भारतीय स्टेट बैंक ने कमाया कम, डुबाया कई गुना

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5 सालों में धोखाधड़ी में 71411 करोड़ गए

10 सालों में लाभ 99453 करोड़ और डूब गए 3 लाख करोड़ 

व्यक्तियों की भांति संस्थाओं के भी कई चेहरे होते हैं। मेक अप किया चेहरा अमूमन आकर्षित करता ही है क्योंकि नज़रों के सामने यही पड़ता है। गहरे पैठ करने पर सच्चाइयों की जो परतें खुलती हैं वे रंगे पुते चेहरे से दूर-दूर तक मेल नहीं खाती हैं। बात भारतीय बैंकिंग उद्योग के चमकते सितारे भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) की हो रही है।

इसके आदमकद डील-डौल के सामने क्या अगल बगल तक एक भी दूसरा बैंक नहीं ठहरता। नगीना समझे जाने वाले इस बैंक के सालों के वित्तीय क्रियाकलापों की तह तक जाने पर तथ्यों का जो पुलिंदा हाथ लगा उसे इसके करोड़ों ग्राहकों (खाताधारकों) और उन निवेशकों के सामने खोलना जरूरी है।

इसलिए कि सरकारी बैंक होने के नाते इसमें लगी हजारों करोड़ की पूंजी करदाताओं से एकत्रित धनराशि ही तो है। शेयरों में निवेश की गई पूंजी निवेशकों की वो रकमें हैं। जिसे उन्होंने बिना किसी ‘इफ ऐंड बट’ पूरे विश्वास के साथ लगाया हुआ है। अपने एसोसिएट बैंकों का इसमें विलय होने से एसबीआई का विस्तृत आकार ही संभवतः इसके कारगर संचालन में एक प्रमुख कारण बनकर खड़ा है।

इसके पहले की वजह नीति निर्धारकों के निर्णय रहे। जब भी एक बैंक की हालत काबू के बाहर होती नीति निर्धारकों ने एकल फाॅर्मूला अपनाया। उसकी समस्याओं का एकमात्र समाधान किसी बड़े बैंक में उसका विलय। खामियों को दूर करने में नीति निर्धारकों की दिलचस्पी कभी भी नहीं रही। रोगी का रोग दूर करने के बजाय उसे बाॅडीबिल्डर के गले बांध दो, न रहे बांस न बजेगी बांसुरी। आगे जब कभी बाॅडीबिल्डर डगमगाएगा, तब की तब देखी जाएगी।

यह फौरी नीति समूची अर्थव्यवस्था के लिए घातक रही है। ऐसा ही बाॅडीबिल्डर है अपना एसबीआई, सबसे बड़ा बन गया। देश में सबसे ज्यादा तादाद में शाखाएं इसी की है। सबसे अधिक संख्या में एटीएम इसी के। सबसे भारी भरकम बैलेंस शीट इसकी, सबसे अधिक बिज़नेस करने वाला है कोई बैंक तो एसबीआई।

तो इतने सारे क्षेत्रों में नंबर एक बना है, तो मुनाफा कमाई से कई गुना धनराशि डुबाने में भी बेमिसाल। एनपीए का मुद्दा है तो भी कई-कई गोल्ड मेडल कमती हैं इसकी सक्षम कार्य प्रणाली को सम्मानित करने में। सत्तर साल का होने के करीब है एसबीआई, ये दशक आज़ादी के बाद के उतार-चढ़ाव से भरे अवश्य रहे हैं। पर त्वरित बदलती टेक्नालॉजी और तलवार की धार जैसी बेरहम बाजार प्रतिस्पर्धा में टिकना कठिन से कठिनतम हो गया है।

ऐसे में बैंक या वित्तीय संस्थाओं को राजनीतिक जोड़-तोड़ के सहारे चलाने के परिणाम आर्थिक हितों की उपेक्षा ज्यादा ही करते हैं। इनकी लगाम वित्त के अथाह समुद्र में कश्ती को तैराने में कुशल और मंझे नाविक (सौ प्रतिशत प्रोफेशनल) के हाथों में देने की रणनीति ही कारगर सिद्ध होती है। इस मामले में भारतीय बैंकिंग उद्योग कम भाग्यशाली रहा। अन्य की तरह एसबीआई को भी सरकारी पूंजी मिलती रहती है जो कारोबारी विस्तार के लिए बहुत कम रहने से इधर-उधर से बड़े स्तर पर उधारी लेकर उधार बांटना ही इसका मूल व्यवसाय है।

थोड़ा पीछे चलते हैं। 2011-12 में इस पर 1.27 लाख करोड़ रु की उधारी थी और यही पहला साल था जब बैंक का एनपीए प्रावधान पहली बार दस हजार करोड़ के स्तर को पार कर 11546 करोड़ रु किया गया। इसी साल में शुद्ध लाभ 11707 करोड़ हुआ था। 2013-14 में लाभ घटकर 10891 करोड़ रह गया और एनपीए पर 14224 करोड़ स्वाहा हो गए। लाभ की उलटी चाल और एनपीए अगाड़ी में फर्राटे भर रहा है।

2016-17 में भी वही, लाभ 10484 करोड़, इसके मुकाबले एनपीए तीन गुना यानी 32247 करोड़ रु बट्टे खाते में डालकर शीर्ष प्रबंधन ने बैंकिंग फ़र्ज निभाया। साल 2017-18 ने एसबीआई को शर्मसार किया ही अंतर्राष्ट्रीय वित्त बाजार में समूचे भारतीय बैंकिंग उद्योग की बहुत ज़्यादा किरकिरी कराई। बैंक का टाॅप मैनेजमेंट, उनकी देखरेख में काम करने वाली अव्यवस्थाग्रस्त वित्तीय प्रणालियों की असलियत खुलकर सामने आई जब एनपीए का प्रावधान करने में माहिर इसके बैंकरों ने फिर 70680 करोड़ रु इस मद में डुबा दिए। और कमाई के नाम पर 6547 करोड़ रु का शुद्ध घाटा उठाने का रिकॉर्ड एसबीआई के नाम दर्ज हो गया।

बैंक का तथाकथित जिम्मेदार प्रबंधन आज भी’ कमाई कम डुबाओ ज्यादा’ की परिपाटी को बखूबी निभा रहा है। बताया गया अधिकारियों ने बहुत मशक्कत की, फिर भी आंकड़े के हिसाब से इसी मार्च में समाप्त वित्तीय वर्ष 2020-21 में बैंक ने 20410 करोड़ रु शुद्ध लाभ कमाया, उधर 27244 करोड़ रु एनपीए में डूब गए।

इस तरह बैंक ने 2011-12 से 2020-21 तक के दस सालों में कुल मिलाकर 99453 करोड़ रु अर्जित लाभ की तुलना में तीन गुना से अधिक यानी 3 लाख 9 हजार 506 करोड़ बट्टे खाते में डाले, ये रकम डूब गई, बह गई। कहने को तो सारे‌ सिस्टम से लैस है बैंक फिर भी धोखा धड़िए कैसे प्रबंधन को चकमा देकर हर साल करोड़ों रु की चपत लगाकर निकल लेते हैं और अदृश्य बंधनों (?) में जकड़ा असहाय प्रबंधन इन लंबी रकमों को बट्टे खाते में डालने का मानो आदी हो चुका है। ज्यादा नहीं पीछे के पांच साल के बही खाते प्रमाणित करते हैं – 2016-17 में 2360 करोड़, 2017-18 में 2359 करोड़ से पांच गुना 2018-19 में 12310 करोड़, फिर करीब चार गुना उछलकर 2019-20 में 44419 करोड़ रु और 2020-21 में 9963 करोड़ रु बड़ी आसानी से बट्टे खाते में डालकर प्रबंधक जिम्मेदारी से मुक्त हो गए।

इन आंकड़ों को देखकर हैरानी होती है लेकिन नीति नियंताओं के चेहरे पर शिकन नहीं, बैंक के अरबों रु की धनराशियां इन्हें सैकड़ा हजार की रकम लगती है। इन पांच सालों में सिर्फ धोखाधड़ियों की जमात ने अपनी दम पर बैंक के 71411 करोड़ रु हड़प लिए होंगे? यह स्थिति तब है जबकि बैंक के चेयरमैन और एमडी, डिप्टी एमडी, 3 चीफ जनरल मैनेजर की टीम स्ट्रेस्ड एसेट्स मैनेजमेंट (एसएएम) को देखती है। स्ट्रेस्ड एसेट रिज़ोल्यूशन ग्रुप (एस एआरजी) देश में फैली 17 एसएएम शाखाओं और 48 रिकवरी शाखाओं के जरिए इस क्षेत्र का संचालन करता है।

एसबीआई के ऊपर जिस गति से कर्जदारी बढ़ी है। उससे इसकी 58-62 प्रतिशत आय कर्ज पर ब्याज के भुगतान में चली जाती है। देशी और विदेशी मिलाकर 2011-12 में 1.27 लाख करोड़ रु का कर्ज था। बढ़ते बढ़ाते यह 2019-20 में 3.32 लाख करोड़ (देशी स्तर पर 1.12 लाख करोड़, विदेशी 2.1लाख करोड़) से एक वर्ष में 30 प्रतिशत की भारी वृद्धि से 2020-21 में 4.33 लाख करोड़ रु होने से इन दो सालों में क्रमशः 1.59 लाख करोड़ और 1.54 लाख करोड़ रु का ब्याज भरना पड़ा।

इसके सापेक्ष इन दो वर्षों में ब्याज आय क्रमशः 2.57 लाख करोड़ रु और 2.65 लाख करोड़ रु हुई। यह तो सिर्फ कर्ज़ पर ब्याज भरने की बात है। ब्याज की अदायगी के बाद जो धनराशि बचती है प्रबंधन उसमें से बहुत बड़ा हिस्सा प्रचालन मद पर खर्च करता है। मसलन 2019-20 और 2020-21 में इस मद पर क्रमशः 75144 करोड़ रु और 82652 करोड़ रु खर्च किए गए। एसबीआई की कुल चुकता शेयर पूंजी 892 करोड़ रु है जो 1 रु अंकित मूल्य वाले शेयरों में बंटी हुई है। एसबीआई के शेयरों में अधिकतम दो लाख रु की पूंजी लगाने वाले छोटे निवेशकों की संख्या 26 लाख से अधिक है।

प्रणतेश नारायण बाजपेयी