आखिर जिन्दगी से चाहते क्या थे साहिर

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1997

किस्से फिल्मी दुनिया के…

जब कभी साहिर का जिक्र होगा तो उनकी शायरी, उत्कर्ष फिल्मी गीतों के अलावा नाकाम मुहब्बतों की बखिया भी उधड़ेगी। सवाल यह उठता है कि साहिर जिन्दगी से आखिर चाहते क्या थे? जवाब के लिए आइये आपको लुधियाना ले चलते हैं जहां उनका जन्म हुआ। 8 मार्च 1921 को साहिर यानी अब्दुल हई का जन्म एक रईस जमींदार फजल मोहम्मद के घर हुआ। उनके अब्बा की कई पत्नियां थीं। लेकिन बेटा एक ही था अब्दुल। उनकी अय्याश तबियत का उनकी मां सरदार बेगम विरोध करती थीं। जिसे लेकर अक्सर उनकी पिटाई हो जाती। झगड़े बढ़े तो फजल मोहम्मद ने सरदार बेगम को घर से निकाल दिया लेकिन वे बेटे अपना कब्जा चाहते थे। मामला कोर्ट तक पहंुचा। आठ साल के अब्दुल ने अपने पिता के खिलाफ अदालत में गवाही दी। पिता मुकदमा हार गये। पिता इतने क्रोधित हुए कि उन्होंने अब्दुल को जान से मारने का फरमान जारी कर दिया।

सरदार बेगम ने अपने गहने बेंचकर बेटे की हिफाजत के लिए गार्ड नियुक्त कर दिये। अब्दुल की आरम्भिक पढ़ाई खालसा स्कूल में हुई। आगे की पढ़ाई के लिए उनहोंने लुधियाना गवर्मेंट कालेज में दाखिला लिया। यहां पढ़ाई के दौरान उन्होंने बेहतरीन नज्में लिखीं। वे कालेज में काफी फेमस हो गये थे। उनकी शायरी पर फिदा प्रेम चौधरी से उनकी अंतरंगता बढ़ी तो इस बात का बतंगड़ बनाकर उन्हें कालेज से बेदखल कर दिया गया। कहते हैं कि उनको चाहने आैर पसंद करने वाली एक मोहतरमा इसर कौर भी थीं। लेकिन दुर्भाग्य से उनका किसी से भी रिश्ता आगे नहीं बढ़ा।

वे अपनी मां को लेकर लाहौर चले आये। यहां उनको अदबे लतीफ, शाहकार, प्रीत लड़ी व सवेरा नामक पत्रिकाओं का सम्पादक बना दिया गया। दो साल बाद उनकी नज्मों की किताब ‘तलखियां” प्रकाशित हुई। किताब ने देखते ही देखते पूरे मुल्क में तहलका मचा दिया। इसी किताब की एक नज्म ताजमहल उन्होंने प्रीत नगर के मुशायरे में सुनायी जिसमें वो कहते हैं कि  ‘मेरे महबूब कहीं आैर मिला कर मुझसे, एक शहंशाह ने दौलत का सहारा लेकर, हम गरीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मजाक…” मुशायरे में मौजूद अमृता प्रीतम को यह नज्म इतनी मुतासिर हुर्इं कि वो साहिर से एकतरफा मुहब्बत कर बैठीं। जबकि वे शादीशुदा थीं।

अंग्रेजों ने भारत छोड़ने से पहले देश का बंटवारा करवा दिया। पाकिस्तान के हिन्दू भारत आने लगे आैर भारत में बसे मुस्लिम पाकिस्तान चले गये। साहिर अपनी मां के साथ पाकिस्तान में ही ठहर गये। साहिर की विचारधारा कम्युनिज्म से प्रभावित थी। उन्होंने पाकिस्तान सरकार की नीतियों के खिलाफ अपने रिसाले सवेरा में कई लेख लिखे। 1949 में सरकार ने उनके खिलाफ वारंट इशु कर दिया। अपनी मां की हिफाजत आैर अपनी फजीहत से बचने के लिए वे दिल्ली चले आये। दिल्ली रास तो आयी लेकिन दिल नहीं लगा। उनका जवानी का सपना था कि वे फिल्मों के लिए गीत लिखें। वे अपने सपने को सच करने बम्बई चले आये। अंधेरी में एक किराये के मकान में रहकर उन्होंने अपना स्ट्रगल शुरू किया। उन्हें गीत लिखने के लिए एक फिल्म ‘आजादी की राह” मिली। गीत था बदल रही है जिन्दगी। लेकिन इस गीत से उनकी जिन्दगी में कोई बदलाव नहीं आया। फिल्म कोई कमाल नहीं कर सकी। गाने भी नहीं चले। इस तरह धक्के खाते उन्हें फिल्म ‘नौजवान” मिली। संगीतकार थे एसडी बर्मन। फिल्म के गाने सुपर डुपर हिट रहे।

इस फिल्म का एक गीत ‘ ठंडी हवाएं लहरा के आयें” हर जुबान पर राज करने लगा। फिर एसडी बर्मन के ही संगीत निर्देशन में फिल्म आयी ‘बाजी” जिसको गुरुदत्त साहब ने डायेक्ट किया था, कामयाबी के झंडे गाड़ दिये। फिल्म का गीत ‘तदबीर से बिगड़ी हुई तकदीर बना लेे, अपने पर भरोसा है तो ये दांव लगा ले” काफी फेमस हो गया। फिर फिल्म ‘प्यासा” के गानों ने उनको सुपर स्टार बना दिया। अब तो हर निर्माता उन्हीं से गीत लिखवाने के लिए उनके दर पर दस्तक देने लगा। उधर अमृता प्रीतम 1960 में अपने पति से तलाक ले लिया। साहिर की कामयाबी से खुश होकर उनसे मिलने की तैयारी कर रही थीं कि एक खबर पर उनकी नजर पड़ी जिसमें लिखा था कि सुधा मल्होत्रा के रूप में साहिर को मुहब्बत मिल गयी है। अमृता का दिल टूट गया। अब तक पेंटर इमरोज भी उनकी चौखट पार कर चुके थे।…

एक मशहूर किस्सा संगीतकार खय्याम बताते हैं कि 1958 में रमेश सहगल एक फिल्म बना रहे थे ‘फिर सुबह होगी”। फिल्म के हीरो थे राजकपूर आैर संगीतकार भी उनकी पसंद के शंकर जयकिशन थे। गीत लिखने की जिम्मेदारी साहिर के कंधों पर थी। उन्होंने रमेश सहगल से पूछा कि संगीतकार कौन है तो उन्होंने सारी कहानी बता दी। इस पर वो बोले कि जिसने इस फिल्म के मूल लेखक दोस्तोवस्की के नावेल ‘क्राइम एंड पनिशमेंट” न सिर्फ पढ़ा हो बल्कि समझा भी हो वही इस फिल्म का संगीत बनायेगा। उन्होंने कहा कि मैं तो ऐसे आदमी को जानता भी नहीं हंू। तब साहिर ने कहा मैं जानता हंू वो हैं खय्याम। इस पर रमेश सहगल ने कहा कि ठीक है मैं उन्हें राजकपूर साहब से मिलवा दंूगा अगर वे ओके कर देंगे तो मुझे कोई एतराज नहीं। साहिर ने नज्म लिखी ‘वह सुबह कभी तो आयेगी, वो सुबह कभी तो आयेगी”। खय्याम ने पांच धुने बनायी। राजकपूर से सुनीं आैर पांचों को पास कर दिया। खय्याम के अलावा संगीतकार रवि आैर एन दत्ता को इंडस्ट्री में लाने वाले साहिर ही थे।

सुधा मल्होत्रा से उनकी नजदीकियां किसी से छिपी हुई नहीं थीं। उनके गाने भी सुधा मल्होत्रा गा रही थीं। एक बार फिल्म ‘दीदी” के एक गीत ‘तुम मुझे भूल भी जाओ तो ये हक है तुमको, मेरी बात आैर है मैंने तो मुहब्बत की है” की रिकार्डिंग होने थी। लेकिन संगीतकार एन. दत्ता के हार्ट अटैक आ गया। तब साहिर ने सुधा से कहा कि तुम इसे कम्पोज करो। सुधा ने कहा कि मैंने कभी कोई धुन कम्पोज नहीं की है लेकिन मैं कोशिश करूंगी। गाना रिकार्ड हुआ। इसमें मुकेश की भी आवाज थी। गाना बेहद मकबूल रहा। सुधा साहिर के आैर करीब आ गयीं। पता नहीं साहिर उनकी तरफ कभी प्यार से नहीं देखते थे। काफी समय बाद सुधा के परिवार वालों उनकी शादी तय कर दी। सुधा आंखों में आंंसू लिये विदा हो गयीं।
यह बात सभी जानते थे कि साहिर अपनी मां से बेहद मोहब्बत करते थे। वे कभी भी कोई कदम अपनी मां के विचारों के खिलाफ न तो उठा सकते थे आैर न ही उन्हें ऐसी किसी बात से दुखी कर सकते थे।

मशहूर लेखक व गीतकार जावेद अख्तर बताते हैं कि उन्हें सिगरेट आैर शराब पीने की बहुत बुरी लत थी। वे महंगी से महंगी शराब पीते। वे जब शराब पीते थे तो बैठते नहीं थे। हमेशा खड़े खड़े ही पीते थे। जब कोई उनकी तारीफ करता तो सीधे अपनी अम्मी के बेडरूम में जाते आैर वही बात दोहराते आैर पूछते क्या मैं ऐसा हंू? तो मां का जवाब होता कि अरे तुम तो उससे भी बेहतर हो। वे फुदकते हुए वापस महफिल में आ जाते आैर लार्ज पैग बनाकर देर रात तक पीते रहते।… उन्होंने यह भी बताया कि जब भी वे मुशायरे में कहीं भी जाते तो अपनी मां को भी कार में अपने साथ ले जाते। चाहे वो मुशायरा बम्बई से कितनी भी दूर क्यों न हो।… (जारी..)

प्रेमेन्द्र श्रीवास्तव
(नोट : लेखक की अनुमति के बिना इस लेख का कोई भी अंश या सम्पूर्ण रूप से उठाना पूरी तरह से निषेध है।)