किसी सम्मानित व्यक्ति के द्वारा शब्दों के विषय में यह उद्गार व्यक्त किये गये है जिसे साभार प्रस्तुत कर रहा हूँ। अल्फाज को संभालकर बोलिये, अल्फाज में भी जान होती है। इन्हीं से होती है दुआ लोगो की, इन्हीं से अजान होती है। ये दिल के संमदर के वो मोती हैं, जिनसे इंसान की पहचान होती है।
भारतीय संस्कृति में शब्द को ब्रह्म कहा गया है। वास्तव में शब्द ब्रह्माण्ड का पहला तत्व है। जिसके विस्फोट से सृष्टि का सृजन हुआ। इसीलिए संसार में ब्रह्म रूपी शब्द की ही सत्ता है, सम्पूर्ण जगत शब्दमय है तथा शब्द की ही पे्ररणा से समस्त संसार गतिशील है। शब्द मेें प्रयोग होने वाले अक्षरों का अंक ज्योतिष के अनुसार विष्लेषण करें तो 7 नम्बर आता है, जो कि केतु ग्रह का प्रतिनिधित्व करता है। चूँकि केतु ग्रह को धड़ माना गया है अर्थात् उसके पास मस्तिष्क का भाग नहीं है। इसलिए वह हमेशा ज्ञान व सत्यता की खोज में रहता है और सत्य की खोज ही आध्यात्म है।
मनुष्य के अन्दर विद्यमान मन के तीन कार्य हैं- स्मृति, चिंतन और कल्पना। इन तीनों से ही मन की चंचलता बनती है, यदि मन को शब्द न मिले तो चंचलता प्राप्त ही नहीं हो सकती अर्थात् उसकी गति शब्द की बैसाखी पर ही निर्भर करती है। शब्द दो प्रकार के होते हैं- व्यक्त और अव्यक्त, जब हम किसी भी भाषा के शब्दों को लड़ी मंे पिरोकर अपने भावों को व्यक्त कर देते है तो वह व्यक्त शब्द कहलाते हैं और जब हम अपने भावों की कल्पना मात्र करते है वह अव्यक्त शब्द की श्रेणी में आते हैं। जब तक शब्द आत्मचिंतन के स्वरूप में रहता है तब तक वह सूक्ष्म होता है लेकिन जब हम उसे व्यक्त कर देते है तो वह स्थूल हो जाता है।
हमारे कान न्यूनतम् 20 कम्पन आवृत्ति प्रति मिनट तथा अधिकतम् 20000 कम्पन आवृत्ति प्रति मिनट को ही पकड़ने की क्षमता रखते है परन्तु ब्रह्माण्ड में इससे भी कम और अधिक की सीमा में शब्दों का कंपन होता है जिसे हमारी अर्थात् मनुष्यों की श्रवणेन्द्रियां सुनने में सक्षम नहीं है। परन्तु संसार में बहुत से पशु-पक्षी व्याप्त है जिन्हें हम मनुष्यों से भी अधिक ब्रह्माण्ड के सूक्ष्म व अधिक ध्वनि स्पंदन का एहसास होता है। तभी तो वे आंधी, तूफान और तमाम प्राकृतिक आपदाओं को हम मनुष्यों से पहले भांप लेते है।
समूचा अंतरिक्ष शब्दों के कंपन से ही क्रियाशील बना हुआ है। हम सभी जो भी बोलते अथवा सोचते है वह तुरंत समाप्त नहीं हो जाता है बल्कि वह अंतरिक्ष में हजारों, लाखों वर्षों तक विद्यमान होकर तरंगित होता रहता है। वर्तमान में विज्ञान ने कई तरंगों को डिकोड करके तमाम आविष्कार किये हैं।
शब्दों का प्रभाव : हमारी कल्पना जब साकार होती है तो हमें सुख और जब हमारी कल्पना को साकार रूप नहीं मिल पाता तो वह दुःख का कारण बनती है। सुख या दुःख की परिणति का कारण कल्पना है जो कि शब्दों के रूप में प्रत्यक्ष होती है इसीलिए शब्दों में बहुत बल है। अच्छे विचारों से उत्पन्न शब्द यदि सकारात्मक हंै तो वह समाज में सकारात्मक ऊर्जा का प्रसार करेंगे परन्तु यदि नकारात्मक विचारों से उत्पन्न हुए हैं तो वह समाज में नकारात्मकता का प्रसार करेगी। शब्द हमारी आंतरिक अवस्था को पढ़ने का माध्यम है। शब्दों से मिलकर बने गायत्री मंत्र से शरीर एवं प्रकृति की ऊर्जा का संतुलन होता है तथा शब्द ईश्वर से मिलने का माध्यम भी होते हैं। इसको स्वामी विवेकानंद जी के एक वक्तव्य से समझा जा सकता है।
एक बार स्वामी विवेकानंद जी शिकागो (अमेरिका) में अपना प्रसिद्ध भाषण देकर स्वदेश लौटे तो पूरे देश मंे उनकी तारीफ हो रही थी, उसी दौरान उनके आश्रम मंे एक युवक आया और वह इस बात पर बहस करने लगा कि केवल शब्दों के भाषण से कुछ नहीं होता। स्वामी जी उसकी बातों को गौर से सुनते रहे और फिर चेहरे पर क्रोध लाकर बोले तुम मूर्ख और निकम्मे हो क्योंकि तुम्हें कोई बात आसानी से समझ में नहीं आती। स्वामी जी की क्रोधपूर्ण बातें सुनकर वह भड़कते हुए बोला कि स्वामी जी आप तो सन्यासी हैं। इसलिए आपके मुख से प्रेम की भाषा शोभा देती है। ऐसे कटु शब्द शोभा नहीं देते, तब स्वामी विवेकानंद जी मुस्कुराकर बोले मेरी बातों का बुरा मत मानना क्योंकि मैं आपको शब्दों का महत्व समझाने के लिए ही ऐसे शब्दों का प्रयोग कर रहा था। ये शब्द ही हैं जिनका प्रयोग कर लोग एक दूसरे को अपना बनातें है और इन्हीं का प्रयोग कर एक दूसरे के बीच दूरियां भी बढ़ाते हंै।
शब्द हमारे कर्म और प्रारब्ध का स्रोत : क्या आप जानते हैं कि हमारे द्वारा लाखों-करोड़ों वर्ष से इस ब्रह्माण्ड में उपयोग किये गये शब्द एवं भावों को संरक्षित कर उनके आधार पर हमारे कर्म और प्रारब्ध का निर्धारण किया जाता है। किसी भी कर्म के लिए कल्पनाशील होना अति-आवश्यक होता है और जब कल्पना में प्रतिबद्धता आती है तो वह भाव बनकर शब्दों के रूप में प्रत्यक्ष होते हैं। जिसके आधार पर कर्म का सृजन होता है। जब कर्म अच्छे होगें तो परिणाम भी अच्छे होंगे परन्तु कर्म के मूल में शब्द रूपी भाव निहित है। इस कारण मनुष्य को भाव रूपी शब्दों को प्रकट करने से पूर्व कई बार सोचना चाहिए अन्यथा हम सभी को अर्थ अथवा अनर्थ किसी भी परिणाम के प्रत्यक्षीकरण के लिए हर क्षण सज्ज रहना होगा। इसको महाभारत काल में भगवान श्रीकृष्ण तथा द्रौपदी के मध्य हुए एक छोटे से संवाद से समझा जा सकता है।
महाभारत युद्ध के परिणाम से द्रौपदी का मन बहुत क्षुब्ध हो गया क्योंकि हस्तिनापुर राज्य में पुरूषों का अकाल पड़ गया, चारों ओर विधवायें और अनाथ बच्चे ही दिखाई पड़ रहे थे, ऐसे में जब द्रौपदी अति व्याकुलता से अपने महल में एकचित्त निहार रही थी तो उसी समय भगवान श्रीकृष्ण का महल में आगमन हुआ तो द्रौपदी उनसे लिपटकर रोने लगी और उनसे पूछा ये क्या हो गया सखा, ऐसा तो मैने कभी सोचा न था ? तो भगवान श्रीकृष्ण ने द्रौपदी से पूछा क्या हुआ सखी, अब तो तुम्हारी सभी इच्छायें पूर्ण हो गयी हैं तो फिर किस बात का रूदन? उनकी बातें सुनकर द्रौपदी ने भगवान श्री कृष्ण से पूछा कि क्या आप हमारे घावों को सहलाने आये हैं या फिर उन पर नमक छिड़कने आये हैं? तब भगवान श्री कृष्ण ने कहा कि सखी नियति बहुत क्रूर होती है वह हमारे सोचने के अनुरूप नहीं चलती है, वह हमारे कर्मांे को परिणामों में बदल देती है। हमारे कर्मो के परिणामों को हम दूर तक देख नहीं पाते हैं और जब वह परिणाम हमारे सामने प्रत्यक्ष होते हैं तो फिर हमारे हाथ में कुछ नहीं रहता है। यदि तुमने अपने शब्दों के चयन में दूरदर्शिता रखी होती तो परिणाम कुछ और होते। तब द्रौपदी ने भगवान श्री कृष्ण से पूछा कि मैं ऐसे में क्या कर सकती थी कृष्ण? तब भगवान श्री कृष्ण जी ने द्रौपदी से कहा कि…
# जब तुम्हारा स्वंयवर हुआ था तो तुम कर्ण को अपमानित नहीं करती बल्कि उसको प्रतियोगिता में हिस्सा लेने देती तो शायद परिणाम कुछ और होते।
# जब कुंती ने तुम्हें पाँच पतियों की पत्नी बनने का आदेश दिया तो तुम उसको स्वीकार नहीं करती तो शायद परिणाम कुछ और होते।
# तुमने अपने महल में दुर्योधन को अंधे का पुत्र अंधा कहकर अपमानित किया, यदि तुम ऐसा नहीं कहती तो चीरहरण नहीं होता और शायद परिस्थितियां कुछ और होती।
जैसा कि कहावत है तोलमोल के बोल, इसलिए हम सभी को सदैव शब्द के आध्यात्मिक गुण एवं प्रभावों को स्मरण रखकर ही अपनी दिनचर्या को मूर्तरूप प्रदान करना चाहिए तथा अपनी कल्पनाओं और भावों को सदैव सकारात्मक रखना चाहिए तथा हर शब्दों को निकालने से पहले उनके दूरगामी परिणामों के बारे में ठीक से विश्लेषण करना चाहिए ताकि शब्दों से निर्मित कर्म तथा कर्म से निर्मित प्रारब्ध हम सभी को मुक्ति की ओर ले जाने में अपेक्षित सफलता प्रदत्त कर सके।
एस.वी.सिंह प्रहरी