इंदिरा गांधी के लघु संविधान पर वार-पलटवार

इंदिरा गांधी के लघु संविधान पर वार-पलटवार संघ नेता होसबोले ने कहा, आपातकाल में गलत तरीके से जबरन बदली गयी संविधान की प्रस्तावना कांग्रेस और विपक्षी पार्टियों का फिर वही आरोप, संविधान बदलकर दलितों का हक मारना चाहती है भाजपा उपराष्ट्रपति धनखड़ ने कहा, आपातकाल में संविधान की प्रस्तावना में हुए संशोधन पर चर्चा होना जरूरी बिहार में नवंबर के विधानसभा चुनाव और अन्य राज्यों के चुनावों को लेकर ये विवाद महत्वपूर्ण

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लखनऊ। भारत की दिवंगत प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी का लघु संविधान यानी भारतीय संविधान का 42 वां संशोधन, इस समय चर्चा में है। चर्चा शुरू हुई है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सर कार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले के उस बयान से जिसमें उन्होंने कहा है कि संविधान की प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी शब्द आपातकाल के दौरान जोड़े गए हैं। और ये संविधान निर्माता बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर की मंशा के अनुरूप नहीं है। अब समय आ गया है कि इस पर चर्चा होनी चाहिए। होसबोले के इस बयान को समर्थन दिया है भारत के उपराष्ट्रपति जगदीप धनकड़ ने। उन्होंने कहा कि ये संशोधन आपातकाल के दौरान किए गए थे, इसलिए इन पर चर्चा होनी जरूरी है। हालांकि 18 दिसंबर 1976 को इस संविधान संशोधन के समय ही इंदिरा गांधी ने यह प्रावधान कर दिया गया था कि ये संशोधन न्यायिक समीक्षा से परे रहेंगे। शायद इसीलिए भारत के पूर्व सीजेआई जस्टिस संजीव खन्ना की बेंच ने भी इस बाबत दाखिल जनहित याचिका पर सुनवाई करते समय कहा कि चूंकि अब ये संविधान का हिस्सा है, इसलिए इस पर सुनवाई का कोई मतलब है नहीं है। इस टिप्पणी के साथ उन्होंने याचिका खारिज कर दी। बीते 25 जून को आपातकाल लागू होने के 50 साल पूरे होने पर संघ नेता होसबोले के इस बयान के बाद यह मामला एक बार फिर गर्म हो गया है।

चुनावी मौसम है, इसलिए भी अधिक बयानबाजी हो रही है। इसी नवंबर में बिहार में विधानसभा चुनाव हैं, अगले साल पश्चिम बंगाल विधानसभा के चुनाव हैं। और उसके बाद 2027 में उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव हैं। ऐसे में इस पर चर्चा और आरोप-प्रत्यारोप शुरू हो गए हैं। भाजपा और संघ के नेता जहां इस पर चर्चा कराने पर जोर दे रहे हैं, वहीं विपक्ष के नेता भाजपा और संघ पर आरोप लगा रहे हैं कि वे मनुस्मृति से देश चलाना चाहते हैं, और इनका संविधान में विश्वास नहीं है। उनका आरोप है कि संघ और भाजपा नेता बार-बार संविधान पर चोट करते हैं। संविधान की खिलाफत का ही आरोप लगाकर विपक्ष ने 2024 का लोकसभा चुनाव लड़ा था। उन्होंने आरोप लगाया गया था कि अगर भाजपा को अधिक सीटें मिल गईं तो वे संविधान संशोधन करके ऐसी व्यवस्था कर देंगे कि दलितों , पिछड़ों और वंचितों का अधिकार और आरक्षण छिन जाएगा।

विपक्ष ने तो यह भी आशंका जताई थी कि शायद इसके बाद फिर चुनाव ही न हो। विपक्ष के इस नैरेटिव से भाजपा को नुकसान भी हुआ और 400 सीटों की उम्मीद पालने वाली भाजपा को विपक्ष ने 240 सीटों पर ही रोक दिया था। अब इस समय एक बार फिर यह मामला चर्चा का विषय बना हुआ है। निश्चित रूप से इसका असर आने वाले चुनावों पर पड़ेगा ही। इस विवाद का अंत कहां पर जाकर होगा किंतु संघ नेता दत्तात्रेय होसबोले ने इस चुनावी मौसम में यह बयान देकर माहौल गर्मा दिया है। इस पर चर्चा चाहने लोग सवाल उठा रहे हैं कि जब आपातकाल लगा हुआ था तब ही ये संशोधन क्यों किया गया। उनका तर्क है कि ऐसी स्थिति में तो सिर्फ आपातकालीन व्यवस्थाएं की जाती हैं। उन्हें स्थाई मान लेना संविधान निर्माताओं की मंशा और जनता के साथ धोखा माना जाएगा। इसके अलावा सवाल यह भी उठता है कि उस समय जब लोकसभा ही अस्तित्व में नहीं थी, लगभग पूरा विपक्ष जेल में था तो संविधान संशोधन पास किसने किया। उनका मानना है कि इसलिए इस पर चर्चा होना जरूरी है।

इस मामले में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सर कार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले का कहना है कि संविधान की प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी शब्द बाद में जोड़े गए थे। इन शब्दों को जोड़कर बाबा साहब की सोच और समझ पर भी सवाल उठाए गए हैं। वैसे भी संविधान की प्रस्तावना में इन दोनों शब्दों का कोई मतलब नहीं है। ऐसे में इनके रहने पर नए सिरे से चर्चा होनी चाहिए, क्योंकि यह बाबा साहब द्वारा बनाए गए संविधान की मूल भावना के खिलाफ हैं। संघ नेता ने कहा कि इन्हें इंदिरा गांधी की सरकार ने इमरजेंसी के समय जबरन डाला था। उनका कहना है कि संविधान बनाने की प्रक्रिया के दौरान भी कुछ लोगों ने ये शब्द डालने की कोशिश की थी तो बाबा साहेब ने स्पष्ट रूप से इसके लिए इंकार कर दिया। उन्होंने कहा था कि इसकी जरूरत नहीं है, क्योंकि हमारे संविधान की मूल भावना ही यही है। और इन शब्दों से बेवजह का विवाद बढ़ेगा। बताया जाता है कि संविधान सभा के एक सदस्य के टी शाह ने इस संशोधन का प्रस्ताव दिया था लेकिन बहुमत से केटी शाह का यह प्रस्ताव गिर गया था। उधर अब उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने भी कह दिया है कि इंदिरा गांधी सरकार के कार्यकाल में इमरजेंसी के समय में जोड़े गए इन दोनों शब्दों पर चर्चा होनी ही चाहिए। ये दोनों शब्द बाबा साहेब की मंशा के अनुरूप नहीं हैं। इसके अलावा एक टीवी चैनल के तात्कालिक सर्वे में यह बात सामने आई है कि देश के 75% लोग संविधान से इन दोनों शब्दों को हटाना चाहते हैं। इस सर्वे का सैंपल साइज 20000 का था। बताते हैं कि देश में आपातकाल लागू करने के बाद इंदिरा गांधी की सरकार ने संविधान के 42वें संशोधन के जरिए प्रस्तावना में ये दो शब्द जोड़े थे। आरोप यह भी है कि उस समय विपक्ष के अधिकांश नेता जेल में बंद थे।‌ इसीलिए संशोधन की संवैधानिकता पर सवाल उठाए जा रहे हैं।

वैसे देश में जब जस्टिस संजीव खन्ना सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस थे तब एक जनहित याचिका दाखिल कर संविधान की प्रस्तावना में जोड़े गये इन दो शब्दों पर आपत्ति दर्ज कराते हुए इन्हें हटाने की मांग की गई थी। जस्टिस संजीव खन्ना की पीठ ने तब कहा था कि चूंकि ये शब्द अब संविधान का हिस्सा हैं, इसलिए इस पर चर्चा नहीं की जा सकती। जस्टिस खन्ना की पीठ ने वह याचिका खारिज कर दी थी। इस पर कानून के जानकारों का कहना है कि चूंकि याचिका पर सुनवाई करते समय ये दोनों शब्द संविधान की प्रस्तावना का हिस्सा थे, इसलिए जस्टिस संजीव खन्ना की पीठ कुछ नहीं कर सकती थी।‌ अब दत्तात्रेय होसबोले के बयान के बाद अब एक बड़ी बहस छिड़ गई है। कांग्रेस समेत सभी विपक्षी दल इस विषय पर भाजपा और संघ की भूमिका को लेकर चर्चाएं करने लगे हैं। पूरा विपक्ष भाजपा-संघ को संविधान विरोधी बताकर उनकी मंशा पर सवाल उठाने लगा है। पर, इस मामले में एक सवाल तो उठता है कि बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर का अनुयाई बनने वाली कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी दल क्या बाबा साहब द्वारा बनाए गए संविधान को बदलकर बाबा साहब को गलत साबित करना चाहते हैं। सवाल यह भी उठता है कि क्या भाजपा और संघ इस मामले में बाबा साहेब द्वारा बनाए मूल संविधान को स्थापित करके बाबा साहब के समर्थकों की सहानुभूति जुटाना चाहते हैं।

उधर कांग्रेस पर भी आरोप है कि उसकी सरकार ने देश की चुनी हुई लगभग 75 राज्य सरकारों को संविधान के अनुच्छेद 356 का इस्तेमाल कर बर्खास्त कर दिया था। इसलिए अब कांग्रेस की मंशा पर भी सवाल उठ रहे हैं। भाजपा का आरोप है कि चुनी हुई सरकारों को बर्खास्त करने वाली कांग्रेस भी संविधान की बात करे तो हास्यास्पद लगता है। आरोप है कि संविधान को जेब में रखकर उस पर अमल न करने वाले राहुल गांधी अगर संविधान की रक्षा की बात करें तो भी हास्यास्पद लगता है। आरोप है कि कांग्रेस पार्टी ने संविधान की मूल भावना को खत्म कर बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर द्वारा बनाए गए संविधान को चोट पहुंचाया है। और जब ऐसी पार्टी संविधान की रक्षा की बात करती है तो सवाल उठना लाजिमी है।

इंदिरा गांधी की सरकार ने पास किया लघु संविधान : संविधान के प्रस्तावना में संशोधन और लोकसभा के कार्यकाल का विस्तार का प्रस्ताव एक ही तारीख में 18 दिसंबर 1976 को पारित किया गया। हालांकि लोकसभा का एक्सटेंशन 3 जनवरी 1977 से लागू हुआ जब लोकसभा का कार्यकाल समाप्त हो रहा था। इन पारित संशोधनों को न्यायिक समीक्षा से भी अलग रखा गया था। इंदिरा गांधी सरकार ने भारत के संविधान की प्रस्तावना में 42वें संशोधन अधिनियम, 1976 के तहत भारतीय संविधान की प्रस्तावना में समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और अखंडता जैसे शब्दों को जोड़ा गया। इस संविधान संशोधन को “लघु-संविधान” के रूप में भी जाना जाता है। इसके अलावा 18 दिसंबर, 1976 को ही इसी 42वें संविधान संशोधन के माध्यम से लोकसभा का कार्यकाल एक वर्ष के लिए बढ़ा दिया गया था। और 18 दिसंबर, 1976 को ही तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने इसे मंजूरी भी दे दी थी। इसके द्वारा संसद का बढ़ा कार्यकाल 3 जनवरी, 1977 से लागू हुआ। इस संशोधन के माध्यम से, संसद को संविधान में संशोधन का अधिकार और व्यापक रूप से मिल गया। साथ ही अदालतों को इन संशोधनों की समीक्षा करने से भी रोक दिया गया। तब से इस संशोधन को भारत की राजनीति में एक विवादास्पद घटना के रूप में माना जाता है, क्योंकि इसने आपातकाल के दौरान सरकार की शक्तियों को और मजबूत किया था।

दो बार में दो साल के लिए लगाया गया आपातकाल : दिवंगत प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सरकार की संस्तुति पर भारत के राष्ट्रपति ने राष्ट्रपति शासन लगाया था। और यह 25 जून, 1975 से 21 मार्च, 1977 तक लगा रहा। इसकी कुल 21 महीने की अवधि थी। इंदिरा सरकार ने तब देश में आंतरिक और बाहरी खतरों का हवाला देते हुए आपातकाल की घोषणा की थी। अब देश के राजनीतिक इतिहास को बदल देने वाली इस घटना के 50 साल पूरे हो गए हैं। 50 साल वो समय होता है जब दो पीढ़ियां किसी देश के लोकतंत्र का अनुभव हासिल कर परिपक्व हो चुकीं होती हैं। ऐसे में देश इस तारीख को याद कर इसके सबक को आत्मसात कर रहा है। इंदिरा सरकार ने पांचवीं लोकसभा (1971-1977) का कार्यकाल दो बार एक-एक साल के लिए बढ़ाया था। पांचवीं लोकसभा का गठन 1971 के चुनावों के बाद हुआ था। पहली बार और इसे 1976 में एक साल के लिए बढ़ाया गया था। और फिर दूसरी बार 1977 में भी एक साल के लिए बढ़ाया गया। वैसे दूसरी बार का विस्तार पूरा नहीं चल पाया और लोकसभा को 1977 में ही भंग भी कर दिया गया था। इस प्रकार पांचवीं लोकसभा का कार्यकाल कुल मिलाकर 21 महीने के लिए दो बार में बढ़ाया गया था।

संविधान से खिलवाड़ का आरोप है कांग्रेस पर : देश की सबसे पुरानी और आजादी की लड़ाई से जुड़ी कांग्रेस पार्टी पर आरोप है कि उसने कई मौकों पर संविधान की मूल भावना पर कुठाराघात किया है। बहुचर्चित शाहबानो केस में तब की दिवंगत प्रधानमंत्री राजीव गांधी की सरकार ने संविधान की व्यवस्थाओं के ऊपर शरिया कानून को रखते हुए सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए शाहबानो के गुजारा भत्ता के अधिकार को रद्द कर दिया था। इसके अलावा दिवंगत प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की ही सरकार ने आपातकाल के दौरान संविधान की प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष व समाजवादी शब्द डाला था। इसके अलावा कांग्रेस के समय में ही संविधान में संशोधन कर राष्ट्रपति के अधिकारों को कम किया गया था। उस संशोधन के पूर्व राष्ट्रपति को मंत्रिमंडल की सिफारिशों पर अपने विवेक पर निर्णय लेने का अधिकार था लेकिन एक संविधान संशोधन के जरिए राष्ट्रपति को मंत्रिमंडल की सिफारिशों को मानने के लिए बाध्य कर दिया गया था। भारतीय राजनीति में इसे एक बड़ा बदलाव माना गया। इसके अलावा कांग्रेस पार्टी की सरकार के समय में ही 1991 में प्लेसेज ऑफ वरशिप एक्ट लाकर मंदिरों और मस्जिदों पर यथास्थिति के लिए 15 अगस्त 1947 की सीमा रेखा बना दी थी। फिलहाल यह कानून चर्चा और न्यायिक समीक्षा के दायरे में है। कांग्रेस की सरकार में ही वक्फ कानून में संशोधन करके उसे असीमित अधिकार दे दिए गए थे। इस विषय में कुछ काम दिवंगत प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के समय में और बाकी काम दिवंगत प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के समय में किया गया। वक्फ की इसी मनमानी को रोकने के लिए नरेंद्र मोदी सरकार ने संसद से कानून पास कर बदलाव किया है। ये कानून भी इस समय सुप्रीम कोर्ट में है। इस पर सुनवाई पूरी हो गई है और फैसला सुरक्षित है।

संघ और भाजपा पर भी लगते रहे हैं आरोप : संघ और भाजपा पर भी लगातार आरोप लगते रहे हैं कि उसने संविधान को कभी नहीं माना। यह भी आरोप है कि संघ ने अपने कार्यालय में काफी दिनों तक तिरंगा झंडा नहीं लहराया। यही नहीं 2024 के आम चुनाव में भी पूरे विपक्ष ने भाजपा के खिलाफ यह नैरेटिव गढ़कर चुनाव लड़ा कि भाजपा 400 सीट पा जाएगी तो संविधान बदल देगी। और फिर उसके बाद चुनाव नहीं होंगे तथा दलितों, पिछड़ों और गरीबों के हक मार दिए जाएंगे। विपक्ष का यह नैरेटिव सफल भी हुआ और भाजपा 240 सीटों पर आकर सिमट गई थी। भाजपा की इस हार के लिए कुछ भाजपाइयों के बयान भी महत्वपूर्ण रहे, जिनमें कुछ छुटभैया नेताओं ने कहा था कि भाजपा को सरकार चलाने के लिए तो पर्याप्त सीट मिल ही जाएंगे किंतु कुछ बड़े काम करने हैं इसलिए 400 पार सीटें चाहिए। और भाजपाइयों की इसी बात को विपक्ष ने पकड़ लिया और संविधान हटाने का नैरेटिव गढ़कर भाजपा के खिलाफ मजबूत स्थिति बना ली।

अबतक के संविधान संशोधन : भारतीय संविधान में अब तक 106 संशोधन हुए हैं। 1950 में संविधान लागू होने के बाद से, ये संशोधन भारतीय समाज और शासन में विभिन्न बदलावों और विकास को दर्शाते हैं। संविधान में संशोधन की प्रक्रिया अनुच्छेद 368 में दी गई है। इसके के लिए संसद के दोनों सदनों में विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है।

42वां संशोधन (1976) : इसे लघु संविधान भी कहा जाता है। इसने संविधान संशोधन में कई महत्वपूर्ण परिवर्तन किए गए। इनमें सबसे महत्वपूर्ण था प्रस्तावना में समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और अखंडता जैसे शब्दों को जोड़ना, मौलिक कर्तव्यों को शामिल करना, और केंद्र सरकार की शक्तियों को बढ़ाना शामिल है। इस संशोधन ने 42वें संशोधन के जरिए कुछ विवादास्पद प्रावधानों को पलट दिया गया। इसने बदलाव ने आपातकाल की घोषणा के लिए संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकार से हटा दिया।

106वां संशोधन (2023) : इसे महिला आरक्षण विधेयक के रूप में भी जाना जाता है, जो लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33% सीटें आरक्षित करने का प्रावधान करता है।

सर्वाधिक महत्वपूर्ण है 42वां संविधान संशोधन : संविधान का 42वां संशोधन आधिकारिक तौर पर संविधान अधिनियम, 1976 के रूप में जाना जाता है। यह संशोधन 1976 में आपातकाल के दौरान पारित किया गया था। इसे इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस सरकार द्वारा अधिनियमित किया गया था। यह भारतीय इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण, विवादास्पद संशोधनों में से एक भी माना जाता है। इस संशोधन ने संविधान में कई महत्वपूर्ण बदलाव किए। इसमें प्रस्तावना में संशोधन कर समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और अखंडता शब्द जोड़े गए। इस संशोधन ने संविधान के भाग IV-ए में मौलिक कर्तव्यों को जोड़ा। इसी संशोधन के जरिए सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालयों की न्यायिक समीक्षा की शक्ति को कम करने का प्रयास किया गया। इसी के जरिए संसद और राज्यों की विधानसभाओं के कार्यकाल को 5 से बढ़ाकर 6 वर्ष तक कर दिया गया। इसके जरिए सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के संगठन के साथ उनके क्षेत्राधिकार से संबंधित प्रावधानों में भी संशोधन किया गया।

पक्ष-विपक्ष के क्या हैं विचार : इस बाबत शिवसेना उद्धव ठाकरे गुट के प्रवक्ता संजय राउत ने कहा है कि उस समय की सरकार को ये अधिकार था कि वह संविधान संशोधन करे, और उसने किया। इसमें कुछ भी गलत नहीं है। इमरजेंसी लागू होने भर से सरकार के संवैधानिक अधिकार खत्म नहीं हो जाते हैं। उन्होंने कहा कि कांग्रेस ने उस समय की जरूरत के हिसाब से उक्त संशोधन किए, इसमें कुछ भी ग़लत नहीं है। इस बारे में कांग्रेस सांसद और नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने कहा है बीजेपी और आरएसएस को संविधान नहीं, मनुस्मृति से देश को चलाना है। उनका आरोप है कि बीजेपी की कोशिश है कि वह दलितों, गरीबों को गुलाम बनाकर रखे। कांग्रेस नेता ने कहा कि भाजपा और संघ के लोग नहीं चाहते हैं कि पिछड़े, दलित और गरीबों को उनका हक मिले। इसीलिए वे संविधान संशोधन की कोशिश में लगे हैं। उन्होंने कहा कि पर हम जब तक हैं, तब तक उन्हें ऐसा नहीं करने देंगे। लगभग यही बात कांग्रेस नेता और राज्यसभा सदस्य प्रमोद तिवारी ने भी कही है।

इस बाबत सपा के सुप्रीमो अखिलेश यादव ने भी भाजपा और संघ की मंशा पर सवाल उठाते हुए कहा है कि इनका वश चले तो ये देश के संविधान को ही रद्द कर दें। अखिलेश यादव ने कहा कि जून 1975 में तो घोषित आपातकाल लागू किया गया था लेकिन इस समय तो भाजपा ने देश में अघोषित आपातकाल लागू किया हुआ है। लोगों के साथ जाति और धर्म के नाम पर भेदभाव किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि भाजपा धर्म से धर्म और जाति से जाति को लड़ाकर नकारात्मक राजनीति करती है।

राणा सांगा पर विवादित बयान देकर चर्चा में आए सपा के राज्यसभा सांसद रामजीलाल सुमन ने कहा कि यह कोई यादव वर्सेस ब्राह्मण वाला मामला नहीं है। ये वह लोग हैं जो मनु स्मृति में विश्वास रखते हैं। उन्होंने कहा कि अगर किसी के पास योग्यता है और वह भागवत पढ़ना जानता है तो उसकी जाति कोई हो तो क्या उसे वंचित कर देंगे। यह शुद्ध रूप से गुण-दोष का मामला है, जाति का नहीं। सुमन ने कथावाचकों की ओर से पहचान छुपाने पर कहा कि आपको किसने अधिकार दे दिया उन्हें पीटने का। अगर उन्होंने पहचान छुपा भी ली और कथावाचन कर रहे हैं तो क्या दिक्कत है। क्या गुनाह हो गया, अगर कोई बाल्मीकि है, दलित है।

जबकि बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो सुश्री मायावती ने कहा है कि अगर संविधान से छेड़छाड़ की कोशिश होगी तो हम उसका विरोध करेंगे। दूसरी ओर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का अपने मन की बात कार्यक्रम में इस मुद्दे पर कहना है कि इमरजेंसी के दौरान देश में संविधान की हत्या हुई। इस दौरान लोगों को प्रताड़ित किया गया। उन्होंने पूछा कि कल्पना कीजिए कि वो दौर कैसा रहा होगा। लेकिन आपातकाल में देश की जनता ना झुकी, ना टूटी। विदेश मंत्री एस जयशंकर ने कहा है कि संविधान को जेब में रखकर घूमने वाले लोगों ने इसका सर्वाधिक नुकसान किया है। भारत के संविधान की मूल भावना को नष्ट करने का काम ऐसे ही लोगों ने किया है। केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने कहा कि होसबोले जी ने जो कहा है, वह 200 परसेंट ठीक है। भाजपा प्रवक्ता सुधांशु त्रिवेदी ने भी कहा है कि संविधान का अपमान करने वाले लोग संविधान की बात न करें तो ही बेहतर है। सुधांशु त्रिवेदी ने कहा कि कांग्रेस ने संविधान से बहुत छेड़छाड़ किया है। उन्होंने कहा कि आपातकाल में तो कांग्रेस ने संविधान की बुनियाद ही हिला दी गई। इस बाबत केंद्रीय मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा है कि ये देश कभी भी धर्म निरपेक्ष नहीं हो सकता है। प्रस्तावना में इस शब्द को डालकर बाबा साहेब की सोच पर सवाल उठाया जा रहा है।

इस बाबत सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय का कहना है कि 25 जून 1975 को आपातकाल घोषित किया गया। 15 मार्च 1976 को लोकसभा कार्यकाल खत्म हो गया और 2 नवंबर 1976 को संविधान में सेक्युलर जोड़ दिया। उनका कहना है कि जब लोकसभा का कार्यकाल ही खत्म हो गया तो संविधान संशोधन के लिए वोट किसने दिया। उन्होंने कहा कि यदि आपातकाल गलत है तो 42वां संविधान संशोधन सही कैसे हो गया।

अभयानंद शुक्ल
राजनीतिक विश्लेषक