भारत में 1.75 लाख करोड़ की माइक्रोचिप्स की खपत, फैक्ट्री एक भी नहीं

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भारत में 1.75 लाख करोड़ की माइक्रोचिप्स की खपत, फैक्ट्री एक भी नहीं… ज़रा सोचिए- अपने देश में माइक्रोचिप्स का उत्पादन करने वाली एक भी फैक्ट्री स्थापित नहीं की जा सकी। हम आंतरिक मांग को पूरा करने के खातिर सौ फीसद आयात के मोहताज के आदी हो चुके हैं।

बीते छः सालों में इनके आयात पर 7.48 लाख करोड़ रु की बेशकीमती विदेशी मुद्रा खर्च करने के बाद भी निकट भविष्य में उत्पादन परियोजना लगने की संभावना नहीं है। इसकी लगातार बढ़ रही खपत के हिसाब से वर्ष 2021 को मिला कर अगले पांच सालों में वार्षिक मांग 2.96-3 लाख करोड़ रु के आसपास पहुंचने का अनुमान लगाया गया है।

जाहिर है यह जरूरत आयात से ही पूरी करने के अलावा दूसरा कोई भी विकल्प नहीं है। पांच सालों में माइक्रोचिप्स के आयात पर 11-12 लाख करोड़ रुपए की विदेशी मुद्रा हाथ से निकल जाना निश्चित मानिए। माइक्रोचिप्स की वैश्विक किल्लत अलग खड़ी हो गई। देश विदेश के उद्योगों को इस समस्या का समाधान फिलहाल नहीं मिल पा रहा है।

दूरगामी नियोजन का ही नतीजा है कि अढ़ाई करोड़ से भी कम आबादी का ताइवान माइक्रोचिप्स का वर्ल्ड लीडर है। माइक्रोचिप्स उत्पादन-निर्यात से लेकर टेक्नाॅलॉजी और क्वालिटी तक में अमेरिकी कंपनी इंटेल को पछाड़ने का अजूबा कर दिखाने वाली कंपनी किसी और मुल्क की नहीं नन्हें ताइवान की ही है।

माइक्रोचिप्स डाक टिकट से बहुत छोटा और मानव बाल से भी हजार गुना तक सूक्ष्म-पतला एक ऐसा प्राॅडक्ट है, जिसके बिना वर्तमान जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती है। मोबाइल फोन, लैपटॉप, एटीएम, माइक्रो वेव ओवेन, सोलर पैनल, स्मार्ट फोन, मेडिकल इलेक्ट्राॅनिक साज-सामान, ऊर्जा, इलेक्ट्रॉनिक खिलौने, नाभिकीय ऊर्जा, आटोमोबाइल उद्योग, प्रतिरक्षा उपकरणों, राॅकेट, मिसाइलों, एयरक्राफ्ट, एसी, वाशिंग मशीनों, फोटो काॅपी मशीनों, वेबकैम, रोबॅट, दूर संचार, डिजिटल कैमरों से लेकर अंतरिक्ष, इंजिनियरिंग और दवा उद्योग, रेलवे सिगनलिंग सहित जीवन‌ की हर वस्तु कहीं न कहीं इस नैनो चिप पर आश्रित हो गई है।

यह जितनी ही नन्हीं होती है, इसके उत्पादन की प्रक्रिया उतनी ही ‌जटिल, संवेदी और सूक्ष्मतम होती है। अरबों रुपए की पूंजी के निरंतर निवेश के साथ-साथ उच्च तकनीकी ज्ञान और इस ज्ञान से सुसज्जित श्रमशक्ति के बिना इसका उत्पादन संभव ही नहीं है। इसीलिए माइक्रोचिप्स के वैश्विक कारोबार पर ताइवान और अमेरिकी कंपनियों का वर्चस्व कायम है।

हालांकि चीन सहित कई और देश भी इसके उत्पादन में लगे हुए हैं। चीन माइक्रोचिप्स बनाता है लेकिन जरूरत ज्यादा होन से बड़े पैमाने पर इनका ज्यादातर आयात अमेरिका से करता है। चीन ने 2020 में तकरीबन 25 लाख करोड़ रु की माइक्रोचिप्स का आयात किया जो 2019 की अपेक्षा 14.6 फीसद अधिक है। जहां तक भारत की बात है, माइक्रोचिप्स के लिए यह सौ फीसद आयात पर निर्भर बना हुआ है।

इसरो न्यूनतम 180 नैनोमीटर (एनएम) साइज़ तक का ही बना पाया था। डीआरडीओ उत्पादन में उतरे भी लेकिन नैनो और अत्यंत उन्नत स्तर के वैश्विक मानकों के समकक्ष चिप्स बनाने में सफल नहीं हुआ। एक उत्कृष्ट माइक्रोचिप में अवयव या घटक अथवा पुर्जे (कंपोनेंट्स) के तौर पर 10 लाख ट्रांज़िस्टर इस्तेमाल किए जाने लगे हैं।

माइक्रोचिप्स का उत्पादन जिनमें किया जाता है उन्हें सेमीकंडक्टर फैब्रीकेशन प्लांट/यूनिट या फाउंड्री अथवा एफएबी कहा जाता है। विश्व में माइक्रोचिप्स के 15 बड़े उत्पादकों में से 8 अमेरिका में हैं। इनमें इंटेल काॅर्पोरेशन, क्वालकॉम शामिल हैं। अन्य बड़ों में सैमसंग, वाॅक्सकाॅन, और मीडिया टेक का नाम है।

ताइवानी कंपनी ताइवान सेमीकंडक्टर मैन्युफैक्चरिंग काॅर्पोरेशन (टीएसएमसी) दुनिया की सबसे बेहतरीन माइक्रोचिप्स बनाती है। इसके संयंत्रों में 10 एनएम साइज़ की माइक्रोचिप्स बनाने की अति उन्नत टेक्नाॅलॉजी से लैस है। जिसके बल पर इसने इंटेल को पीछे छोड़ दिया है। ताज़ा जानकारी है कि टीएसएमसी 2021 में 2 लाख करोड़ रु और उसके अगले तीन सालों में 74 लाख करोड़ रु का अकल्पनीय पूंजी निवेश करने की योजना पर काम कर रही है।

टीएसएमसी ने वर्ष 2020 में 3.53 लाख करोड़ रु की आय पर 1.37 लाख करोड़ रु का लाभ अर्जित किया। माइक्रोचिप्स की समग्र वैश्विक सप्लाई में करीब 50 फीसद हिस्सा ताइवान के उत्पादकों के हाथ में और 47 फीसद अमेरिकी कंपनियों के पास है। विश्व में छोटे-बड़े मिलाकर एफएबी/ फाउंड्री की कुल संख्या 170 है।

वैसे भारत ने वर्ष 2015 में 88 हजार करोड़ रु से ज्यादा के माइक्रोचिप्स का आयात किया। 2016 में 1.12 लाख करोड़ रु, 2017 में 1.17 लाख करोड़ रु, 2018 में 1.33 लाख करोड़ रु, 2019 में 1.47 लाख ‌करोड़ रु का आयात किया गया और 2020 में 1.49 लाख करोड़ रु का आयात होने का अनुमान है।

भारत में सिर्फ आटोमोबाइल उद्योग में ही सालाना 30 हजार करोड़ रु के इलेक्ट्रॉनिक व इससे संबंधित सिस्टम्स की खपत होती है। उनोवोनौस की रिपोर्ट में भारत में माइक्रोचिप्स की वार्षिक मांग 2025 में 4000 करोड़ डॉलर अर्थात 2.96-3 लाख करोड़ रु (1 डॉलर=74रु) पहुंचने का अनुमान लगाया गया है।

एक और आश्चर्यजनक सच यह है कि भारत में माइक्रोचिप्स की सिर्फ डिजाइनिंग का बड़ा करोबार होता है। देश में सर्वप्रथम अमेरिकी कंपनी टेक्सास इंस्ट्रूमेंट्स ने वर्ष 1985 में बंगलुरू में अपना चिप्स डिज़ाइन सेंटर स्थापित किया था और अब स्थिति यह है कि दुनिया की 88-90 फीसद चिप कंपनियों के डिज़ाइन सेंटर और आर ऐंड डी सेंटर भारत में सक्रिय हैं। जिनमें 20 हजार से अधिक इंजीनियर काम करते हैं।

यह आश्चर्यजनक है कि इनमें से किसी एक ने भी यहां माइक्रोचिप्स अर्थात एफएबी अथवा सेमीकंडक्टर परियोजना नहीं लगाई। इसके पीछे कुछ तो गहरा रहस्य छिपा है, जिसकी गुत्थी सुलझाने और खरबों रुपए की विदेशी मुद्रा बचाने के लिए समाधान निकालना नीति निर्माताओं का दायित्व बनता है। जिसे अभी तक एक फीसद भी निर्वाह नहीं किया गया है। पहले कई बार की तरह हाल ही में भारत सरकार के इलेक्ट्रॉनिकी और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने हाल ही में इस क्षेत्र में परियोजना स्थापित करने केलिए देश-विदेशी उद्यमों से आवेदन आमंत्रित किए थे। कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं मिलने पर आवेदन की तारीख और बढ़ा दी गई है।

हालांकि सरकार ने ऐसी परियोजना लगाने वाली कंपनी को बड़ी नकद धनराशि देने की घोषणा भी की हुई है। पुरानी फाइलें बयान करती हैं कि 2013-14 में गुजरात में साबरकांठा के प्रांतिज में सेमीकंडक्टर परियोजना लगाने की महत्वाकांक्षी योजना बनाई गई थी। इसके लिए जारी किए गए आशयपत्र (लेटर आॅफ इंटेंट) भी जारी कर दिया गया था।

इसके अंतर्गत दो इकाइयों की स्थापना पर 29000 करोड़ रु का निवेश किया जाना था। प्रति माह 20000 वैफर्स (सेमीकंडक्टर) बनाने की क्षमता वाली यह परियोजना हिंदुस्तान सेमीकंडक्टर मैन्युफैक्चरिंग काॅर्पोरेशन (एचएसएमसी) के बैनर तले लगाने के लिए फ्रांस/इटली की कंपनी एसटी माइक्रो इलेक्ट्रॉनिक्स एनवी और मलेशियाई कंपनी सिलतेरा के सहयोग से गठजोड़ किया गया था।

इसमें वर्ष 2017 तक उत्पादन शुरू करने का लक्ष्य रखा गया था। इस परियोजना के लिए मुंबई स्थित तत्कालीन प्राइवेट इक्विटी फंड ‘नेक्स्ट आॅर्बिट’ ने 2016, मार्च में 700 करोड़ का शुरुआती भुगतान भी एचएसएमसी को कर दिया था। किन्हीं वजहों से योजना परवान चढ़ी नहीं। नतीजतन 2019 में आशयपत्र रद्द कर दिया गया।

दूसरा उदाहरण-उसी पीरियड में जेपी ग्रुप, आईबीएम और टाॅवर सेमीकंडक्टर लिमिटेड के गठजोड़ में एक्सप्रेस वे से लगे क्षेत्र में ग्रेटर नोएडा में 34000 करोड़ रु के निवेश से परियोजना की स्थापना की जानी थी। बढ़ते कर्ज से जेपी ग्रुप वित्तीय संकट में फंसा और परियोजना फिस्स हो गई। यह भी तथ्य है कि सरकार ने 2016 में इलेक्ट्रॉनिक सिस्टम्स डिज़ाइन व उत्पादन (ईएसडीएम) के क्षेत्र में 100 फीसद एफडीआई की घोषणा की थी। इसके बावजूद एक भी विदेशी चिप कंपनी ने रुचि नहीं ली।

देश में 5-जी सेवा जल्दी ही शुरू होने वाली है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) और इंटरनेट आॅफ थिंग्स (आईओटी) के आने पर माइक्रोचिप्स की मांग और तेजी से बढ़ना निश्चित है। नीति निर्माता समझें तो, क्या देश‌ के सामने यह ज्वलंत समस्या नहीं है? क्या माइक्रोचिप्स का आयात यूं ही होता रहेगा और लाखों करोड़ रु की विदेशी मुद्रा की निकासी होती रहेगी? अपना देश ये बोझ कब तक ढोता रहेगा?

प्रणतेश नारायण बाजपेयी