कांशीराम ने 1982 में The Chamcha Age, An Era Of The Stooge पुस्तक लिखी थी। जिसका हिंदी में अनुवाद चमचा युग हुआ। पुस्तक में कांशीराम ने दलित नेताओं के लिए चमचा शब्द का इस्तेमाल किया था। उन्होंने कहा दलित लीडर केवल अपने निजी फायदे के लिए भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस जैसे दलों के साथ मिलकर राजनीति करते है। दलित नेताओं के चमचागिरी से दुखी एवं नाराज होकर कांशीराम ने दलित चेतना का ऐसा मूवमेंट चलाया, जिसने भारतीय राजनीति की दिशा बदल दी।
दलित चेतना की क्रान्ति ऐसे बढ़ाई कि उत्तर प्रदेश जैसे बड़े सूबे में 2007 में दलित महिला के नेतृत्व में पूर्ण बहुमत की सरकार बनी। कांशीराम के सोच, संघर्ष, त्याग का विश्लेषण करें तो हम यह कह सकते हैं कि डॉक्टर भीम राव अम्बेडकर ने दलितों को संवैधानिक अधिकार दिलाने में योगदान दिया तो कांशीराम दलित चेतना के सबसे बड़े संवाहक़ बने।
अम्बेडकर और कांशीराम की तुलना करें तो कांशीराम का त्याग, संघर्ष, सादगी और दलितों के प्रति कमिटमेंट आंबेडकर से ज्यादा है। कांशीराम ने अपने संघर्ष में सियासत के उन तमाम हथकंडों को अपनाया जो दलित चेतना के लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण और जरुरी था।
उन्होंने भारतीय वर्ण व्यवस्था में बहुजनों के एकीकरण तथा उत्थान के लिए 1971 में दलित शोषित संघर्ष समिति और 1978 में बामसेफ जैसे सामजिक संगठन जो दलित चेतना के लिए एक माध्यम बनकर आगे आया। कांशीराम मानते थे कि जब तक दलितों की सत्ता में भागीदारी नहीं होगी उन्हें उनका अधिकार नहीं मिल पायेगा। इसी सोच के तहत 1984 में बहुजन समाज पार्टी की स्थापना की और देश भर के तमाम राज्यों में चुनाव लड़ते लड़ते राजनीतिक अस्थिरता के दौड़ में 2 जून 1995 में मायावती की नेतृत्व में भाजपा समर्थन से सरकार बनायी।
यह माना जाता है कि अगर केवल पैसे का लोभ छोड़कर मायावती, कांशीराम के दलित चेतना की क्रांति को संघर्ष के साथ ईमानदारी से आगे बढ़ाती रहती तो शायद आने वाले समय में देश की सबसे बड़ी लोकप्रिय नेता और परिस्थितियां एवं राजनीतिक समीकरण साथ देते थे तो शायद देश की सबसे शीर्षस्थ कुर्सी पर भी आसीन हो सकती थी।
कांशीराम की यही सोच थी कि धार्मिक ध्रुवीकरण के खिलाफ मुलायम सिंह के मिलकर दलित पिछड़े का गठजोड़ किया, जिसका परिणाम धार्मिक ध्रुवीकरण पर जातीय ध्रुवीकरण भारी रहा। 1993 में सपा बसपा गठजोड़ से धार्मिक ध्रुवीकरण को मात देकर मुलायम सिंह के नेतृत्व में सरकार बनी और चंद महीनों के अंतराल में ही गठबंधन टूटा और कांशीराम ने बड़ी सूझ बुझ के साथ अवसर को देखकर मायावती के नेतृत्व में सरकार बनवा दी।
यही कांशीराम की भूल कही जा सकती है कि उन्होंने जिस दलित चेतना के लिए सत्ता का ख्याब देखा था वह मायावती के नेतृत्व में बहुत कमजोर हो गया है और 1982 में लिखी पुस्तक The Chamcha Age An Era Of The Stooge आज पूरी तरह से चरितार्थ हो रही है। कांशीराम के 1982 में दलित नेताओं के चाल चरित्र और सत्ता के गठजोड़ के लिए की जा रही सियासत को देखकर दलित नेताओं को चमचा कहा था। उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि यह शब्द 2007 में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने वाली बसपा नेता मायावती पर अक्षरश: सही उतरेगा।
मायावती के सियासत को देखे तो एक चमचे युग जैसा ही लग रहा है क्योकि मायावती ने कांशीराम के उन शब्दों को पूरी तरह से चरितार्थ कर दिया है जिसमे कांशीराम ने कहा है कि दलित चमचे लीडर अपने फायदे के लिए भाजपा कांग्रेस से मिलकर राजनीति करते है। मायावती ने 1996 में कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ा और सत्ता पाने के लिए 1995, 1997, 2003 में भाजपा तथा 2019 में सपा से भी समझौता किया।
यह सभी समझौते मायावती ने निजी लाभ और सत्ता के लिए किया। इसमें किसी भी प्रकार की दलित चेतना या दलित क्रांति अथवा कांशीराम के मिशन को आगे बढ़ाने के लिए किसी प्रकार का गठजोड़ नहीं रहा। चमचा की सियासत ने ही मायावती जैसे नेता जिन्होंने 2007 में उत्तर प्रदेश जैसे बड़े सूबे में पूर्ण बहुमत की सरकार बनायी आज उत्तर प्रदेश में जाति आधारित दल अपना दल से भी विधायकों की संख्या में छोटी पार्टी बन गयी है।
इतिहास के पन्नों को देखे और वर्तमान राजनीतिक हालात की समीक्षा करे तो हम यह कह सकते है कि कमजोर और गलत सोच तथा सत्ता और पैसे की लालसा रखने वाले उत्तराधिकारी चयन सल्तनत और विचारधारा दोनों को कमजोर करता है और ज्यादा दिनों तक विचारधारा व मिशन नहीं चल पाता। मायावती के बारे में एक परसेप्शन बन गया है कि वह दलितो को वोट बैंक मानकर सत्ता और सौदे की सियासत करती हैं।
कांशीराम मिशन के साथ जितने बड़े नेता जिन्होंने दलित चेतना क्रांति में बहुत महत्वपूर्ण योगदान दिया था आज वह सभी मुख्यधारा से कांशीराम द्वारा स्थापित बसपा पार्टी से बाहर है। मायावती 2 जून 1995 को मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के साथ ही कांशीराम के उत्तराधिकारी के रूप में सियासत में स्थापित हो गयी थी। मायावती के वर्तमान राजनीतिक सियासत को देखकर हम चमचा युग की नेता कह सकते है लेकिन ऐसा नहीं है कि मायावती एक बहुत मजबूत कठोर निर्णय लेने वाली बहादुर महिला है।
यह माना जाता है कि अगर केवल पैसे का लोभ छोड़कर मायावती, कांशीराम के दलित चेतना की क्रांति को संघर्ष के साथ ईमानदारी से आगे बढ़ाती रहती तो शायद आने वाले समय में देश की सबसे बड़ी लोकप्रिय नेता और परिस्थितियां एवं राजनीतिक समीकरण साथ देते थे तो शायद देश की सबसे शीर्षस्थ कुर्सी पर भी आसीन हो सकती थी।
लेकिन कहते है कि सबको सब कुछ नहीं मिलता और बिना मेहनत के अप्रत्याशित सफलता उत्तराधिकारी की कुर्सी बहुत दिनों तक टिकाऊ नहीं रह सकती जैसा कि मायावती के साथ हो रहा है। आज दलित चेतना को जागृत करने वाले कांशीराम जैसा कोई भी नेता देश में नही है। यह जरूर है कि कांशीराम की दलित चेतना ने देश में हज़ारों दलित नेता पैदा कर दिए है लेकिन वह सभी सत्ता की सियासत कर रहे हैं।
राजेन्द्र द्विवेदी, वरिष्ठ पत्रकार