गुरू होता है जीवन का प्रकाश पुंज

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गुरू जिन अक्षरों से मिलकर बना है उसमें ‘गु’ का तात्पर्य ‘अधंकार’ से तथा ‘रू’ का तात्पर्य ‘प्रकाश’ से होता है, अर्थात् गुरू वह होता है जो आपके अन्दर व्याप्त अज्ञान रूपी अधंकार में उजाला भर दे। संसार में प्रथम आदि गुरू भगवान शिव को माना जाता है। जिन्होनें संसार में ज्ञान का प्रचार-प्रसार करने हेतु सर्वप्रथम सप्तऋषियों को शिष्य बनाकर उन्हें गृहस्थ आश्रम तथा सांसारिक जीवन चक्र से सम्बन्धित शिक्षा प्रदान की।

जिसके पश्चात इन सप्तऋषियों द्वारा वेद-पुराणों एवं अन्य उचित माध्यम से समाज में ज्ञान का प्रचार प्रसार किया गया। गुरू की महत्ता के सम्बंध में संत शिरोमणि श्री तुलसीदास जी महाराज ने लिखा है कि..
गुरू बिनु भवनिधि तरइ न कोई, जो विरंचि संकर सम होई।
अर्थात् संसार में भले ही कोई प्राणी ब्रह्मा अथवा शंकर के समान क्यों न हो परन्तु वह गुरू के बिना भवसागर पार नहीं कर सकता। संसार में व्यावहारिक रूप से माता-पिता, शिक्षक एवं किसी कार्य विशेष पर पथ प्रदर्शक की भूमिका निभाने वाले कुछ वरिष्ठ, मित्र अथवा सहयोगी को गुरू की संज्ञा दी जाती है। परन्तु वास्तविकता यह है कि शिक्षक, वरिष्ठ, मित्र अथवा सहयोगी जो कि स्वयं अपनी जीविका संचालन के दायित्वों के तहत किसी दूसरे को मूलतः रोटी, कपड़ा, मकान और सुरक्षा की विषयवस्तु पर अध्यापन अथवा उद्देश्य प्राप्ति हेतु शिक्षा दीक्षा देने का कार्य करते है उन्हें उसी विषय वस्तु के परिपेक्ष्य में गुरू का सम्मान देना तो सर्वथा उचित है परन्तु उनको सम्पूर्ण गुरू नहीं कहा जा सकता।

यदि बात माता पिता की जाय तो संसार में कुछ अपवाद स्वरूप ही ऐसे माता पिता होगें। जिन्होनें अपनी संतानों को जीवन के वास्तविक ज्ञान से अभिसिंचित कराया हो, अधिकांश माता-पिता अपनी संतानों से अपने मोहवश भावनात्मक संतुष्टि एवं स्वार्थ पूर्ति के भाव में केवल गृहस्थ जीवन के कर्तव्यबोध की शिक्षा देने तक सीमित रहते है क्योंकि उनको सदैव यह भय रहता है कि जीवन उद्देश्यों का वास्तविक ज्ञान प्राप्त कर उनकी संतान अपना गृहस्थ जीवन छोड़कर कहीं साधू-सन्यासी बनकर उनसे दूर न चला जाय। जबकि माता-पिता को निःस्वार्थ भाव में अपनी संतानों को उनके गृहस्थ सांसारिक कर्म-कर्तव्यों के साथ मोक्ष पाने हेतु समुचित ज्ञानवर्धन कराना चाहिए।

वास्तव में माता-पिता, शिक्षक एवं कर्तव्यपथ के तमाम वरिष्ठ एवं सहयोगीगण मंे से सम्पूर्ण गुरू कहलाने का समुचित पात्र वही होता है जो निःशुल्क एवं निःस्वार्थ भाव से गृहस्थ जीवन के कर्तव्यों-दायित्वों का निर्वहन के साथ जीवन के मूल उद्देश्यों से परिचय कराकर जीवन चक्र से मुक्ति का उपाय बताता है। गुरू केवल मनुष्य का ज्ञानार्जन कराने एवं उपाय बताने तक ही सीमित नहीं होता है अपितु उसे रास्ते पर चलने हेतु सज्ज कराकर उस रास्ते पर चलने का अभ्यास कराकर अन्ततः जीवन चक्र से मुक्ति प्राप्त कर आत्मा अंश को ईश्वर में विलीन कराने का सफल एवं समुचित प्रयास करता है। इसीलिए हमारे समाज में गुरू को ईश्वर से भी ऊपर का स्थान प्रदान किया गया है।

मनुष्य की अज्ञानता यही है कि जब वह अंधकार में होता है तो सूरज की रोशनी मिलने तक व्याकुल रहता है। परन्तु जब ज्ञान रूपी सूरज की रोशनी को प्राप्त कर लेता है तो रोशनी देने वाले परम् सत्य तत्व सूरज को भूल ही नहीं जाता। वह मायारूपी भौतिक जगत को ही परम सत्य मानता है और इस भौतिक जगत अथवा भौतिक शरीर के संचालक तत्व अर्थात् चेतन तत्व को सदैव भूला रहता है, जबकि सृष्टि की संरचना एवं उसकी समस्त क्रियाओ का मूल तत्व चेतन ही है। चेतन रूपी मूल तत्व के प्रति सवेंदनहीन रहकर जड़ स्वरूप को ही सब कुछ मान लेना अज्ञानता है। इस अज्ञानता का नाश कर परमात्मा का ज्ञान कराने वाले ही वास्तविक गुरू होते है।

गुरू की महिमा समझने के लिए संत कबीर दास जी की सद्गुरू के सन्दर्भ में लिखीं इन दो पंक्तियों को आत्मसात करना चाहिए..
तीरथ गए तो एक फल, संत मिले फल चार।
सदगुरू मिले तो अनंत फल, कहे कबीर विचार।।

ईश्वर के बहुमूल्य आर्शीवाद से हमें मनुष्य योनि के रूप में जीवन जीने का अवसर प्राप्त हुआ है जो हम सभी के लिए परम सौभाग्य की बात है। इसलिए जन्मोपरांत आदर्श जीवन जीने की कला जानने के लिए अपने माता-पिता तथा शिक्षकों से आवश्यक शिक्षा अवश्य ग्रहण करनी चाहिए परन्तु ईश्वरीय सत्ता, ईश्वर द्वारा सृजित सृष्टि तथा सांसारिक जीवन चक्र से मुक्ति के विषयों को ठीक से समझने के लिए हर मुनष्य को एक अच्छे गुरू के शरणागत होना चाहिए ताकि वह मायारूपी संसार में चेतन तत्व एवं प्रकृति अर्थात् जड़ तत्व को ठीक से समझकर अपने गृहस्थ दायित्वों का निर्वहन करते हुए जीवन चक्र से मोक्ष गति को प्राप्त कर सके तथा उसे स्वयं भी गुरू से अर्जित ज्ञान का प्रचार-प्रसार कर पुण्य अर्जित करना चाहिए, यही मनुष्य योनि में जन्म लेने की सार्थकता है।

एस.वी.सिंह प्रहरी