मनुष्य के परिपेक्ष्य में योग का भावार्थ है जुड़ना। परन्तु किसको, किससे तथा क्यों मिलना? इन प्रश्नों को जाने बिना पूर्ण सिद्वि के साथ योग के उद्देेश्यों की पूर्ति संभव नहीं होती है। जगत में पुरूष तत्व अर्थात चेतन अंश अंसख्य एवं अपरिवर्तनशील है तथा प्रकृति तत्व एक ही है परन्तु परिवर्तनशील है।
दोनों एक दूसरे से पृथक है परन्तु एक तत्व का प्रभाव दूसरे तत्व पर पड़ता है जब प्रकृति तत्व पुरूष तत्व के संसर्ग में आती है तो प्रकृति में परिवर्तन होने लगता है। इन दोनों तत्वों के संयोग एवं वियोग का खेल ही संसार है अर्थात सृष्टि का क्रम है। पुरूष तत्व पवित्र होता है परन्तु वह भटकने वाला होता है। वह जब मायारूपी उर्जा शक्ति ‘प्रकृति’ के रंग विरंगें सृजन के संसर्ग में आता है तो प्रकृति के इस खेल में फंस कर उन तत्वों की ओर बह जाता है तथा अपने मूल उद्देश्यों से भटककर संसार के कर्म बधंन में बधकर जन्म-मृत्यु के चक्र में फंस जाता है। इन चक्रों की मुक्ति के बंधन तोड़ने हेतु पहले पंचमहाभूत तत्वों एवं उनके गुणों से ऊपर उठकर प्रकृति से मुंह फेरना होगा। जिस उपाय से साधनों को तोड़कर पुरूष तत्व अपने शुद्व स्वरूप में स्थित हो सके उस उपाय का नाम ही ‘योग’ है।
चेतन तत्व जब प्रकृति के पंचमहाभूतों अर्थात पंचतत्वों पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि एवं आकाश तत्वों से निर्मित शरीर तथा उन पंचतत्वों के गुणों गंध, स्वाद, स्पर्श, दृश्य तथा श्रवण गुणों से प्रधान इन्द्रियों नाक, जीभ, त्वचा, आंख एवं कान के सम्पर्क में आता है तो चेतन तत्व द्वारा मन, बुद्वि, चित्त एवं अंहकार का जन्म होता है। जिनमें प्रमुखतया मन एवं अंहकार धीरे-धीरे पंचतत्वों के गुणों के माध्यम से मायारूपी प्रकृति के अधीन से हो जाते है। फिर इससे छुटकारा पाने के लिए ‘योग’ ही उचित माध्यम होता है।
वैसे तो आदि काल से समाज को महर्षि पंतजलि, भगवान बुद्व तथा वर्तमान में स्वामी रामदेव जी ने योग की शिक्षा प्रदान की तथा मानव को स्वस्थ्य जीवन शैली के लिए योग की आवश्यकता एवं महत्वों को समाज के सामने रखा। परन्तु मनुष्य को सम्पूर्णता अर्थात मोक्ष प्राप्ति हेतु परम्योगी एवं प्रथम आदिगुरू देवाधिदेव शिव के द्वारा माता पार्वती को दी गयी अष्टांग योग का अनुसरण उचित योग गुरू की उपस्थिति में करना चाहिए।
योग सिद्वि की पूर्ण अवस्था समाधि होती है। उस तक पहुंचने के लिए भगवान शिव द्वारा अष्टांग योग के तहत यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि की आठ क्रियाओं को चरणबद्व तरीके से आत्मसात करने की शिक्षा दी गयी है।
यम अर्थात संयम यह योग का प्रथम चरण है। संयम के पांच नियमों को अपने आचरणों में आत्मसात करना होता है। 1ः अहिंसा अर्थात जिन कर्मो एवं विचारों से दूसरे की आत्मा दुखित होती है वह हिंसा है अतएव हिसंक कर्म एवं विचारों का परित्याग करना। 2ः सत्य अर्थात व्यक्ति के द्वारा जैसा देखा, सुना और जाना जाता है मन-कर्म एवं वचन से वैसा ही व्यवहार करना सत्य है। 3ः अस्तेय अर्थात चोरी न करना दूसरे की वस्तु को बिना पूछे प्रयोग अथवा अधिकार जमाना, बिना परिश्रम किये दूसरों का धन हडप़ना चोरी है। 4ः बंम्हचर्य अर्थात कामवासना को उत्तेजित करने वाले खानपान, दृश्यों, श्रव्य और श्रंगार आदि से बचते हुए वीर्य की रक्षा करना बंम्हचर्य होता है। 5ः अपरिग्रह अर्थात आवश्यकता से अधिक विषयों को ग्राहय करने से बचना, साधक को साधना में बाधा बनने वाली वस्तुओं से दूर रहना चाहिये।
नियम योग का द्वितीय चरण है। इसमें भी पांच नियम है 1ः शौच अर्थात धर्म, आचरण, सत्य, भाषण, विद्या, अभ्यास एवं संत्संग आदि आंतरिक पवित्रता तथा स्थान, षटकर्म आदि से शरीर की बाहरी पवित्रता का तात्पर्य शौच है। 2ः संतोष अर्थात परिश्रम के उपरांत मिले अन्न, धन, विद्या एवं पद इत्यादि पाकर संतोष करना। 3ः तप अर्थात आंतरिक एवं बाहरी कष्टों को समभाव से सहन करते हुए अपने उद्देश्यों की ओर अपने को केन्द्रित रखना ही तप होता है। 4ः स्वाध्याय का तात्पर्य है आध्यात्मिक अध्ययन एवं चितंन करना। 5ः ईश्वर प्राणिधान का तात्पर्य ईश्वरीय सत्ता की स्वीकारोक्ति कर निष्काम भाव से अपने शुभ कर्मो को ईश्वर को अर्पित कर देना।
आसन योग का तृतीय चरण है अर्थात ऐसे आसनों का अभ्यास कर स्थिर कर लेना जिसमें शरीर लम्बंे समय तक बिना कष्ट के स्थिर बैठकर योग के मूल उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक हो सके। प्राणायाम योग का चतुर्थ चरण है, श्वांस को भीतर लेना एवं बाहर छोड़ने की क्रिया प्राणायाम है, प्राणायाम के अभ्यास से अपनी श्वासों पर नियत्रंण एवं संतुलन बनाया जाता है। प्रत्याहार योग का पंचम चरण है। प्रत्याहार का अर्थ प्रतिकूल आहार इसका तात्पर्य यह है कि बाहरी विषयों से विमुख होकर अंर्तमुखी विषयों पर ध्यान केन्द्रित करना इससे हमारा चित्त ध्यान में लगने लगता है।
धारणा योग का छठा चरण है जब उक्त क्रियाओं से मन अंर्तमुखी होने लगे तब मन को चंचलता से विरक्त कर नाभि, ह्रदय, मस्तक आदि भाग पर केन्द्रित कर ओम का जाप करना ही धारणा है।
ध्यान योग का सांतवा चरण है, जब मन में ईश्वर के अतिरिक्त किसी का स्मरण न रहे अर्थात ईश्वर के प्रति मगन हो जाना ही ध्यान है। समाधि योग का अंतिम एवं आंठवा चरण है। ध्यान के चरण की परिपक्वता ही समाधि है और समाधि के पश्चात प्रज्ञा अर्थात मोक्ष का उदय होता है। यही योग का अंतिम लक्ष्य होता है।
हम सभी स्वयं योग की महत्ता को समझकर उसको आत्मसात करें। जिससे शांत एवं पवित्र मन तथा आरोग्य शरीर के साथ अपनी चिन्तामुक्त जीवन यात्रा सम्पन्न कर जीवन के मूल लक्ष्य ‘मोक्ष’ की प्राप्ति हो सके। तथा समाज को भी योग की ओर पे्ररित कर अपनी सामाजिक जिम्मेंदारियों का निर्वहन करें।
एस.वी.सिंह ‘प्रहरी’