रानी लक्ष्मीबाई, महिला और आधुनिकता

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आधुनिकता के दौर में हर व्यक्ति तक पहुंच बनाने के लिए और एक पहचान स्थापित करने के लिए विज्ञापन एक ऐसा माध्यम है। जिससे कोई भी उत्पाद को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाया जा सकता है। इसी विज्ञापन का सबसे अच्छा माध्यम है कि जब व्यक्ति किसी विज्ञापन में कोई चित्र लगाकर उसके नीचे कोई वाक्य लिखता है तो चित्र लगे होने के कारण ज्यादातर स्थितियों में लोग उस विज्ञापन को पढ़ लेते हैं।

यही कारण है कि विज्ञापनों में चित्र की भरमार होती है। आज आधुनिकता के युग में सोशल मीडिया का उपयोग लोगों द्वारा उस विज्ञापन की तरह ज्यादा किया जा रहा है, जिसमें महान व्यक्तियों की फोटो लगाकर व्यक्ति अपने को स्थापित करने में लगा हुआ है क्योंकि जिन महान व्यक्तियों का चित्र लगाकर विज्ञापन के माध्यम से श्रद्धांजलि और नमन करके कर रहा है। उनके किसी भी गुणों को वह स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं दिखाई देता है।

यही कारण है कि 18 जून को रानी लक्ष्मीबाई की पुण्यतिथि के दिन सिर्फ एक फोटो लगा एक ऐसी महिला को श्रद्धांजलि अर्पित करने का प्रयास किया जा रहा है। जिसके जीवन से कुछ भी ग्रहण करने का प्रयास आधुनिकता की दौड़ में हो ही नहीं रहा है, जो ब्राह्मण कुल में पैदा होने के बाद 13 वर्ष की उम्र में गंगाधर राव की पत्नी बनती है। झांसी की रानी बनती है। एक बच्चे की मां बनती है और 4 माह बाद ही उसका बच्चा मर जाता है। फिर एक बच्चा गोद लिया जाता है। जिसका नाम दामोदर राव रखा जाता है।

यहां यह समझने की आवश्यकता है कि कभी भी गोद लिए पुत्र के प्रति रानी लक्ष्मीबाई ने ऐसा कोई भाव प्रस्तुत नहीं किया। जिससे लगता वह उसकी सौतेली मां है बल्कि उसके अधिकारों की रक्षा के लिए डलहौजी की हड़प नीति के खिलाफ लड़ी। मुकाबला किया और उस दत्तक पुत्र को अपनी पीठ में बांधकर युद्ध लड़ते हुए अपनी अंतिम सांस तक लड़ी।

इसीलिए पुण्यतिथि पर इस बात को अंगीकार करने की आवश्यकता है कि वर्तमान समाज में बच्चे को इस आधार पर विभाजित करने के बजाय कि वह गोद लिया हुआ है, दत्तक है या खुद का है रानी लक्ष्मीबाई की तरह ही अपने बच्चे के लिए सच्चे मन से लड़ना चाहिए।

पति की मृत्यु के बाद उन्होंने कभी यह प्रयास नहीं किया कि दूसरा विवाह कर ले ! ना ही उन्होंने कोई यह प्रयास किया कि वह निः संतान क्यों रह जाएं बल्कि अपने पति गंगाधर राव की बीमारी से मृत्यु के बाद उन्होंने झांसी की विरासत को अपनी विरासत समझ कर स्वीकार किया और 29 वर्ष की आयु में दुनिया को अलविदा भी कह दिया लेकिन आज भी जब भारतीय इतिहास लिखा जाता है तो भारत के स्वतंत्रता के बिगुल की आवाज में पहला नाम रानी लक्ष्मीबाई का उभरता है।

आज यहां समझने की आवश्यकता है कि जब महिला समाज, देश को अनुशासन सिखाने का प्रयास करती है तो वह एक वास्तविक स्वतंत्रता का स्वर होता है। छबीली, मनु और शादी के उपरांत रानी लक्ष्मी बाई के नाम से स्थापित होने पर भी गंगाधर राव ने बचपन से घुड़सवारी और तलवार चलाने वाली रानी लक्ष्मीबाई को सिर्फ दीवारों तक कैद नहीं किया और उसी का परिणाम था कि रानी लक्ष्मीबाई ने अपने घोड़े और तलवार की मदद से ओरछा, ग्वालियर, अंग्रेज सभी की सेनाओं को खूब छकाया।

आज इस बात को पुण्य तिथि पर समझने की आवश्यकता है कि वर्तमान समय में महिला के साथ जिस तरह से उत्पीड़न हो रहा है, घरेलू हिंसा हो रही है और ज्यादातर परिवारों में महिला को दोयम दर्जे का ज्यादा देखा जा रहा है कि उसे कुछ आता जाता नहीं है। उसकी पढ़ाई का कोई उपयोग नहीं है। उस समय में रानी लक्ष्मीबाई की तरह ही किसी भी महिला के द्वारा ग्रहण की गई कोई भी योग्यता को ही निखारने का प्रयास करना चाहिए ना कि पुरुषवादी समाज में उस महिला के अंदर वह गुण निखारने का प्रयास करना चाहिए जो वह उसमें है ही नहीं।

प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता सईद जाफरी के डायरी में अपनी पत्नी मैहरूनिमा के साथ के वर्णन से भी स्पष्ट है कि सदैव सईद जाफरी अपने अंग्रेजीयत वाले व्यवहार को अपनी पत्नी में देखना चाहते थे जबकि पत्नी सिर्फ घर का काम और खाना-पीना बनाना जानती थी और वह वैसे ही रहना चाहती थी। उसका यह स्वरूप देखकर ही सईद जाफरी ने उससे तलाक ले लिया था। तब उसके दो बच्चे भी थे लेकिन बाद में एक अमेरिकी नागरिक से शादी करके मैहरूनिमा एक सफलतम सेफ के रूप में स्थापित हुई।

बाद में सईद जाफरी ने बहुत प्रयास किया कि वह अपनी पत्नी से मिल सके लेकिन उसने उनसे मिलने से इंकार कर दिया था। यहां पर भी रानी लक्ष्मीबाई की पुण्यतिथि पर इस तथ्य को उकेरने का तात्पर्य ही यही है कि यदि मेहरुनिमा और रानी लक्ष्मीबाई की वास्तविक गुणों को ही समाज में निखारने का प्रयास किया जाए तो समाज को सर्वोच्च स्थिति तक ले जाने में महिला किसी से पीछे नहीं है लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है।

हम रानी लक्ष्मीबाई के एक छोटी सी उम्र के त्याग को समझने के बजाय सिर्फ पुण्यतिथि की चित्र लगाकर अपने को प्रदर्शित करने में ज्यादा लगे हैं। यही कारण है कि एक वीर पत्नी, मर्यादित और अनुशासित मां तथा अपने गुणों के अनुरूप राष्ट्र को दिशा देने वाली महिला के रूप में आज भी कोई व्यक्ति रानी लक्ष्मीबाई को अपने जीवन में आने वाली महिला के साथ जोड़ कर नहीं देख पा रहा है।

यदि इस तरह का प्रयास किया जाने का कोई भी कार्य किया जाए तो हर घर में गंगाधर राव का नाम रानी लक्ष्मीबाई के कारण अमर हो सकता है। पर इसके लिए सिर्फ इतिहास तक किसी को समेट देने के बजाय उसकी वर्तमान में प्रासंगिकता को समझते हुए यदि देश के किसी भी महान व्यक्ति के प्रति जयंती, पुण्यतिथि को मनाने का प्रयास किया जाए तो भारत में एक उच्च स्थिति की निरंतरता दिखाई पड़ सकती है लेकिन इसके लिए पहले आवश्यकता है कि हम आधुनिकता के साथ-साथ महिला के अंदर के गुणों को रानी लक्ष्मीबाई के गुणों की तरह ही और मेहरून नीमा के निखरने का मौका दें।

यही सबसे बड़ी पुण्यतिथि का सबब होगा और यही निचोड़ सांख्य दर्शन में भी कि प्रकृति और पुरुष से ही इस धरा पर सब कुछ है यानि प्रकृति के अनुरूप ही पुरुष एक सम्पूर्णता की तरफ और ही सांख्य दर्शन में महिला है।

डॉ आलोक चांटिया

(लेखक, अखिल भारतीय अधिकार संगठन और मानवाधिकार के लिए दो दशक से कार्य कर रहे हैं)