जो नहीं है वही भगवान शिव

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देवों के देव हैं महादेव…

भगवान शिव ब्रम्हांण्ड के रचयिता है, अजन्में है वह, अनंन्त है वो अर्थात उनका न तो आदि है एवं न अंत है, वह सर्वव्यापी है, पंचमहाभूतों के नाथ भूतनाथ है वह, सरलता मनवांछित वर देने वाले भोलेनाथ है वह, कालोपरि है, परम् योगी है, विद्याओं के तीर्थ है वह, भक्तवत्सल है, वैरागी है, बंधन भी वही है और मुक्ति भी वही, कारण भी वही निवारण भी वही। उन्हीं से उद्भव, उन्हीं से विकास और उन्हीं से होता है संहार संसार का, शिव भी वहीं और शक्ति भी वहीं है। इसीलिए भगवान शिव ही देवों के देव महादेव है।

‘जो है ही नहीं’ वही शिव है और वह सर्वत्र व्याप्त है ये दोनों ही बातें आपस में विरोधाभाषी है। अर्थात जो है ही नही तो फिर पूजन और भजन किसका और क्यो? यह दोनों ही बातें आश्चर्यजनक अवश्य है, परन्तु पूर्णतया सत्य है। इसको ठीक से समझा जाय क्योंकि जब हम किसी विषय वस्तु को ठीक से समझ लेते है तो उस विषय वस्तु के प्रति हमारा प्रेम एवं श्रद्वा, विश्वास और अधिक दृढ़ हो जाता है।
‘जो नहीं है’ वही शिव ही देवों के देव महादेव है।

यहां पर ‘‘जो नहीं है शब्द’’ का तात्पर्य शून्यता अर्थात अंधकार से है, शून्य ब्रंम्हाण्ड में महत्वपूर्ण भूमिका में है परन्तु उसका अस्तित्व अदृश्य है, अंधकार ही सृष्टि एवं सृष्टि के किसी भी तत्व के उद्भव का मूल अर्थात जन्मदाता है। चूंकि संसार में प्रत्यक्षता को सत्य समझा जाता है और उसको ही महत्वपूर्ण माना जाता है। जैसे संसार में प्रकाश का महत्व अंधकार से अधिक है लेकिन सत्यता है कि अंधकार ही प्रकाश की जननी है तथा अंधकार से ही प्रकाश की पहचान है।

आध्यात्मिक दृष्टिकोण से अंधकार अर्थात शून्य ही ऐसा मातृ तत्व है जो ब्रंम्हाण्ड के सभी स्थानों पर व्याप्त है तथा अधंकार के गर्भग्रह से ही ब्रंम्हाण्ड में प्रकाश, उर्जा, पंचमहाभूत जैसे सृष्टि के तमाम तत्वों एवं गुणों का जन्म होता है। संसार में शून्य अर्थात अंधकार ही कालोपरि अर्थात जन्म और मृत्यु के बंधन से मुक्त है उसको छोड़कर सृष्टि में उपस्थित सभी गुण, तत्व, पदार्थ एवं जीव आदि नश्वर अर्थात नष्ट होते रहते है और यह सभी तत्व और अंश अन्त के पश्चात फिर शून्य में ही समाहित हो जाते है।

इसी लिये अधिकतर शक्तियों की पूजन रात्रिकाल में ही होती है जैसे शिव रात्रि और नवरात्रि आदि।
इसी अजन्में, अविनाशी शिव तत्व की एक से अनेक बनने की इच्छा से ही ब्रंम्हाण्ड की उत्पत्ति हुई, ब्रम्हाण्ड की उत्पत्ति के समय भगवान शिव ने अपने अर्धनारी प्रकृति रूपी अंश को अपने से अलग करके आदिशक्ति स्वरूपा सृष्टि की उत्पत्ति की, सृष्टि सम्पूर्ण ब्रम्हाण्ड में पंचमहाभूतों अर्थात पंच तत्वों एवं तीन गुणों अर्थात सतगुण, रजगुण एवं तमगुण की उर्जा शक्ति के संयुक्त स्वरूप में विद्यमान है, इसके साथ ही भगवान शिव ने अपने पुरूष रूपी चेतन तत्व को एक से अनेक अर्थात करोड़ो अरबों-खरबों की संख्या में प्रकट किया।

इसके पश्चात उन्होनें अपने योगिक ज्ञान की उत्पत्ति करके कर्म और प्रारब्ध के चक्र रूपी स्वचालित साफ्टवेयर बनाया। जब चेतन रूपी सूक्ष्य तत्व का मिलन सृष्टि अर्थात प्रकृति रूपी जड़ तत्व से होता है तो प्रकृति द्वारा चेतन तत्व के लिए स्वरूप का निर्माण किया जाता है और फिर चेतन (शिव तत्व) और प्रकृति (आदिशक्ति तत्व) मिलकर संसारिक खेल अर्थात कर्म और प्रारब्ध का चक्र प्रारम्भ करते है, इन दोनों शक्तियों की इस क्रीड़ा से कर्म की उत्पत्ति होती है जो चेतन तत्व का प्रारब्ध बनाती है, इसी प्रारब्ध कर्म का भोग करने के लिए होता है पुर्नजन्म। किसी भी जीव, पेड-पौधे, पशु-पक्षी, पर्वत अथवा संसार में उदित हुई किसी भी वस्तु के जन्म और मृत्यु का चक्र इसी व्यवस्था से अनवरत चलता रहता है।

विज्ञान के दृष्टिकोण से चेतन (चेतना) का अर्थ है ज्ञान तथा प्रकृति तत्व का अर्थ है उर्जाशक्ति। बिना ज्ञान के उर्जा निष्क्रिय स्वरूप में रहती है तथा बिना उर्जा के ज्ञान की कोई सार्थकता नही अर्थात एक दूसरे तत्व के बिना दोनो निष्क्रिय और सुषुप्त रहते है। भगवान शिव का पुरूषरूपी चेतन तत्व जो 84 लाख योनियों में अरबों-खरबों की संख्या में प्रत्यक्ष है, परन्तु वहीं प्रकृति तत्व की संख्या एक ही है परन्तु वह अपनी उर्जाशक्ति से उन सभी अरबों-खरबों चेतन तत्वों को अपनी ओर आकर्षित कर हर एक चेतन तत्व के लिए उसका भौतिक स्वरूप तथा उसको कर्म करने के लिए इन्द्रियों की व्यवस्था प्रदत्त करती है।

मनुष्य जीवन को उदाहरण के रूप में समझा जा सकता है : जब चेतन तत्व प्रथम बार प्रकृति के पंचतत्वों एवं तीन गुणों के संसर्ग में आते है, तो प्रकृति उस पुरूष रूपी चेतन तत्व को आकर्षित कर उसके लिए मनुष्य रूपी शरीर का निर्माण कर उसके मस्तिष्क में चेतन रूपी सूक्ष्यं तत्व को स्थिर करती है और प्रकृति उस सूक्ष्य तत्व को भौतिकता में खुद कोई कार्य नहीं करने देती अपितु अपने पंच तत्वों रूपी इन्द्रियों को उस चेतन तत्व का दृश्या एवं उसके कर्म का माध्यम बनाती है। चेतन तत्व अज्ञानता में शरीर की इन्द्रियों अर्थात अग्नि का प्रतिनिधित्व करने वाली इन्द्री आंख से देखकर, वायु का प्रतिनिधित्व करने वाली इन्द्री त्वचा से स्पर्श महसूस कर, आकाश का प्रतिनिधित्व करने वाले इन्द्री कान से सुनकर, जल का प्रतिनिधित्व करने वाली इन्द्री जीभ से रस-स्वाद ग्रहण कर तथा पृथ्वी का प्रतिनिधित्व करने वाली इन्द्री नाक से गंध-सुगंध का अनुभव करके भौतिकता की चकाचौध में आकर अपने कर्मो को अंजाम देने लगता है और मूल आत्मा तत्व स्वच्छ एवं पवित्र होते हुए भी अपने भटकने के मूल स्वभाव के कारण वह मायारूपी भौतिकता के दलदल में फंस जाता है और कर्म-प्रारब्ध के चक्र में आकर पुर्नजन्म की प्रक्रिया में आ जाता है परन्तु यदि चेतन तत्व इन बाहरी इन्द्रियों के स्थान पर अपने कर्मो में अर्न्तइन्द्रियों का उपयोग करता है तो उसको कर्म-प्रारब्ध से मुक्ति अर्थात मोक्ष की प्राप्त होती है।

यही शिव रूपी ज्ञान उर्जा अपने ज्ञान का उपयोग प्रकृति की उर्जा के रूपान्तरण एवं स्थानान्तरण में करता है तभी संसार में किसी विषय, वस्तु अथवा जीव में सृजन, संचालन तथा विनाशक क्रियायें होती है। इन्ही ज्ञान रूपी शिव और शक्ति रूपी प्रकृति आपस में मिलकर कर्म प्रारब्ध के साफ्टवेयर के माध्यम से ब्रंम्हाण्ड के छोटे से छोटे कण तथा बडी से बड़ी वस्तु का निर्माण उसमें जीवन का संचार और फिर उसके संहार का कारक बनते है।

मनुष्य शरीर की बात करें तो जिस दिन प्रकृति तत्वों से निर्मित शरीर में शक्ति स्वरूपा प्रकृति अपनी उर्जा का प्रवाह बंद कर देती है उसी समय ज्ञान रूपी चेतन तत्व शरीर से बाहर निकल जाता है, इसी प्रकार यदि चेतन उर्जा रूपी शरीर का त्याग करता है तो शरीर स्वतः निष्क्रिय हो जाता है, यदि चेतन रहित उर्जा निर्मित शरीर में उर्जा सक्रिय भी है तो शरीर कुछ दिन कोमा की स्थिति में अवश्य रह सकता है परन्तु इन स्थितियों में कोई विकास कार्य नहीं हो सकता और अन्ततः उर्जा रूपी शरीर को भी अपना अस्तित्व समाप्त करना ही पड़ता है।

हमारे शरीर के मस्तिष्क में भगवान शिव का पुरूष तत्व ‘चेतना’ का निवास होता है तथा पंचमहाभूतों से सृजित एवं संचालित शरीर भगवान शिव का ही नारी तत्व अर्थात ‘प्रकृति तत्व’ है, यह दोनों ही तत्व एक दूसरे के पूरक है और अपने स्वार्थ से ऊपर उठकर संसार के कल्याण हेतु अपने ही चेतन और प्रकृति अंश के रूप में बार-बार मिलन एवं वियोग की प्रक्रिया को सहन करते रहते है।

महादेव कहें या शिव कहे या भोलेनाथ कहें। कोई जीव हो या ब्रंम्हाण्ड का छोटा तिनका हो इन सभी में भगवान शिव के ही अंश विद्यमान है जब कोई जीव अथवा पदार्थ का जन्म होता है तो वह जन्म उसका नहीं अपितु महादेव का जन्म होता है जब उसको कोई कष्ट होता है तो वह कष्ट भी महादेव के अंश को ही होता है और उस अंश का संहार भी वही महादेव ही करते है और जो जीव अथवा वस्तु संहारित होती है उसमें उन्हीं महादेव के अंश का ही संहार होता है वही त्रिदेव है और 33 कोटि देवी-देवता भी महादेव के अंश है इसीलिए तो वह देवों के देव महादेव है और वह सर्वत्र विद्यमान है।

इसलिए हम सभी को मानसिक तौर पर उनका हर क्षण स्मरण रखते हुए हर मानव एवं प्रकृति रूपी तत्व में उनके स्वरूप को देखकर कल्याण रूपी कार्य में लगे रहना चाहिए। चूंकि श्रावण माह में भगवान शिव का स्मरण, पूजा तथा अभिषेक करने से भगवान शिव अत्यंत शीघ्र प्रसन्न होते है साथ ही श्रावण मास में वर्षा होने से प्रकृति मे तमाम विषाणुओं का जन्म होता है और शिव विषहर्ता है इसलिए जो उनकी पूजा श्रावण मास मे करता है वह इन विषाणुओं से भी मुक्त रहता है।

एस.वी.सिंह प्रहरी