श्राद्ध का पर्व प्रत्येक वर्ष आश्विन माह के कृष्ण पक्ष अर्थात प्रतिपदा से अमावस्या तक अर्थात पन्द्रह दिन मनाया जाता है। जिस किसी परिवार के किसी पूर्वज का देहावसान जिस तिथि में हुआ होता है, इस श्राद्ध अवधि के अर्न्तगत उसी तिथि पर उस पूर्वज की स्मृति में वह परिवार पूर्ण श्रद्धा से उस पूर्वज की अधोगति से मुक्ति हेतु धार्मिक आयोजन करता है।
शास्त्रों में मानव जीवन में होने वाले अनेकों संस्कारों का वर्णन किया गया है उन्हीं संस्कारों में मनुष्य के देहावसान के समय होने वाले ‘अंत्येष्टि संस्कार’ का भी वर्णन किया गया है। अंत्येष्टि संस्कार के अर्न्तगत दाह, दषगात्र अर्थात दसंवा और तेरहवीं आदि क्रियायें की जाती है। अंत्येष्टि संस्कार में ये की जाने वाली क्रियाओ के पीछे कई कारण होते है।
संसार में जीव की उत्पत्ति पुरूष तत्व रूपी चेतन तत्व (सूंक्ष्म ऊर्जा) एवं प्रकृति तत्व (भौतिक जगत की ऊर्जा) से मिलकर होती है। संसार में चेतन तत्व की संख्या तो असंख्य है परन्तु प्रकृति तत्व एक है। चेतन तत्व वैसे तो सुषुप्तावस्था में तब तक रहता है जब तक कि उसका संसर्ग प्रकृति से नहीं हो जाता। प्रकृति जो कि पंचतत्वों एवं तीन गुणों का स्वरूप है, प्रकृति अपने पंचतत्वों एवं तीन गुणों से सूंक्ष्म चेतन तत्व को अपनी ओर आकृष्ट करके चेतन तत्व के अनुरूप पंचतत्वों अर्थात पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश तत्वों उस चेतन के लिए देह निर्मित करती है और प्रकृति अपने तीन गुणों अर्थात सतोगुण, रजोगुण तथा तमोंगुण से चेतन तत्व को अपने प्रारब्ध के अनुसार जीवन संचालन का अवसर प्रदत्त करती है। चूंकि सूंक्ष्म चेतन अंश अपने साथ मन, बुद्वि, चित्त और अंहकार की ऊर्जा अंशों को लेकर ही जन्म लेता है और अन्तिम संमय में इन्हीं तत्वों को समेटकर वह अपने साथ ले जाता है।
चेतन तत्व का स्वभाव पवित्र तथा स्थिर तथा प्रकृति तत्व का स्वभाव चलायमान होता है इसको एक उदाहरण से समझा जा सकता है कि चेतन तत्व किसी भवन की नीव जैसे होता है क्योंकि नीव के स्वरूप में बदलाव संभव नहीं होता है परन्तु प्रकृति का तत्व उस भवन की दीवार एवं बाहरी साज-सज्जा से जैसा होता है क्योंकि भवन की दीवार और बाहरी साज-सज्जा में सदैव परिवर्तन की गुंजाइस होती है जिसमें आवश्यकतानुसार बदलाव करके किसी भवन को कोठी अथवा शॉपिग मॉल अथवा दुकान अथवा आश्रम अथवा पूजा स्थल आदि का स्वरूप दिया जा सकता है। यह सभी प्रकार के परिवर्तन प्रकृति अपने पंच तत्वों के विशिष्ट गुणों से करती है।
जब चेतन तत्व के पूर्व से तय कर्म समाप्त हो जाते है तो चेतन तत्व अपने साथ मन जो शरीर की 10 इन्द्रियों की संचालक ऊर्जा अंश है, बुद्वि जो कि इन्द्रियों के संचालन में ज्ञान और मार्गदर्शन रूपी ऊर्जा अंश है, चित्त जो कि जीव द्वारा किये गये कर्मो का लेखा जोखा संचित करने वाला ऊर्जा अंश है तथा अंहकार जो कि कर्ता रूपी ऊर्जा अंश है, को समेट कर प्रकृति के पंचतत्व रूपी देह का परित्याग कर देता है जिसे ही मनुष्य का देहावसान कहा जाता है। चूंकि पंचतत्व के सभी तत्वों पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश में गुणों में गुरूत्वाकर्षण की ऊर्जा शक्ति व्याप्त होती है इसी कारण प्रकृति तत्व से निर्मित देह से निकलने के बावजूद भी चेतन ऊर्जा अंष उस देह के आर्कषण के प्रभाव में रहती है अर्थात पंचतत्व रूपी देह के त्याग करने के पश्चात भी वह संूक्ष्म तत्व अपनी त्याग की हुई देह, अपने परिवारजन, स्थान एवं अपने जीवन की प्रिय वस्तुओं के आकर्षण के प्रभाव में उसी के समीप बना रहता है और कभी-कभी अत्यधिक मोह की विचलन की अवस्था में वह सूक्ष्म रूप से रहने के बावजूद वह प्रेम और विनाशक क्रिया को अंजाम भी देता है।
इन्हीं कारणों से जीव के देह और उससे संम्बन्धित वस्तुआंे की अंत्येष्टि अग्नि दाह के माध्यम से की जाती है इस अग्नि दाह क्रिया से देह के पंचतत्व स्वतः अपने-अपने तत्व में विलीन हो जाते है। अग्नि प्रवाह से अग्नि तत्व, धुयें से वायु तथा आकाश तत्व अपना अंश प्राप्त कर लेते है फिर बचती है राख जो कि मिटटी में परिवर्तित होकर पृथ्वी तत्व में समाहित हो जाती है तथा कपाल क्रिया और अस्थि विर्सजन से जल तत्व अपना अंश प्राप्त कर लेता है। देह का दाह होने के बावजूद सूंक्ष्म जीव लगभग 13 दिनों तक भूंखा प्यासा अपने मोह में अपने परिवारजन, घर तथा अपनी वस्तुओं के इर्द-गिर्द भ्रमण करता रहता है इसीलिए घर से दूर किसी वृक्ष में एक मिटटी की हांडी में जल भरकर टांगा जाता है तथा आत्मा के लिए वहीं भोजन इत्यादि भी दिया जाता है क्योंकि यह माना जाता है कि प्रतिदिन दिये जाने वाले तर्पण, पिण्डदान एवं वृक्ष पर टंगी हांड़ी से सूंक्ष्म जीव अपना भोजन एवं जल ग्रहण करता रहता है। फिर जिस प्रकार किसी जीवित व्यक्ति को अपने किसी सगे-सम्बधी की मृत्यु पर जो दुःख प्रथम दिवस होता है फिर वह प्राकृतिक गुणों के आधार पर धीरे-धीरे समय व्यतीत होने के साथ ही कम होने लगता है, ठीक इसी स्वभाव के तहत सूंक्ष्म चेतन अंश का दुःख एवं आकर्षण इन 13 दिनों में दिन प्रतिदिन कम होता चला जाता है तब फिर वह सूंक्ष्म जीव अगली यात्रा की ओर चला जाता है। इसी प्रकार जीव के घर परिवार वाले भी 13 दिन तक प्रतिदिन तर्पण, पिण्ड करके फिर दसवां एवं तेरहवीं संस्कार के माध्यम से अपने मन एवं घर की शुद्धि करने के पश्चात अपनी जीवन की अगली कर्म यात्रा प्रारम्भ करते है।
वैसे तो किसी न किसी रूप मे पूरे संसार मे श्राद्ध का पर्व मनाया जाता है। परन्तु भारतवर्ष में श्राद्ध के दिवस में अपने पूर्वजों को अपने संस्कारिक परिवेष में विशेष रूप से याद किया जाता है। चूंकि यहॉं यह भी मान्यता है कि इन श्राद्ध के 15 दिवसों में पूर्वज अपने सूंक्ष्म अंश के रूप में पृथ्वी पर भ्रमण कर वास करते है। इसलिए उसकी पुण्य तिथि के दिन उस पूर्वज जिसके लिए श्राद्ध का आयोजन किया जा रहा है, का मनपंसद भोजन बनाया जाता है तथा उसको पिंड़ तपर्ण एवं पूजा पाठ कर पंचमहाभूतों की शक्तियों के माध्यम से अर्थात पृथ्वी तत्व पर बैठकर, जल तत्व से तर्पण कर, आकाष, वायु और अग्नि तत्व के स्वरूप में धूपबत्ती, हवन पूजन, और दीप प्रज्जवलन आदि करके अपने पूर्वजों को श्रद्धाजंलि एवं शक्ति प्रदान करने का कार्य किया जाता है। इस श्रद्धापूर्वक की गयी प्रार्थना क्रिया से प्रसन्न होकर पूर्वजगण श्राद्धकर्ता और उसके परिवार को सुख-समृद्वि हेतु अपना आर्शीवाद प्रदान करते है।
इन बातों के अतिरिक्त इन श्राद्ध के 15 दिनों में श्राद्धकर्म करने के पीछे कई अन्य सामाजिक और आध्यात्मिक कारण भी है। चूंकि प्रकृति के निर्वाध रूप से संचालन के लिये संतुलन की आवश्यकता होती है। इसी सिद्धांत के अनुसार किसी एक जीव अथवा वस्तु किसी दूसरे जीव अथवा वस्तु की आवश्यकता का पूरक बनती है। उदाहरण स्वरूप में जैसे एक मनुष्य ऑक्सीजन ग्रहण करना है और कार्बनडाई ऑक्साइड प्रकृति में छोड़ता है और प्रकृति की अधिकांश बनस्पतियों और वृक्ष प्रकृति में ऑक्सीजन का प्रवाह करते है और कार्बनडाई ऑक्साइड को ग्रहण करते है। जरा सोंचे यदि प्रकृति के सभी जीव और बनस्पतियां केवल कार्बनडाई ऑक्साइड ही छोड़े तो प्रकृति में ऑक्सीजन की कमीं और कार्बनडाई ऑक्साइड की बढ़ोत्तरी हो जायेगी जिससे प्रकृति असंतुलित होगी और उसका विनाश होगा। यह तो महज एक उदाहरण है परन्तु इसी प्रकार से लेन-देन की प्रक्रिया आपस में जीव, जानवर, पक्षी, वृक्ष और वस्तु आदि के मध्य चलती रहती है। इसी से प्रकृति का संतुलन चलता रहता है।
चूंकि श्राद्ध में इन उपरोक्त पूजा-पाठ, तर्पण एवं पिड़ आदि की प्रक्रिया में एक दूसरे की रोजी-रोजगार तो चलता है। इसके अतिरिक्त इस प्रथा में भोजन के कई थाल निकाले जाने की प्रथा है, चूंकि गाय में सभी देवताओं को वास माना जाता है। इसलिए एक भोजन थाल गाय का, एक थाल पक्षियों खासकर कौवों को, एक थाल जानवर अर्थात कुत्ते को, एक थाल पूजनीय वृक्ष को अर्पित किया जाता है। साथ ही इस दिन अन्न, कपड़े और यथासंगत वस्तुओं का दान पुण्य किया जाता है। इसके अतिरिक्त अधिक से अधिक गरीब समाज एवं ब्रॉम्हणों को भोजन कराने की प्रथा है इन संस्कारी प्रथाओं से प्राकृतिक रूप से समाज के सभी प्राणियों की आवश्यकताओं की पूर्ति होती रहती है।
इन सबमें सबसे बड़ी अमॅूल्य है हमारे भारत की संस्कृति। भारतीय संस्कृति में आये दिन कोई न कोई व्रत और त्योहार मनाने की प्रथायें हमारे पूर्वजों ने बनायी उनका पालन करने से वर्तमान पीढ़ी के अंदर सहजता, शांति और जनकल्याण की भावना का वास उनके जीवन में निरंतर बना रहता है। जिससे यदि कहीं जाने अथवा अनजाने में उसके स्वतंत्र कर्म के दौरान कोई कष्टप्रद अथवा त्रुटिपूर्ण कार्य हो भी गया हो तो इन संस्कारों के निर्वहन से न कि उसको सकारात्मकता का बोध होता है। अपितु इन प्रथाओं से होने वाले जनकल्याण के कार्यो से उसके प्रारब्ध में अच्छे कर्मो की वृद्धि भी होती है। इस श्राद्ध कर्म के पर्व से तो इस पीढ़ी के संस्कारो में अपने से बड़ो, बुजुगों और पूर्वजों के प्रति सम्मान की भावना की सदैव वृद्धि होती रहती है। जिससे वे सदैव अपने से बड़ों और पूर्वजो के आर्शीवाद से अभिसिंचित रहते है।
एस.वी.सिंह प्रहरी