एक डाकिए की आत्मकथा….

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# शिवचरण चौहान

डाक व्यवस्था की धुरी है डाकिया।
डाकिया यानी पोस्टमैन यानी हरकारा यानी चिठ्ठी रसा।
डाकिया के कारण ही पूरे डाक विभाग को जाना पहचाना जाता है।

लोगों के सुख-दुख, हर्ष उल्लास का संदेश लाने वाले छोटे से डाकिए का दुख बडा है। उसका दुःख सुनने वाला कोई नहीं है। अल्प-सुविधा और ढेरों परेशानियों के बीच, डाकिया काम करता है। लोगों की पाती, मनीआर्डर, चिठ्ठी, पार्सल स्पीड पोस्ट पत्र-पत्रिका है किताबें पहुंचाने वाला डाकिया, आज भी पैदल या साइकिल से डाक बॉटता है, जबकि आस्ट्रेलिया व अमेरिका जैसे देशों में सभी डाकियों को मोटर साइकिल सरकार देती है। दूर-दराज के इलाको के लिए हेलीकाप्टर भी डाक विभाग के पास हैं। आज स्मार्टफोन, आईफोन लैपटॉप कंप्यूटर आ जाने के कारण चिट्ठियों का काम अब कुछ अपनो के बजाए कुछ सेकंड में हो जाता है। लोग फोन करके वीडियो कॉलिंग करके व्हाट्सएप टि्वटर आदि आधुनिक साधनों के चलते कुछ पलों में अपने परिचितों रिश्तेदारों दोस्तों और घरवालों से बात कर लेते हैं। ईमेल भेज देते हैं.. अखबार भेज देते हैं.. किताबें भी व्हाट्सएप पर मेरी जाने लगी हैं।

अमेजॉन, ब्लू डार्ट, फर्स्ट फ्लाइट जैसी अनेक द्रुतगामी कोरियर से वाया जाने के कारण डाक विभाग और डाकिए का महत्व नहीं रह गया है। पहले डाक विभाग तार विभाग और दूरसंचार विभाग मिलाकर एक विभाग था, जो संचार मंत्रालय के अंतर्गत आता था पर अब दूरसंचार विभाग अब भारत संचार निगम बन गया है।

डाक विभाग की हालत खस्ता है। देशभर में डाक विभाग के मुख्य डाकघर से लेकर शाखा डाकघर तक 3 लाख से अधिक डाकघर हैं। जो सभी भयंकर घाटे में चल रहे हैं। करीब 25 हजार करोड़ से अधिक घाटे में सरकार डाक विभाग को बताती है। डाक विभाग को अदानी अंबानी भी निजी क्षेत्र में लेने को तैयार नहीं है। सरकार डाकघर को एक बोझ के तौर पर ढो रही है। निजी क्षेत्र की कोई कंपनी इतने बड़े घाटे में चल रहे हैं विभाग को लेने को तैयार नहीं है। ऐसे में डाकिए की हालत खराब होना स्वाभाविक है। वर्ष 2014 से हजारों लोग डाक विभाग से रिटायर हो गए किंतु भर्तियां नहीं हुईं। कुछ भर्तियां संविदा के तौर पर की गई उनमें भारी भ्रष्टाचार के चलते निरस्त कर दिया गया।

ढकवा के पास जो डाकिए बचे हैं उन पर 10-10 गुना भार लदा है। डाकिए अब गांव गांव जाकर बचत बैंक के लिए लोगों से पैसा जमा कराते हैं। बांटने के लिए चिट्टियां पार्सल रजिस्ट्री पत्रिकाएं और किताबें बहुत कम आती है। देश का डिजिटलीकरण हो जाने के कारण डाकियों के सामने नौकरी बचाने का संकट है।

डाकिया डाक विभाग का एक ऐसा कर्मचारी है, जो जनता से सीधे जुड़ता है। डाकिया, किसी व्यक्ति के लिए केवल डाकिया ही नहीं होता है, बल्कि वह सुख-दुःख का संदेश लाने वाला वह व्यक्ति होता है, जिसका कभी घड़कते दिल और बेसब निगाहों से प्रतीक्षा सभी करते थे। चिट्ठी-पत्री से लेकर हमारी सारी शिकायत उसी से होती हैं। भारत में सार्वजनिक डाक वितरण प्रणाली का जन्म 18वीं शताब्दी में हुआ। मगर यह व्यवस्था बहुत सीमित थी। पूरे देश में डाक व्यवस्था को सुव्यवस्थित ढंग से शुरू करने
का श्रेय अंग्रेजों को है। 1852 में पहला डाक टिकट जारी किया गया। 1854 में एक साथ सात सौ डाकघर खोले गये। 1885 में डाक तार-आधनियम बना। 1970 में बचत बैंक, आवर्ती जमा योजना 1974 में रिकार्डेट डिलीवरी, 1975 में शीघ्र हवाई डाक सेवा, 1986 में स्पीड पोस्ट सेवा शुरू की गयी। बाद में चैनल व सेटेलाइट भी आए, किन्तु डाक विभाग खस्ताहाली में पहुँच गया। सबसे ज्यादा घाटा डाक विभाग को 15 पैसे और कोई 50 पैसे में बिकने वाले पोस्ट कार्ड से लगा।

पैसे के लेन-देन के लिए बैंक खुल गये। इसके बावजूद डाक विभाग लापरवाह होता गया और भारी घाटे में चला गया। डाकिए पर शिकायतें हैं कि वह समय पर चिट्ठी-पत्रिकाएँ नही देता है। पैसा मांगता है। मनी आर्डर व राजेस्टर्ड पत्र गायब कर देता है। पत्र फाड़ देता है आदि आरोप यू ही नहीं लगाये जाते हैं। अनेक डाकिए इन बातों के लिए बदनाम भी हैं। ऐसे डाकियों पर कार्रवाई भी हानी चाहए। हमारे देश में किसान की भाति डाकिया भी मेहनती होता है। तपती धूप, घनघोर बरसात और कड़कड़ाती सर्दी में वह विचलित नहीं होता है। डाकिए का हर किसी से आत्मीय सम्बन्ध होता है, फिर भी डाकिया, डाक विभाग का तृतीय व चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी होता है और विभाग उसे इज्जत, पुरस्कार आदि नहीं देता है।

गांवों की बात छोड़ दें तो शहरों में डाकियों को प्रातदिन अपनी बीट की डाक बॉटनी पड़ती है। लू-लपट, आँधी, पानी से कोई मतलब नहीं। डाक बाँटते-बाँटते थक जाने, बीमार हो जाने, चोट-चपेट लगने या दुर्घटना होने पर भी डाक का निस्तारण करना पड़ता है। डाक, बिना बाँटे लौटाकर डाकघर ले जाना कानूनन जुर्म माना जाता है। 7 साल से नई भर्तियां ना होने के कारण एक एक कर्मचारी पर 10 गुना से अधिक बोझ है।

डाक विभाग ने डाक को दो हिस्सों में बाँट रखा है। पहले साधारण पत्र, लिफाफा, पोस्ट कार्ड, पत्रिकाएं आदि और दूसरे में राजस्टर्ड पत्र, बीमाकृत पत्र, मनी आर्डर, वी0पी0पी0, पार्सल, स्पीड पोस्ट आदि। इन्हें बाँटने के अलग-अलग डाकिए लगाये जाने चाहिए, किन्तु ये काम एक ही डाकिया करता है। अक्सर चिट्ठी देर से पहुँचाने के लिए अथवा गायब हो जाने पर डाकिए को दोष दिया जाता है, किन्तु इसके
लिए मात्र डाकिया नहीं, बल्कि पूरा विभाग जिम्मेदार है। चिट्ठियों के गलत पते पर पहुँचने के लिए डाकेया जिम्मेदार नहीं है, किन्तु चिट्ठियां फाड़ने, जलाने या गायब कर देने में उसकी सीधी जिम्मेदारी बनती है। पत्र फाड़ना या रकम हजम कर जाना कानूनन जुर्म है और इस पर कड़ी सजा का प्रावधान है।

बदलते युग में डाकिए के सामने कई और दिक्कतें आने लगीं हैं। बहुमंजिली इमारत व कुत्तों वाले घरों में डाक बॉटना बहुत कठिन है। जिन घरों में केबिल, टी0 वी0, रात-दिन चलते रहते है, वहां डाकिए की आबाज कौन सुनेगा। बहुमजली इमारतों की सीढ़ियां चढ़ना आसान नहीं है। सीढ़ेियों पर पड़ी चिट्ठी गायब हो जाये, बच्चा फाड़ दे तो भी दोष डाकिए का दिया जाता है। गाँव में डाकिए चार-पाँच गाँव और शहर में तीन-चार हजार मकानों की डाक एक ही डाकिए को बॉटनी पड़ती है। गड़बड़ी होने का एक कारण डाक का आधेक होना तथा कम डाकियों की नियुक्ति नहीं होना भी है।

एक समय था कब कौवा संदेश वाहक था। घर की मुंडेर पर आकर वह अतिथि के आने की सूचना देता था। फिर कबूतर चिट्टियां लाने ले जाने लगे। जब अंग्रेजों का राज सारी दुनिया में था तो उन्होंने हर कारों वाली डाक व्यवस्था शुरू की थी। रेल हवाई जहाज के माध्यम से दांत आने जाने लगी। किंतु आज इंटरनेट युग में गूगल युग में चिट्ठियों का प्रेम पत्रों का कोई मतलब ही नहीं रह गया। 4G और 5G आ जाने से हम एक दूसरे के आमने सामने हजारों किलोमीटर दूर बैठे बात कर सकते हैं संदेश भेज सकते हैं किताबें भेज सकते हैं फिल्में चित्र डॉक्यूमेंट कुछ पलों में एक कंप्यूटर से दूसरे कंप्यूटर तक ट्रांसफर हो जाते हैं। एक फोन से दूसरे फोन पर पहुंचे आते हैं। फिर भी बहुत काम अभी डाकियों के जिममें है। छपी हुई किताब अथवा हाथ से लिखी चिठ्ठी का अपना महत्व है। हाथ से लिखी चिट्ठी में जितना प्रेम होता था, इतना प्रेम मोबाइल युग में कहां है। डाकिए, कार्य के प्रति लापरवाह डाक विभाग को अपनी छावे
सुधारने तथा निजी कोरियर कम्पनी का मुकाबला करने के लिए कुछ नए तरीके खोजने होंगे।

डाक विभाग के अधिकारी घाटे का कारण पन्द्रह पैसे में बिकने वाले पोस्टकार्ड को मानते हैं। यद्यपि अब सरकार ने पन्द्रह पैसे के पोस्टकार्ड का दाम बढ़ाकर पच्चीस पैसे और अब 50 पैसे कर दिया है। पर एक पोस्ट कार्ड की छपाई पर सरकार के सवा ₹2 खर्च होते हैं। अंतर्देशीय पत्र भी घाटे का सौदा है।
प्रतियोगिताओं में एक समय पोस्टकार्ड का अधिक प्रयोग करने से डाक विभाग को दस करोड़ रुपये से आधेक की हानि हुई। अब प्रतियोगिता पोस्ट कार्ड तीन रुपये का कर दिया गया है। अब एक पोस्ट कार्ड की छपाई पर दो रुपये से अधिक की लागत आती है और अर्न्तदशीय की छपाई पर ढाई रुपये। बीमा,
रजिस्ट्रेशन, विदेशी डाक शुल्क, मनी आर्डर शुल्क में काफी बढ़ोत्तरी पिछले बजट में सरकार ने कर दी है, किन्तु डाक सेवाएँ सुधारने के नाम पर और बिगड़ी हैं।

डाककर्मी, डाक व्यवस्था की बदहाली के लिए सरकार व अफसरशाही को दोषी मानते हैं। कर्मचारियों का कहना है कि घाटे का कारण सरकारी नीतियाँ व बढ़ता भ्रष्टाचार दोषी है। वर्ष 1985 से कर्मचारियों की भर्तियां रोकी गई हैं। किन्तु अधिकारियों की संख्या सात गुना बढ़ गयी है। पहले एक समय में एक पोस्ट मास्टर जनरल होता था, अब सात-सात हो गए हैं। उनका स्टाफ सफेद हाथी बना हुआ है। मोटी तनख्वाह पाने वाले अधिकारियों के आने के कारण डाक विभाग घाटे में चला गया।

आज जमाना था, जब डाक-तार और टेलीफोन विभाग एक ही थे, किन्तु 1955 में डाक-तार दूरसंचार को अलग-अलग कर दिया गया। बदहाली का आलम यह है कि अब डाक विभाग के पास चिट्ठियाँ एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजने के लिए पर्याप्त थैले नहीं है। चिट्ठियों के बंडल सुतली से बाँध कर भेजे जाते हैं। पहले चिठ्ठियों की छटाई का काम चलती रेलों में होता था, किन्त अब यह काम बन्द कर दिया गया। रेल डाक सेवा के मुख्यालयों में अब चिट्ठियों की छंटाई की जाती है, जिससे देर होती है। बेचारा डाकिया करे तो क्या। उसका दुख कौन सुने। आम जनता को भी परवाह नहीं है उसका काम तो मोबाइल फोन, कंप्यूटर, लैपटॉप, आईफोन, स्मार्टफोन और निजी कोरियर कंपनियों से चल जाता है।

अब वह दिन दूर नहीं जब हम अपने बच्चों को बताएंगे कि कभी हाथ से लिखी चिट्ठी भी आती थी छपी हुई किताब भी बिकती थी। खतो किताबत हुआ करती थी। पोस्टकार्ड अंतर्देशीय पत्र और लिफाफा हमारी भावनाओं को दूर-दूर तक पहुंचाते थे। किसी समय चिट्ठियों का इंतजार प्रजा से लेकर राजा तक सभी को रहता था।

सादर
एक डाकिया