नयी दिल्ली/मुंबई। पानी उतरता देख किनारे घर मत बना लेना। मैं तो समंदर हूं, मैं लौटकर फिर आऊंगा।
वर्ष 2019 में सत्ता छोड़ने समय देवेंद्र फडणवीस ने यही बात कही थी। और अब वही समंदर किनारे पर लौट आया है। भाजपा के देवेंद्र फडणवीस एक बार फिर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री हो गये हैं। और मुख्यमंत्री रहे एकनाथ शिंदे उपमुख्यमंत्री। अजित पवार भी उपमुख्यमंत्री बने हैं। हालांकि आखिरी समय तक एकनाथ शिंदे इस कोशिश में लगे रहे कि उन्हें मुख्यमंत्री पद या उपमुख्यमंत्री के साथ गृहमंत्री का पद भी मिल जाए, किंतु ऐसा नहीं हुआ। हां, ये जरूर हुआ कि देवेंद्र फडणवीस के प्रति लायल्टी जताने में अजित पवार शिंदे से बाजी मार ले गये। शिंदे ने नाराजगी जता कर राजनीतिक चूक कर दी। किंतु देवेंद्र फडणवीस ने बड़ा दिल दिखाते हुए सहयोगियों को नाराज होने का कोई मौका नहीं दिया। इसके अलावा महाराष्ट्र के चुनाव परिणामों ने कई और सवालों के जवाब भी दे दिए हैं।
इन परिणामों ने बता दिया है कि शिवसेना में बालासाहेब की विरासत का असली हकदार बेटा या भतीजा नहीं, शिष्य है। इस दावेदारी में उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे दोनों ही शिंदे से पिछड़ गए। नतीजा यह हुआ कि एकनाथ शिंदे की शिवसेना 57 विधायकों के बल पर ही असली साबित हुई जो उद्धव ठाकरे के 20 विधायकों की संख्या से बहुत आगे है। वैसे असली घोषित तो अजित पवार की एनसीपी भी हो गई। जनता ने भतीजे अजित पवार पर अधिक विश्वास जताया और उन्हें 41 विधायक दिए। चाचा शरद पवार को झटका लगा और उनके 10 विधायक ही जीत पाए। बेमन से ही सही एकनाथ शिंदे ने मुख्यमंत्री पद पर अपनी दावेदारी छोड़कर भाजपा का मुख्यमंत्री बनने का रास्ता साफ कर दिया। शिंदे ने कहा कि उन्हें सरकार गठन में पीएम नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह का हर फैसला स्वीकार होगा। यानी अब महाराष्ट्र की राजनीति में भाजपा बड़े भाई की भूमिका में आ गई है। इसे इस प्रकार भी कह सकते हैं कि भाजपा राजा बनी, शिवसेना लाल साहब यानि मझले भाई और अजित पवार कुंवर साहब, यानि छोटे भाई बन गए।
शिवसेना प्रमुख एकनाथ शिंदे ने गत बुधवार 27 नवंबर को अपने पुणे के आवास पर पत्रकारों से बातचीत में महायुति की विराट जीत के लिए प्रदेश की जनता को बहुत-बहुत धन्यवाद दिया। और उन्होंने आभार जताते हुए कहा कि मेरे ढाई साल के कार्यकाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह हमेशा मेरे पीछे चट्टान की मजबूती के साथ खड़े रहे। उन्होंने हर निर्णय में मेरा साथ दिया। इसीलिए हमारी सरकार ने बहुत बेहतरीन और जनहित के कार्य किए। शिंदे ने बताया कि मेरी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह से बात हुई तो मैंने उन्हें बता दिया कि महाराष्ट्र की सरकार गठन में कोई बाधा नहीं आने पाएगी। आपका हर फैसला मुझे मंजूर है।
शिंदे ने कहा कि जिस प्रकार भाजपा के लोग प्रधानमंत्री का फैसला अंतिम रूप से मानते हैं, ठीक वैसे ही वे भी उनका फैसला अंतिम रूप से मानेंगे। शिंदे ने प्रधानमंत्री को यह भी आश्वासन दिया कि वे सरकार गठन के किसी भी निर्णय में स्पीड ब्रेकर नहीं बनेंगे। मुख्यमंत्री पद के लिए भाजपा का जो भी चेहरा होगा उसको उनका समर्थन रहेगा। शिंदे ने पत्रकारों से कहा कि मुझे किसी पद की लालसा नहीं है। मेरे लिए लाडली बहनों ने लाडला भाई का पद दिया है, जो मेरे लिए बड़ी बात है। शिंदे ने कहा कि मैंने हमेशा एक कार्यकर्ता की तरह काम किया। कभी प्रोटोकॉल की चिंता नहीं की। मुख्यमंत्री पद को लेकर नाराजगी की खबरों पर उन्होंने कहा कि मैं नाराज होने वाला नहीं, लड़ने वाला और काम करने वाला व्यक्ति हूं। मैं किसान परिवार से आता हूं और मेरी जरूरतें सीमित हैं। यानि अब महाराष्ट्र के ताजा समीकरणों में भाजपा को बालासाहेब ठाकरे के जमाने के छोटे भाई की भूमिका से मुक्ति मिल गई है। क्योंकि शिंदे ने एक तरह से भाजपा की बढी हुई ताकत को देखते हुए सरेंडर कर दिया है। उन्हें समझ में आ गया है कि अगर उन्हें शिवसेना पर कब्जा बनाए रखना है तो भाजपा को बड़ा भाई मानना ही होगा। और ये राज्य की राजनीति में एक बड़ा बदलाव है। जिसके लिए भाजपा वर्षों से प्रयासरत थी। भाजपा को अब न तो बाला साहब ठाकरे के जैसी ठसक झेलनी होगी और न ही विरोधी दलों का दबाव। और भाजपा यही चाहती भी थी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शताब्दी वर्ष में संघ और भाजपा के लिए इससे बड़ी कोई उपलब्धि हो ही नहीं सकती। ये प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह के कार्यकाल की स्वर्णिम घटना साबित होगी जो इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गई है।
राजनीतिक गलियारों में यह भी चर्चा है कि चुनाव में शानदार प्रदर्शन कर एकनाथ शिंदे ने शिवसेना का रिमोट कंट्रोल उद्धव ठाकरे से छीन लिया है। उधर आंकड़ों का कहना है कि भाजपा को अपने 132 विधायकों के अलावा साथी छोटे दलों के कम से कम उन चार और विधायकों का भी समर्थन प्राप्त है जिनके लिए उसने अपने कोटे की सीटें छोड़ी थीं। इसके अलावा शिवसेना और एनसीपी में भी कुछ ऐसे विधायक जीते हैं जो चुनाव के पहले तक भाजपा में थे। ऐसे विधायकों की संख्या 10-15 बतायी जाती है। यानी नम्बर गेम में भाजपा कमजोर नहीं है। फिर भी उसने गठबंधन साथियों पर इसका कोई दबाव महसूस नहीं होने दिया। अजित पवार तो शुरुआत में ही भाजपा के पक्ष में बयान दे चुके थे। किंतु शिंदे ने थोड़ी नाराजगी दिखाई तो फडणवीस खुद मनाने भी गए। यानी बड़ी जीत के बावजूद भाजपा ने गठबंधन धर्म का खयाल रखा। इस प्रकार महाराष्ट्र की सत्ता पर जहां भाजपा लगभग अपने दम पर काबिज हो गई है, वहीं एकनाथ शिंदे ने साबित कर दिया है कि उन्होंने उद्धव ठाकरे से बगावत करके सही निर्णय लिया था। जनता ने भी उनके निर्णय पर अपनी मोहर लगा दी है। अब एकनाथ शिंदे निर्विवाद रूप से शिवसेना के सर्वमान्य नेता बन गए हैं। अब उद्धव ठाकरे और संजय राउत के पास पछताने के अलावा और कोई चारा नहीं बचा है। जनता ने उन्हें बाल ठाकरे की नीतियों से हटने का दंड दे दिया है। सूत्रों का कहना है कि उद्धव ठाकरे अब फिर अपनी शिवसेना को बाल ठाकरे की नीतियों पर चलाएंगे। उनका कहना है कि हमारी पार्टी अपने हिंदुत्व के एजेंडे से पीछे नहीं हटेगी। खबर है कि इसीलिए अब वे महा विकास अघाड़ी से अलग होने के बारे में सोच रहे हैं। उनके निकट के लोगों का मानना है कि भाजपा से अलग होकर राजनीति करने का जो निर्णय उन्होंने लिया था, वह गलत साबित हुआ है। खबर यह भी है कि इस निर्णय के लिए जिम्मेदार संजय राउत अब बेचैन हैं। सूत्रों का कहना है कि जल्द ही उद्धव ठाकरे महा विकास अघाड़ी से अलग होकर प्रदेश के सभी शहरी निकायों के चुनाव अपने बूते पर लड़ने वाले हैं। हालांकि पार्टी की ओर से अभी इस बारे में कोई औपचारिक घोषणा नहीं की गई है, किंतु चर्चाएं तेज हैं। और राजनीति का स्थापित सूत्र वाक्य है कि बिना आग के धुआं नहीं होता। और राजनीति संभावनाओं का खेल और आवश्यकताओं का मेल है।
महायुति में रूठने और मनाने का भी खेल हुआ : गत 23 नवंबर को चुनाव परिणाम आ जाने के बाद महायुति में रूठने और मनाने का भी खेल हुआ। इसमें शिवसेना प्रमुख एकनाथ शिंदे का रोल बार्गेनिंग वाला रहा। हुआ यह कि 28 नवंबर को दिल्ली में अमित शाह से मुलाकात के बाद एकनाथ शिंदे अपने गांव सतारा चले गए। कहा गया कि शिंदे जब भी कोई बड़ा निर्णय लेना चाहते हैं तो अपने गांव जाते हैं। उसके बाद गत एक दिसंबर को एकनाथ शिंदे मुंबई आए। उन्होंने बयान दिया कि उनको भाजपा का मुख्यमंत्री स्वीकार है। इस बयान के बाद फिर खबर आई कि शिंदे फिर अपने गांव चले गए हैं। उनकी नाराजगी की खबरें भी उठीं। उनके लोगों ने बताया कि वे सरकार में प्रस्तावित अपनी भूमिका को लेकर संतुष्ट नहीं है। ऐसे में मांग उठी कि अगर वह डिप्टी सीएम बनते हैं तो भाजपा की तरह गृह विभाग खुद के लिए चाहते हैं। उधर सूत्रों का कहना था कि भाजपा गृह मंत्रालय पर अपना दावा छोड़ने को तैयार नहीं थी। इसके चलते चर्चाओं का बाजार गर्म हो गया। इस दौरान एकनाथ शिंदे की तबीयत खराब होने की भी बातें आईं। अंततः 2 दिसंबर को भाजपा नेता गिरीश महाजन एकनाथ शिंदे से मिलने और उनका हाल पूछने के लिए उनके गांव गए। उसके बाद देर रात खबर आई एकनाथ शिंदे मान गए हैं। वह डिप्टी सीएम बनने को तैयार हैं। और साथ ही गृह विभाग पर भी अपना दावा छोड़ते हुए शहरी विकास मंत्रालय लेने को तैयार हो गए हैं।
उसी दिन शाम को एनसीपी के नेता अजित पवार फिर दिल्ली गए और वहां पार्टी के नेताओं से मुलाकात के बाद उन्होंने गृहमंत्री अमित शाह से भी मुलाकात की कोशिश की। हालांकि 3 दिसंबर की शाम तक उनकी मुलाकात नहीं हो पाई क्योंकि अमित शाह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ चंडीगढ़ में एक कार्यक्रम में थे। बाद में उन्हें संदेश दे दिया गया कि अब जो भी बात हो देवेंद्र फडणवीस से ही की जाए। इसके बाद अजित पवार ने अपने को सिकोड़ लिया। दूसरी ओर 3 दिसंबर को फिर शिंदे की तबीयत खराब हुई और वे ठाणे के एक अस्पताल में भर्ती हो गए। इसके चलते इसी दिन दोपहर साढ़े तीन बजे होने वाली महायुति की बैठक नहीं हो पाई। खैर, बाद में शिंदे की तबीयत ठीक हो गई और 4 दिसंबर की शाम को महायुति के तीनों बड़े नेता फडणवीस, शिंदे और अजित पवार एक साथ पत्रकार वार्ता में मौजूद रहे।
इधर सूत्रों ने शिंदे की नाराजगी और अजित पवार की दिल्ली यात्रा को भाजपा की रणनीतिक चाल बताया और कहा कि यह सब विपक्ष को उलझाए रखने के लिए किया गया ताकि वह गफलत का शिकार बना रहे। कुछ जानकारों ने इसे एकनाथ शिंदे को दबाव लेने की रणनीति भी करार दिया। ऐसे में यही कहा जा सकता है कि अंत भला तो सब भला। उधर विपक्ष ने नाराजगी की खबरों पर खूब चटकारे लेकर इसका मजा लिया। किंतु अंततः महायुति में सब कुछ ठीक हो गया। परिणाम स्वरूप देवेंद्र फडणवीस ने तीसरी बार मुख्यमंत्री, एकनाथ शिंदे ने मुख्यमंत्री पद छोड़ पहली बार उप मुख्यमंत्री और अजित पवार ने छठवीं बार उपमुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली।
राजनीतिक हलको में इस बात की बड़ी चर्चा है कि महाराष्ट्र में महायुति की जीत का श्रेय किसे दिया जाए। निश्चित रूप से यह बात कही जा सकती है कि महायुति के तीनों घटकों की एकता ने इस जीत को आसान किया है। किंतु सिर्फ यही एक कारण है, यह नहीं कहा जा सकता। क्योंकि एक तो तीनों पार्टियां लोकसभा चुनाव में भी थीं। किंतु परिणाम संतोषजनक नहीं रहे। दरअसल लोकसभा चुनाव के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भाजपा से अपनी नाराज़गी दूर कर अपने स्वयंसेवकों को मैदान में उतार दिया था। और यह जीत उनके पिछले छह महीनों की मेहनत का ही परिणाम है। संघ के स्वयंसेवकों ने पूरी लड़ाई को जाति से हटाकर हिंदू बनाम मुसलमान पर लाकर खड़ा कर दिया था। नतीजा यह हुआ कि जैसे-जैसे मुसलमान यूनाइटेड होते गए और महा विकास अघाड़ी के पक्ष में एकजुट होने की अपील होती रही वैसे-वैसे हिंदू भी यूनाइटेड हुआ। और फिर महायुति को प्रचंड बहुमत मिला। और यह ऐतिहासिक जीत सिर्फ किसी मुख्यमंत्री के चेहरे पर या किसी के काम पर तो नहीं मिल सकती।
ऐसे में अगर एकनाथ शिंदे को इस बात का मुगालता है कि ये जीत उनके मुख्यमंत्रित्व काल की मेहनत का परिणाम है, तो वे गलत हैं। क्योंकि मुख्यमंत्री तो वे लोकसभा चुनाव के दौरान भी थे, किंतु कोई करिश्मा नहीं हुआ। असल में लोकसभा चुनाव के दौरान विपक्ष के संविधान और आरक्षण विरोधी झूठे नैरेटिव की काट नहीं मिल पाई थी। इस कारण दलित और पिछड़े वर्ग ने तब एनडीए का साथ छोड़ दिया था। इस कारण परिणाम बहुत संतोषजनक नहीं आए। लोकसभा चुनाव के बाद संघ की पलक्कड़ बैठक में बनी रणनीति के बाद संघ के स्वयंसेवक सक्रिय हुए और उन्होंने हिंदुओं को एकजुट होने का संदेश देना शुरू किया। यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नारे भी अनायास नहीं आए थे। ये एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा थे।
विपक्ष का यह आरोप बिल्कुल सही लगता है कि ये नारे संघ की प्रयोगशाला में तैयार हुए थे। क्योंकि इनका समर्थन संघ ने भी किया था। इन तारों ने अपना काम भी कर दिया। और महाराष्ट्र में एनडीए को तीन चौथाई बहुमत मिल गया जो ऐतिहासिक है। महाराष्ट्र की यह विजय संघ के लिए भी जरूरी थी क्योंकि महाराष्ट्र संघ की जन्मस्थली है। संघ के तमाम बड़े नेता महाराष्ट्र की धरती से ही निकले हैं। ऐसे में अपने शताब्दी वर्ष में संघ ने वो कारनामा कर दिखाया है जिसकी उम्मीद शायद संघ को भी नहीं थी। बताते हैं कि चुनाव पूर्व संघ ने जो आंतरिक सर्वे कराया था, उसमें भी महायुति को कुल 166 सीटें ही मिल रही थीं। किंतु 225 सीटों का प्रचंड बहुमत पाना ऐतिहासिक रहा। अब अगर एकनाथ शिंदे को इस बारे में कोई मुगालता है तो उन्हें अभी भी दूर कर लेना चाहिए। हां ये जरूर है कि महायुति की एकता ने संघ के नारों को जमीन प्रदान किया और परिणाम सुखद रहे।
अब ठाकरे की विरासत की लड़ाई भी खत्म : इस चुनाव में प्रखर हिंदूवादी नेता और शिवसेना के संस्थापक बाला साहेब ठाकरे की विरासत की लड़ाई में तीन दावेदार थे। इनमें से एक थे कभी उनके दाहिने हाथ और शिवसेना के बैकबोन रहे उनके भतीजे राज ठाकरे। दूसरे थे उनके पुत्र उद्धव ठाकरे और तीसरे थे उद्धव ठाकरे से बगावत कर भाजपा से मिलकर सरकार बनाने वाले एकनाथ शिंदे। पार्टी प्रत्याशी के समर्थन में आयोजित एक चुनावी सभा में राज ठाकरे ने ऐलान किया था कि अगर उनकी सरकार आई तो मस्जिदों से लाउडस्पीकर उतरवा देंगे। ठीक इसी प्रकार के बोल कभी बालासाहेब ठाकरे के भी हुआ करते थे। वे कहा करते थे कि यदि उनकी सरकार आई तो मस्जिदों से लाउडस्पीकर उतरवाएंगे और सड़कों पर नमाज बंद करवा देंगे। बहुत दिनों बाद बाल ठाकरे की स्टाइल में किसी ने भाषण दिया था।
इसे यूं भी समझा जा सकता है कि कुंद पड़ चुकी उद्धव ठाकरे की हिंदूवादी राजनीति, जो कांग्रेस और शरद पवार की गोद में है, को जगाने का बीड़ा राज ठाकरे में उठा लिया था। किंतु महाराष्ट्र की जनता ने उन्हें बालासाहेब की विरासत का हकदार नहीं माना और उनकी पार्टी को हाशिए पर लाकर खड़ा कर दिया। दूसरी ओर उद्धव ठाकरे ने मुख्यमंत्री पद की लालच में भाजपा से अलग होकर कांग्रेस और शरद पवार के साथ मिलकर सरकार बना लिया था। किंतु ढाई साल बाद ही एकनाथ शिंदे ने उनकी सरकार गिराकर भाजपा के साथ नई सरकार बना ली। उसके बाद ढाई साल तक उद्धव ठाकरे अस्तित्व की लड़ाई लड़ते रहे।
इस दौरान उन्होंने बालासाहेब ठाकरे के कट्टर हिंदुत्व को छोड़कर सॉफ्ट हिंदुत्व की तरफ कदम बढ़ाए। परंतु कांग्रेस और एनसीपी के दबाव में वे लगभग हिंदू विरोधी घोषित होते गए। वैसे लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी को ठीक सीटें मिलीं। किंतु जानकारों का कहना है कि उस समय उनको मिले वोट शिवसेना को नहीं बल्कि भाजपा के खिलाफ वाले वोट थे। तब विपक्ष ने भाजपा के खिलाफ संविधान और आरक्षण विरोधी होने का झूठा नैरेटिव बना रखा था। जिसका लाभ उन्हें भी मिल गया। किंतु अब हालिया विधानसभा चुनावों के परिणामों ने उनको उनकी औकात बता दी है। वैसे गठबंधन में उद्धव ठाकरे को सबसे ज्यादा 20 सीटें मिली हैं किंतु वे लड़ाई में एकनाथ शिंदे से बहुत पीछे हैं। इस प्रकार जनता ने उन्हें भी बाला साहब की विरासत का हकदार नहीं माना।
ऐसे में असली शिवसेना होने का दावा करने वाले एकनाथ शिंदे की पार्टी को वोटरों ने हाथों-हाथ लिया और उन्हें 57 विधायक दिए। इस प्रकार जनता ने उन्हें बालासाहेब की विरासत का हकदार माना। और उद्धव ठाकरे से अलग होकर सरकार बनाने के उनके निर्णय पर अपनी मोहर लगा दी। सूत्रों का कहना है कि चुनाव के दौरान अंदरखाने राज ठाकरे की भाजपा से बात भी चलती रही। ऐसे में जब महाराष्ट्र की राजनीति हिंदू बनाम मुसलमान की होती जा रही थी तो भाजपा के लिए राज ठाकरे ही मुफीद लग रहे थे। सूत्र बताते हैं कि एकनाथ शिंदे को भी कोई आपत्ति नहीं थी। किंतु वोटरों ने राज ठाकरे को नकार दिया है तो ये एपिसोड भी अब बंद हो गया है।
आखिरी दिनों में लड़ाई हिंदू-मुसलमान पर आई : चुनाव का आखिरी दौर आते-आते अंततः महाराष्ट्र की लड़ाई सीधे-सीधे हिंदू बनाम मुसलमान पर आ गई। एक तरफ यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ का बंटेंगे तो कटेंगे और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का एक रहेंगे तो सेफ रहेंगे, का नारा पूरे महाराष्ट्र में धूम मचा रहा था तो वहीं उसके विरोध में मुस्लिम संगठनों ने भी बीते 5 नवंबर को वोट जिहाद के साथ महा विकास अघाड़ी के पक्ष में मतदान करने की अपील कर दी। इसको लेकर दोनों तरफ से वार-पलटवार हुआ। भाजपा और संघ परिवार भी खुलकर इन नारों के पक्ष में आ गए। इसे लेकर महायुति में मतभेद भी दिखाई दिए। एनसीपी प्रमुख अजित पवार ने इस नारे से अपने को अलग कर लिया था। और चुनाव परिणाम आने के बाद भाजपा की ताकत देख उन्होंने वक्त की नजाकत को भांपते हुए भाजपा के पक्ष में सरेंडर कर दिया।
इसके अलावा चुनाव प्रचार के केंद्र में हिंदू ह्रदय सम्राट बाला साहेब ठाकरे का नाम भी खूब लिया गया। इस चुनाव में खास बात यह भी रही कि मुस्लिम वोटों के दो दावेदार सामने थे। एक असदुद्दीन ओवैसी और सपा। मुस्लिम संगठनों ने मस्जिदों में बैठक कर गत 5 नवंबर को एक फतवा जारी कराया था। इसमें वीडियो जारी कर मुसलमानों से अपील की गई थी कि वे वोट जिहाद करें और महा विकास अघाड़ी को वोट दें। उधर कांग्रेस समर्थक मौलाना सज्जाद नोमानी ने 4 मिनट का एक वीडियो जारी कर मुस्लिमों से कहा था कि इस बार चूक नहीं होनी चाहिए। उनका दावा था कि मुसलमान भाजपा के विकल्प के रूप में कांग्रेस को देखते हैं। उन्होंने मुस्लिमों से अपील की थी कि वे एकजुट होकर महा विकास अघाड़ी को जिताएं।
भाजपा ने इसकी शिकायत चुनाव आयोग से भी की। मुस्लिम वोटों के एक और कथित ठेकेदार मौलाना हारुन नदवी का कहना था कि 13-14 परसेंट वोट पाकर लोग सीएम बन रहे हैं, और हम तो 17% वाले हैं, पर हमें पूछने वाला कोई नहीं है। हमें गोरक्षा के नाम पर मारा जा रहा है, परेशान किया जा रहा है। यह अब नहीं चलेगा। हमें जागरूक होना होगा, मोदी को हटाने के लिए वोट जिहाद करना होगा। उनका कहना था कि अगर महायुति नबी के गुनहगारों के साथ खड़ी है तो ऐसे लोगों के खिलाफ हमें भी एक होना होगा। उधर लोकसभा चुनाव में अपनी जीत से उत्साहित महा विकास अघाड़ी मुस्लिम वोटों पर नजर गड़ाए थी।
एक अनुमान के अनुसार लोकसभा चुनाव में मुस्लिम बिरादरी ने महा विकास अघाड़ी का समर्थन किया था। इस बात की ताइद मौलाना अरशद मदनी ने गत 3 नवंबर को दिल्ली के एक सम्मेलन में भी की। उन्होंने कहा कि मैंने राहुल के आश्वासन पर इंडी गठबंधन को समर्थन दिया था। आंकड़े बताते हैं कि महा विकास अघाड़ी को मुस्लिम मत मिले और इसका फायदा उद्धव ठाकरे को भी हुआ। उन्हें लोकसभा चुनाव में ऐसी सीटों पर सफलता मिली थीं जो मुस्लिम बहुल हैं। इसलिए उन्हें भी इस बात का विश्वास हो गया था कि मुसलमान उन्हें वोट कर रहे हैं। चर्चा है कि उद्धव ठाकरे ने इसीलिए कट्टर हिंदुत्व की छवि से पीछा छुड़ाने की भी कोशिश की। चुनाव प्रचार में तो उनके प्रवक्ता राम-कृष्ण के ही अस्तित्व पर सवाल उठाने लगे।
पार्टी प्रवक्ता सुषमा आत्रे ने तो राम के जन्म स्थान पर ही सवाल खड़ा कर दिया। उन्होंने कहा कि अगर भगवान हर जगह हैं तो उन्होंने अयोध्या में ही क्यों जन्म लिया। साथ ही यह भी कहा है कि गीता में तो कहा गया है कि जब धर्म की हानि होगी और पाप बढ़ेगा तो मैं अवतार लूंगा। तो क्या अभी धर्म की हानि नहीं हो रही है। उनका कटाक्ष था कि असल में कृष्ण बेचारा इस समय थका हुआ है। कई गोपियां हैं उसकी, और वह उनके साथ डेट पर गया हुआ है। इस पर मौन सहमति जताते हुए उद्धव की पार्टी ने उनके खिलाफ कोई कार्रवाई भी नहीं की।
परंतु विधानसभा चुनाव में उद्धव की यह गणित फेल हो गई।
अभयानंद शुक्ल
राजनीतिक विश्लेषक