सुप्रसिद्ध अभिनेता, राजनेता, निर्माता-निर्देशक सुनील दत्त जी का परिवार बंटवारे में पाकिस्तान से माइग्रेट होकर किसी तरह बचते बचाते लखनऊ पहुंचा था। ज्यादातर लोगों के घरों में पहले से ही विस्थापित लोग भरे हुए थे। कहीं भी रहने का ठिकाना न मिलने के कारण वो मायूस से बैठे थे तो किसी ने बताया कि अमीनाबाद के गन्ने वाली गली में एक मुस्लिम बूढ़ी दादी के सभी परिजन पाकिस्तान चले गये हैं, उनके वहां किराये की एक कोठरी खाली है। लेकिन इस वातावरण में वो किसी मुस्लिम को ही किराये पर कोठरी देंगी।
यह अजीब समस्या थी। उन्होंने कुछ सोचा। बाजार से एक जिन्ना टोपी खरीदी आैर बाकायदा शेरवानी पहनकर उस दादी के घर जा पहंुचे। बूढ़ी दादी ने दुआ सलाम के बाद उन्हें अपने घर के अंदर बैठाया आैर नाम पूछा। सुनील दत्त जी से कहा ‘अख्तर”। किराया तय हुआ दो रुपये आैर इस तरह वो जब तक वहां रहे अख्तर के नाम से ही रहे। बाद में वो प्रताप बाग, अलीगंज रहने चले आये।
वह मुश्किल दौर था : सुनील दत्तजी का जन्म 6 जून 1929 को (आज के पाकिस्तान) में हुआ था। जब वे मात्र पांच साल के थे तभी उनके पिताजी का देहान्त हो गया था। उस वक्त उनका छोटा भाई सोम दत्त तीन साल का व बहन छह माह की थी। उनकी मां सुबह -सुबह चक्की चलाकर आटा पीसती थीं। जबकि उनके पास बड़े बड़े खेत खलिहान थे। टोकने पर कहतीं कि चक्की से पिसा आटा खाने से शरीर में मजबूती आती है। बंटवारे के वक्त दत्त साहब अट्ठारह साल के थे। पढ़ाई के साथ साथ घर चलाने के लिए वो छोटे मोटे काम भी कर लेते थे। आगे की पढ़ाई के लिए वो लखनऊ से बम्बई गये तो वहां आमदनी का जरिया न होने के चलते उन्होंने बस कंडेक्टरी की। जय हिन्द कालेज में दाखिला लिया।
उनके साथ मैक मोहन व सुधीर भी पढ़ते थे जो थियेटर से जुड़े हुए थे। दत्त साहब भी नाटकों में हिस्सा लिया करते थे। जब वो थर्ड इयर में थे तो उनकी नौकरी रेडियो सिलोन में एनाउंसर के रूप में लग गयी। उनका काम एक विज्ञापन के लिए फिल्मी सितारों का इंटरव्यू लेना होता था। पहला इंटरव्यू उन्होंने निम्मी का लिया। फिर उन्हें नरगिसजी का इंटरव्यू लेने के लिए गये तो उनकी खूबसूरती को देखते ही रह गये। नर्वस हो गये। नरगिसजी ने उन्हें सहज किया। तब जाकर इंटरव्यू सम्पन्न हो पाया।
ऐसे मिली पहली फिल्म : रमेश सहगल फिल्म बना रहे थे। उनके सेट पर सुनील जी किसी अदाकारा का इंटरव्यू लेने गये हुए थे। सहगल साहब की नजर सुनील दत्त पर पड़ी। उन्होंने गैस्चर, अपियरेंस व लुक देखकर कहा ‘फिल्म में काम करोगे?” दत्त साहब ने छूटते ही कहा ,’हीरो का रोल मिलेगा तो ही करूंगा।” वो इस जवाब से काफी प्रभावित हुए। उन्होंने अपनी अगली फिल्म ‘रेलवे प्लेटफार्म” के लिए उन्हें हीरो के लिए कास्ट कर लिया।
मिली पहचान : महबूब साहब मदर इंडिया बना रहे थे। वो चाहते थे कि दिलीप साहब नरगिस के बेटे बिरजू का रोल करें। लेकिन नरगिस यह नहीं चाहती थीं क्योंकि वो कई फिल्मों में उनके हीरो रहे हैं, बेटे के रोल में जनता स्वीकार नहीं करेगी। फिर हॉलीवुड के भारतीय मूल के कलाकार साबू दस्तगीर को इस रोल के लिए चुना गया। लेकिन उनका वर्किंग वीजा का इशु हो गया। इसी बीच दिलीप साहब के खास दोस्त मुकरी साहब सुनील दत्त को महबूब साहब से मिलवाने ले गये। सुनील दत्त को देखते ही महबूब साहब के मुंह से निकला ‘बिरजू मिल गया”। इस फिल्म की जबर्दस्त कामयाबी से रातों रात सुनील दत्तजी लाइम लाइट में आ गये।
कैसे हुई नरगिस से शादी : ये तो सभी जानते हैं कि 1 मार्च 1957 को सूरत के उमरा में ‘मदर इंडिया” का शूटिंग के दौरान नरगिसजी आग से घिर गयी थीं। जिनको अपनी जान पर खेल कर दत्त ने बचा लिया था। जिसमें उनका मुंह बुरी तरह झुलस गया था। इलाज के दौरान नरगिस पूरे टाइम उनकी देख रेख में लगी रहीं। नरगिस उस वक्त टॉप की हिरोइन थीं आैर सुनील दत्त न्यू कमर थे। बात आयी गयी हो गयी। उनका काम के सिलसिले में मिलना जुलना होता था। उस घटना को एक साल बीतने को था तो एक दिन नरगिस स्टूडियो आयीं तो दत्त साहब गमगीन से बैठे थे। उन्होंने पूछा ‘बात क्या है बिरजू।” वो उन्हें इसी नाम से बुलाती थीं। उन्होंने बताया कि मेरी इकलौती बहन को गले में टि¬ूब्राोक्लोसिस की सिस्ट हो गयी है आैर मैं किसी डाक्टर को जानता भी नहीं हंू। समझ मेें नहीं आ रहा है कि क्या करूं। वो बोलीं चिन्ता न करें सब ठीक हो जाएगा। दत्त साहब जब रात को घर पहंुचे तो बहन ने बताया कि कल उनका ऑपरेशन है। नरगिस जी ने सारी तैयारियां करवा दी हैं। यह बात सुनील दत्त के दिल में अंदर तक जगह बना गयी। चौथे दिन बहन डिसचार्ज होकर सकुशल घर आ गयीं तो दत्त साहब ने नरगिसजी से कहा कि मैं आपको घर छोड़ दंू? उन्होंने कहा ठीक है। वो अपनी फिएट में उन्हें घर छोड़ने चले तो रास्ते में कहा कि मैं आपसे एक बात कहना चाहता हंू।
उन्होंने कहा बोलो ‘बिरजू क्या बात है?” दत्त साहब ने गाड़ी चलाते हुए एक सांस में कहा, ‘मैं आपसे शादी करना चाहता हंू।” थोड़ी देर सन्नाटा छाया रहा। फिर उनका घर आ गया आैर नरगिसजी बिना कोई जवाब दिये अंदर चली गयीं। दत्त साहब दो दिन तक जवाब का इंतजार करते रहे। वो सोचने लगे कि अगर उन्होंने इंकार कर दिया तो वह बम्बई छोड़कर अपने गांव वापस जाकर खेती बाड़ी करने लगेंगे। तीसरे दिन घर आये तो बहन ने हंसते हुए कहा कि भाईजी, वो आयी थीं आैर हां कह गयी हैं। दत्त साहब ने पूछा कौन आयी थीं। बोलीं ‘अरे हमसे छिपाए ना, आप चुप ही रहें। कह रही थीं कि मां से पूछ लें।” मां ठहरीं पुराने ख्यालात की। लेकिन उन्होंने दत्त साहब से कहा कि मैंने तुमको नहीं बनाया है। आज तू जो भी अपनी मेहनत आैर लगन से है। तू जो भी निर्णय लेगा सोच समझ कर लेगा। फिर क्या था। दोनों 11 मार्च 1958 को विवाह बंधन में बंध गये।
प्रेमेन्द्र श्रीवास्तव