ने विपक्ष को काफी मसाला दे दिया। और विपक्ष भाजपा पर हमलावर हो गया, जिसकी इन दिनों काफी चर्चा है। परंतु भाजपा और संघ के रिश्तों को जानने और समझने वाले इसे संघ की कोई दूरगामी चाल बताते हैं। जिससे आगे चलकर भाजपा को ही लाभ होने वाला है।
अब बात करते हैं कि भाजपा और संघ एक दूसरे के पूरक कैसे हैं। संघ को पूरे देश में अपने हिंदुत्व की विचारधारा का विस्तार करना है। इसके लिए उसे अपनी शाखाओं का विस्तार करके एक लाख तक पहुंचाना है। अभी पूरे देश में उसकी 65000 से अधिक शाखाएं संचालित हैं। अयोध्या में वर्ष 2022 में हुए एक प्रशिक्षण वर्ग के दौरान संघ ने देश के सीमावर्ती क्षेत्रों में भी शाखाएं चलाने का संकल्प लिया या था, विशेष कर कश्मीर में। और यह तभी संभव है जब उसे राजनीतिक रूप से भाजपा का समर्थन मिले। जब तक भाजपा की सरकारें पूरे देश में नहीं होंगी तब तक संघ को अपने इस अभियान में सफलता नहीं मिलेगी। इसलिए अपने संगठन के विस्तार के लिए भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को भाजपा की जरूरत है। उधर अपने राजनीतिक अभियान में और सफलता प्राप्त करने और पूरे भारत में पार्टी के विस्तार के लिए भारतीय जनता पार्टी को भी संघ के बाहुबल और विचार की जरूरत है।
दरअसल दोनों ही संगठन एक-दूसरे के पूरक हैं। क्योंकि दोनों की सोच एक हिंदू राष्ट्र बनाने की है, जहां सबको समान अधिकार मिलें और सनातन की मर्यादा स्थापित हो। इसी को रामराज्य की संज्ञा दी गई है। वैसे भी चाहे वह यूनिफॉर्म सिविल कोड हो, एक देश एक चुनाव हो, जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 की वापसी हो, सीएए हो या और कुछ ये सभी एजेंडे संघ द्वारा ही भाजपा को दिए गए हैं। नरेंद्र मोदी की सरकार ने अपने 10 साल के कार्यकाल में इसमें बहुत मेहनत की है और काफी कुछ काम कर भी लिया है। बाकी बचे कामों को भी भाजपा ही कर सकती है। ऐसे में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भाजपा से नाराज हो जाएगा और उसका कोई बड़ा नुकसान कर देगा यह सोचना बेवकूफी होगी। दूसरी बात यह कि नरेंद्र मोदी भी पहले संघ के ही कार्यकर्ता थे, प्रचारक थे। संघ से ही उनकी एंट्री भाजपा में गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में हुई। यह बिना संघ की इच्छा और मदद के संभव नहीं था। हो सकता है कि बाद के दिनों में कुछ चीजें संघ को नागवार गुजरी हों और उसने नाराजगी दिखाने के लिए 2024 के चुनाव में अपने हाथ थोड़े खींच लिए हों, किंतु हमेशा ऐसा होगा यह सोचना मूर्खता होगी। जो भी संघ और भाजपा को अलग-अलग देखने की मूर्खता करेगा उसका आकलन गलत ही साबित होगा। दोनों एक-दूसरे से अलग हो जाएंगे या नाराज हो जाएंगे इसकी कल्पना करना ही बेकार है।
एक बात और, इस समय अगर संघ भाजपा से दूरी बनाए रखने का दिखावा कर रहा है तो उसकी भी कोई वजह होगी। जिसका खुलासा आने वाले समय में हो ही जाएगा। परंतु इतना सच है कि ना संघ भाजपा से अलग होने वाली है ना भाजपा संघ से अलग होने वाली है। राष्ट्रवाद और हिंदुत्व की भावना को अपनी कर्तव्यों के मध्य में रखकर समाज सेवा करने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने हमेशा देश प्रेम और हिंदुत्व की भावना को महत्व दिया। चाहे वह इंदिरा गांधी की हत्या के बाद होने वाले विवाद का मामला ही क्यों न हो। जिस दिन स्वर्गीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या हुई थी उस दिन शाम होते-होते पूरे देश में सिख विरोधी अभियान चल पड़ा। संघ ने इसे देश के प्रधानमंत्री का अपमान और हत्या मानकर खुलके कांग्रेसियों का साथ दिया। नतीजे के रूप में राजीव गांधी को 415 सांसदों वाली सरकार मिली। उस समय संघ ने भाजपा नहीं देश को देखा। स्वर्गीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या के बाद भी संघ ने एक बार फिर पार्टी हित को छोड़कर कांग्रेस की भावनाओं का सम्मान किया। उस समय भी कार्यकर्ताओं को कांग्रेस के खिलाफ जाने से रोक दिया गया था।
ऐसे में संघ कब और क्या करता है, यह समझ पाना बहुत आसान नहीं है। यह भी सच है कि संघ, भाजपा के खिलाफ नहीं जा सकता क्योंकि उसे भाजपा की जरूरत है। उसके एजेंडे को भाजपा ही पूरा कर सकती है। उसे यह भी मालूम है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में ही भाजपा ने पिछले तीन बार से अपना सर्वाधिक अच्छा प्रदर्शन किया है। ऐसे में नरेंद्र मोदी को किनारे करके संघ कोई रिस्क नहीं लेगा। राजनीतिक रूप से संघ बीच-बीच में यह जाहिर करता रहता है कि उसका भाजपा से कोई लेना-देना नहीं है। वह अपने को वैचारिक संगठन और भाजपा को राजनीतिक संगठन बनाए रखने के लिए इस तरह की प्रायोजित बयानबाजी करता रहता है। जानकार इसे विपक्ष को असावधान करने की संघ की रणनीति के रूप में देखते हैं। उनका कहना है कि जब भी संघ को बड़ा काम करना होता है तो वह पहले ये मैसेज फैलाता है कि उसका भाजपा से कोई लेना-देना नहीं है। और फिर अंदर-अंदर होमवर्क शुरू कर देता है कि किस तरह भाजपा को बड़ी सफलता दिलाई जाए।
इस बार भी ऐसा ही कुछ होने वाला है, जो आने वाले दिनों में सामने आ ही जाएगा। तब तक विपक्ष भ्रमित रहेगा और संघ अपना काम करता रहेगा। स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेई की सरकार जाने के बाद 10 साल तक संघ ने यही काम किया था और जमीनी स्तर पर जुटकर होमवर्क किया। इसका नतीजा हुआ कि नरेंद्र मोदी की प्रधानमंत्री के रूप में ताजपोशी हुई। इस बार भी जानकार इसी तरह का कुछ समीकरण देख रहे हैं। उनका मानना है कि भाजपा तो रहेगी पर शायद चेहरा बदल जाए। वैसे भी नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में बने नियम के अनुसार भाजपा में 75 साल रिटायरमेंट की उम्र रखी गई है। नरेंद्र मोदी भी अगले 2 साल में 75 साल के हो जाएंगे। अब ये देखना दिलचस्प होगा कि इस नियम में शिथिलता देकर अगली बार भी भाजपा के चेहरे के रूप में नरेंद्र मोदी आएंगे या संघ किसी और चेहरे की तलाश कर लेगा। पर यहां एक बात और जोड़ना आवश्यक है कि जब नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित किया गया तो उस समय और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई शारीरिक रूप से अस्वस्थ थे। इसलिए उनके नाम पर विचार नहीं किया गया। ऐसे में यह नियम नरेंद्र मोदी के पर भी लागू होगा, कह पाना थोड़ा मुश्किल है क्योंकि मोदी तो अभी भी फिट एण्ड फाइन हैं।
अभयानंद शुक्ल
राजनीतिक विश्लेषक