नौशाद साहब के इंतकाल के बाद उनकी नानी के घर से एक खत मिला। जिसमें उन्होंने लखनऊ को बेइंतिहा मिस करने के साथ ही बचपन की यादें फिर से ताजा करते हुए तफसील से मंजरकशी की थी। वे नानी से बेइंतिहा मोहब्बत करते थे, इसका कारण ये था कि वे बचपन से ही नानी के घर मेें ही पले बढ़े थे।
जैसे कि आम धारणा है कि ज्यादा प्यार दुलार से बच्चे ननिहाल में अक्सर बिगड़ जाते हैं, नौशाद साहब ने भी इस धारणा मेें कई चांद आैर लगा दिये। आठ साल की उम्र मेें स्कूल की जगह वे घर के पास वाली दरगाह से पैसे उठाकर, सिनेमा देखने चले जाते थे। उनके मामूजान अल्लन साहब की म्यूजिक इंस्ट्रूमेंट की दुकान थी। नौशाद साहब हरकतें आैर स्कूल के रिजल्ट को देखकर उनको इल्हाम हो गया था कि अगर इस नूरेचश्म को काम पर नहीं लगाया तो बिगडते देर नहीं लगेगी।
उन्होंने अपने ही हमपेशा के वहां साफ सफाई के काम पर लगा दिया। यहां पर साज को साफ करते करते उन्हें साजों से प्यार हो गया। एक दिन वे हारमोनियम पर बड़ी तन्मयता से उंगलियां दौड़ा रहे थे कि तभी मालिक साहब आ धमके। खासा नाराज हुए आैर उन्होंने एलान किया, ‘मियां, उठाइये पेटी (हारमोनियम) आैर जाइये उस्ताद के यहां सीख कर आइये।
उन्होंने हारमोनियम की बुनियादी तालीम उस्ताद बब्बन खान साहब व सितार की शिक्षा उस्ताद यूसुफ अली साहब से प्राप्त की। शौकिया तौर पर विंडसर म्यूजिक इंटरटेनर्स ग्रुप बनाया। साथ ही गोलागंज में स्टार थियेटरिकल कम्पनी से जुड़कर संगीत देने का काम करते। ये वो दौर था जब मूक फिल्में बना करती थीं आैर सिनेमा हाल के मालिक बैकग्राउंड म्यूजिक के लिए अपने साजिन्दे, तखत पर सिनेमा के पर्दे के पास बैठाया करते थे। जिस रॉयल सिनेमा हाल (बाद में इसका नाम मेहरा हो गया था) में नौशाद साहब स्कूल से गुलठी मारकर सिनेमा देखा करते थे, वहां उन्हेें दिहाड़ी में हारमोनियम प्लेेयर का काम मिल गया।
शायद कुदरत उन्हें फिल्मी संगीत से जोड़ना चाहती थी। यहीं से उनके मन फिल्मों में संगीत देने का अंकुर फूटा। वालिद मुंशी वाहिद मियां को जब पता चला कि साहबजादे फिल्म में संगीत देने का इरादा रखते हैं तो पुराने ख्यालात की मुस्लिम खानदानों में सिनेमा को अच्छी नजर से नहीं देखा जाता था। एक दिन उनकी पेटी को घर के बाहर फेंककर अब्बा ने घोषणा कर दी कि या तो संगीत को चुन लो या परिवार को। उन्होंने संगीत को चुना।…
1937 में वे बम्बई (आज का मुम्बई) आ गये। न जान न पहचान, न रहने की जगह, न खाने का ठिकाना। दर-दर भटकने लगे। जमे हुए संगीतकारों के यहां चंद पैसों के लिए हारमोनियम बजाने का काम मिलता। फुटपाथ पर सो जाते। शुरुआती संघर्षपूर्ण दिनों में उन्हें उस्ताद मुश्ताक हुसैन खां, उस्ताद झण्डे खां और पंडित खेम चन्द्र प्रकाश जैसे गुणी उस्तादों की सोहबत नसीब हुई। साढ़े तीन-चार साल यूं ही निकल गये। सपने में लखनऊ आैर नानी आतीं तो चुपके से आंसू पोछकर करवट बदलकर सो जाते। घर वापस जा नहीं सकते थे।
फिर किस्मत ने पल्टा खाया। उन्हें पहली बार स्वतंत्र रूप से 1940 में ‘प्रेम नगर” में संगीत देने का अवसर मिला, इसके लिए उन्हें मात्र तीन सौ रुपये मिले थे। लेकिन उनकी अपनी पहचान बनी 1944 में प्रदर्शित हुई फिल्म ‘रतन” से। जिसमें जोहरा बाई अम्बाले वाली, अमीर बाई कर्नाटकी, करन दीवान और श्याम के गाए गीत बहुत लोकप्रिय हुए और यहीं से शुरू हुआ कामयाबी का ऐसा सफर जो कम लोगों के हिस्से ही आता है।…
नौशाद साहब ने बम्बई में मिली बेपनाह कामयाबियों के बावजूद लखनऊ से अपना रिश्ता कायम रखा। बम्बई में भी नौशाद साहब ने एक छोटा सा लखनऊ बसा रखा था जिसमें उनके हमप्याला हमनिवाला थे मशहूर पटकथा और संवाद लेखक वजाहत मिर्जा चंगेजी, अली रजा और आगा जानी कश्मीरी (बेदिल लखनवी), मशहूर फिल्म निर्माता सुलतान अहमद और मुगले आजम में संगतराश की भूमिका निभाने वाले हसन अली ‘कुमार”। उनकी भाषा मिजाज में लखनऊ की शीरीं जुबान, शराफत, नजाकत, तहजीब आैर एहतराम पर बम्बई का पानी कभी नहीं चढ़ सका। उन्हें हमेशा स्टाइलिश पोशाक में रहना पसंद था।
लखनऊ में रहने के चलते उनके शौक भी नवाबों वाले थे। उन्हें शेर का शिकार करना, मछली मारना व फोटोग्राफी बेहद पसंद थी। जब भी कोई सबजेक्ट किसी प्रोड्यूसर के हाथ आता जिसकी पृष्ठभूमि में लखनऊ होता तो संगीत के लिए उन्हें नौशाद साहब के अलावा आैर कोई नहीं सूझता। फिल्म ‘मेरे महबूब” व ‘पालकी” में उन्हांेने यादगार संगीत तैयार किया था।…
उन्होंने छोटे पर्दे के लिए ‘द सोर्ड अफ टीपू सुल्तान” और ‘अकबर द ग्रेट” जैसे धारावाहिक में भी संगीत दिया। बहरहाल नौशाद साहब को अपनी आखिरी फिल्म के सुपर फ्लाप होने का बेहद अफसोस रहा। यह फिल्म थी सौ करोड़ की लागत से बनी अकबर खां की ‘ताजमहल” जो रिलीज होते ही औंधे मुंह गिर गई। यहां जब फिल्म ‘मुगले आजम” को ब्लैक एंड व्हाइट से रंगीन किया गया तो उन्हें बेहद दिली खुशी हुई। 65 साल के संगीत के सफर संगीत सम्राट नौशाद साहब ने कुल 67 फिल्मों मेें ही संगीत दिया। उनकी 27 फिल्मेें सिलवर जुबली, 9 गोल्डेन आैर 3 डायमंड जुबली हुर्इं थीं। उन्हें पद्मश्री, दादा साहेब फालके व फिल्मफेयर अवार्र्ड से नवाजा गया।
उनकी पसंदीदा फिल्मों मेें ‘मुगल-ए-आजम”, ‘मदर इंडिया”, ‘पाकीजा” (गुलाम मोहम्मद के साथ संयुक्त रूप से), ‘अंदाज”, ‘आन”, ‘अनमोल घड़ी”, ‘अमर”, ‘स्टेशन मास्टर”, ‘शारदा”, ‘कोहिनूर”, ‘उड़न खटोला”, ‘दीवाना”, ‘दिल्लगी”, ‘दर्द”, ‘दास्तान”, ‘शबाब”, ‘बाबुल”, ‘दुलारी”, ‘शाहजहा”ं, ‘बैजू बावरा”, ‘लीडर”, ‘संघर्ष”,’साज और आवाज”, ‘दिल दिया दर्द लिया”, ‘राम और श्याम”, ‘गंगा जमुना”, ‘आदमी”, ‘गंवार”, ‘साथी”, ‘तांगेवाला”, ‘आईना”, ‘धर्म कांटा”, ‘सन अफ इंडिया”, ‘लव एंड गॉड” थीं। अन्य कई फिल्मों में उन्होंने अपने संगीत से लोगों को झूमने पर मजबूर किया।
यह बात कम लोगों को ही मालूम है कि नौशाद साहब शायर भी थे और उनका दीवान ‘आठवां सुर” नाम से प्रकाशित हुआ। 5 मई 2006 को वो इस फानी दुनिया को अलविदा कह गए। उन्होंने नानी को लिखे खत में कहा कि आपका खत मिला। सबकी याद आयी। फिर एक बार बचपन आंखों के आगे घूम गया। दिल करता है कि सब बच्चों को लेकर आपके पास आऊं आैर मस्जिद की छत पर चढ़कर कंकइया (पतंग) उड़ाऊं आैर आप नीचे से गुहार लगायें कि कमबख्तों नीचे उतरों नहीं तो गुनाह लगेगा। फिर पीर साहब की मजार पर जाऊं उसके पास के इमली के पेड़ से लिपट कर रोऊं। मुझे लखनऊ की यादें बड़ी सताती हैं। नौशाद साहब को लखनऊ से बेहद लगाव था और इससे उनकी खुद की इन पंक्तियों से समझा जा सकता है…
रंग नया है लेकिन घर ये पुराना है
ये कूचा मेरा जाना पहचाना है,
क्या जाने क्यूं उड़ गए पंछी पेड़ों से
भरी बहारों में गुलशन वीराना है।
प्रेमेन्द्र श्रीवास्तव