कोरोना : अब तक पूरे विश्व में विषाणु के नौ विकल्प मिले

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विगत एक वर्ष में जिस तरह पूरे विश्व को कोरोना विषाणु ने अपनी चपेट में लिया है। उसमें यह तो स्पष्ट है कि विषाणु के प्रति मानव शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली अपेक्षाकृत कमजोर है और अब तक विषाणु के जितने भी विकल्प (वैरिएंट) पाए गए हैं। उसमें अल्फा विकल्प ने सबसे ज्यादा लोगों को प्रभावित किया है। इस वैरिएंट के द्वारा 1 दिन में 20 से 30 लोग प्रभावित होते हैं जबकि डेल्टा वैरिएंट के माध्यम से 1 दिन में 90 लोग और 15 दिन में लगभग 1350 लोग एक व्यक्ति के द्वारा संक्रमित हो जाते हैं।

अब तक पूरे विश्व में विषाणु के नौ विकल्प ढूंढे जा चुके हैं। जिसमें से सिर्फ डेल्टा के ही तीन वैरीअंट है। इसके अतिरिक्त अल्फा, बीटा, गामा, ईटा, कोपा और लोटा है। इनसे निपटने के लिए सबसे कारगर तरीका पूरे विश्व में जो चल रहा है वह है वैक्सीन। भारत जैसे देश में वैक्सीन के लिए किए जाने वाले प्रयास को भ्रम और अफवाह के द्वारा जिस तरह से प्रभावित किया जा रहा है। उससे इस देश के लोगों की जीवन की प्रत्याशा एक अनिश्चितता की ओर बढ़ रही है। सूचना अधिकार अधिनियम में यह खुलासा किया गया कि जो वैक्सीन बनाई जा रही है। उसमें बछड़े का सीरम मिलाया जा रहा है।

यहां पर यह समझने की और जागरूकता फैलाने की नितांत आवश्यकता है कि यदि रक्त को थोड़ी देर स्थिर अवस्था किसी परखनली में रख दिया जाता है तो एक पीला द्रव परखनली में ऊपर की सतह पर दिखाई देने लगता है। यह द्रव प्लाज्मा कहलाता है और जब इस प्लाज्मा से फाइब्रिनोजेन नाम का प्रोटीन निकाल दिया जाता है तो जो द्रव बचता है। उसे सीरम कहते हैं। जिससे स्पष्ट है कि सीरम को रक्त से निकाला जाता है।

इसके लिए गाय और बछड़े को मारने की आवश्यकता नहीं है। यह आवश्यकता इसलिए पड़ती है क्योंकि वेरो सेल (कोशिका) को विकसित करने के लिए बछड़े का सीरम उपयुक्त माध्यम होता है। वेरो सेल अफ्रीका में पाए जाने वाले ग्रीन बंदर की किडनी में पाया जाने वाला एक ऐसा सेल है, जिसका उपयोग वैक्सीन बनाने के लिए किया जाता है और यह सिर्फ ग्रीन बंदर में ही पाया जाता है।

इसी वेरो सेल में बछड़े का सीरम मिलाया जाता है। जिसमें वेरो सेल और विकसित होती है। फिर विभिन्न रसायनों से विकसित हुए वेरो सेल को धोया जाता है। इस साफ किए गए वीरों सेल पूर्णतया बछड़े के सीरम से मुक्त होता है। फिर इस विकसित सेल में कोरोना वायरस से संक्रमण कराया जाता है।

फिर उसके अंदर जो एंटीबॉडी पैदा होते हैं, उसको निकालने से पहले पूरी तरह से कोरोना वायरस को मारा जाता है। इस प्रक्रिया में जो एंटीबॉडी बनते हैं, उनका उपयोग वैक्सीन बनाने में किया जाता है। ऐसे में बछड़े के सीरम का उपयोग किए जाने को जबरदस्ती भावनाओं से मनोविज्ञान से जोड़ना उचित नहीं है।

बंदर, खरगोश, चूहा, ऊंट, घोड़ा आदि भी बहुत तरह के वैक्सीन बनाने में प्रयोग में लाए जाते हैं और सबसे बड़ी बात यह है कि बचपन से हम सभी लोग यह पढ़ते रहे हैं कि गाय की हड्डी से बटन बनाया जाता है। गाय के चमड़े से तरह-तरह के वस्तुएं बनाई जाती हैं। यही नहीं गाय के द्वारा ट्यूबरकुलोसिस की सबसे अच्छी दवा ट्यूबरकोलाइनम बनाई जाती है।

ऐसी स्थिति में यह कहना कि इसमें गाय के फेफड़े का उपयोग किया गया है। इसलिए हम इसे नहीं खाएंगे यह एक अतार्किक और अवैज्ञानिक बात है। ऐसी बातों को रोका जाना चाहिए यही संविधान के नीति निदेशक तत्व में वैज्ञानिक सोच बढ़ाने वाले कर्तव्य की ओर भी इंगित करता है। ऐसे में वैक्सीन के प्रति इस तरह की भ्रांति का खात्मा करके लोगों को यह समझना चाहिए कि बछड़े के सीरम का उपयोग सिर्फ उसके भ्रूण से लिए गए रक्त का एक विस्तार है। जिसमें अंतिम परिणाम आने तक कहीं भी कोई भी सीरम नहीं रह जाता है। इसका उपयोग सिर्फ वेरो सेल के उपयोग और उसके विकास के लिए किया जाता है और इसी भ्रांति को आज दूर किए जाने की आवश्यकता है।

डॉ आलोक चांटिया (लेखक विगत दो दशकों से मानवाधिकार के विषय पर जागरूकता फैलाने में कार्यरत है)