विखंडन की ओर बढ़ता पाकिस्तान

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आईएमएफ की टीम पाकिस्तान को बहुत कष्ट दे रही है. सैन्य व्यय घटाने के लिए भी दो टूक कह दिया है. एक डालर 275 रुपये के बराबर हो चुका है. खजाने में मात्र तीन बिलियन डालर हैं. उस दिन अल अरेबिया चैनल को दिये इंटरव्यू में उन्होंने माना था कि तीन तीन युद्ध लड़कर पाकिस्तान को सिवा गरीबी, बेरोजगारी के कुछ नहीं मिला है. वे प्रधानमंत्री मोदी से गंभीर बात करना चाहते हैं. फिर वे कुछ देर में पलटकर इमरान खान की तरह धारा 370 की बहाली का राग अलापने लगे. पाकिस्तान में आटे-दाल की लूट मची है. आईएमएफ की शर्तों के प्रभाव से पाकिस्तान में विद्युत गैस व पेट्रोलियम प्रोडक्ट्स की कीमतें बहुत बढ़ जाएंगी. भ्रष्टाचार पर जीवित नेतृत्व भला भ्रष्टाचार नियंत्रण का क्या प्रबंध करेगा ?
पाकिस्तान ने 1947 में तय किया कि उसका लक्ष्य हिंदू से मुक्ति मजहबी विस्तार और कश्मीर है.

हिंदुओं को प्रताड़ना, हत्या, अपहरण, बलात्कार, देश निकाले से गुजरना पड़ा और कश्मीर के लिए चार आक्रमण किये. तबलीगी गजवाए हिंद अभियान चल ही रहा है. वहां की हिंदू-समस्या निपट गयी, कश्मीर अभी रह गया है. राजौरी का नरसंहार प्रमाण हैं कि उनका कश्मीर एजेंडा बदस्तूर चल रहा है. हमारा लक्ष्य क्या था ? हमने आजादी के बाद इस पाकिस्तान समस्या के समाधान के लिये क्या किया है ? देश का विभाजन एक मजबूरी के तहत हुआ. अंग्रेजों के प्रस्थान के बाद भी कौन सी मजबूरी बनी रही ? कश्मीर युद्ध का उपयोग कर इस विभाजन को निष्प्रभावी करने का प्रयास तो हो सकता था. सरहदी गांधी खान अब्दुल गफ्फार खान ने पख्तूनों के लिए एक अलग विकल्प ‘पठानिस्तान बनाम पाकिस्तान’ पर रेफरेंडम की मांग की थी.

लेकिन माऊंटबेटन की भाषा बोल रहे प्रधानमंत्री नेहरू ने इसे स्वयं अस्वीकार कर किया. अलग फ्रंटियर राज्य पख्तूनिस्तान की आधारशिला बन सकता था. तब खान अब्दुल गफ्फार खान के भक्त मेहसूद, अफरीदी, वजीर, यूसुफजई कबीलों के लश्कर कश्मीर पर आक्रमण करने क्यों आते ? अफगानिस्तान व गफ्फार खान के पठानिस्तान तो भारत की सीमा को स्पर्श कर रहे मित्र देश होते. बलोचिस्तान तो पहले से ही एक आजाद देश था. 1अप्रैल 1948 को जब पाकिस्तान ने सेनाएं भेज कर बलोचिस्तान पर कब्जा किया तो हमें पूरी तरह से बलोचों का साथ देना चाहिए था.

उस दिनों तो पाकिस्तान से युद्ध चल भी रहा था. युद्ध की स्थिति थी, पूर्वी पाकिस्तान 1948 में पूरी तरह हमारे हाथ में था. यदि हम रणनैतिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो भारत के लिये बड़ी आसानी से 1947-48 में इस पाकिस्तान समस्या का समाधान करने का अवसर था. हमारी सेना पाकिस्तान से दो गुना बड़ी थी, विश्वयुद्ध के अनुभवी जनरल थे. लेकिन रणनीतियों में अहिंसा के प्रवेश ने हमें रणनैतिक विचारविहीन देश बना कर रख छोड़ा था.

अगर आजाद फ्रंटियर सीमांत राज्य, आजाद बलोचिस्तान, पाकमुक्त कश्मीर, पाकमुक्त बंगाल परिदृश्य पर आ गये होते तो अवशेष पाकिस्तान के पास अपना जेहादी एजेण्डा भूल कर भारत पर निर्भर सहयोगी देश बने रहने के अतिरिक्त कोई विकल्प ही न होता. लेकिन हम तो आदर्शवाद के लक्ष्यविहीन वायुयान के यात्री थे.

यह तो वह सपना है जिसे 1947 के दौर में देखने वाला ही कोई न था. नेहरू में जियोपालिटिक्स व राष्ट्रीय हितों की कोई समझ नहीं दिखी. वे तो स्वयं पाकिस्तान के तारनहार बने हुए थे. युद्ध के दौरान ही पाकिस्तान से प्रारंभिक जल समझौता हुआ. गफ्फार खान के पठानिस्तान व बलोचिस्तान के आजाद होते ही पाकिस्तान तत्समय अपने विरोधाभासों के बोझ से ही ध्वस्त हो जाता. लेकिन उन नेताओं ने समस्या का समाधान, राष्ट्रहित की रणनीति में नहीं, मजहबी तुष्टीकरण में देखा. इस तुष्टीकरण ने यहां एक सशक्त पाकिस्तान लाबी खड़ी कर दी. चार युद्ध हुए और प्रत्येक युद्ध एक अवसर था.

पाकिस्तान ने 22 अक्टूबर 1947 के दिन कश्मीर जेहाद का प्रथम लक्ष्य बना. अब यहां अपने नीतिगत विरोधाभासों से हमारा सामना होता है. गांधीवादियों के अनुसार, विश्व में हमारा कोई शत्रु नहीं था. सैनिकों की जरूरत नहीं थी, वे घर भेजे जा रहे थे. गांधीवाद का हथियार तो सत्याग्रह था. लेकिन इन गांधीवादी नीतियों के परिप्रेक्ष्य में भारतराष्ट्र की राजनैतिक अवधारणा ही स्पष्ट नहीं हो पा रही थी. सैन्यशक्ति विहीन भारतवर्ष का स्वरूप क्या होगा ? परिणामस्वरूप जो स्थान राष्ट्रीयशक्ति को मिलना था वह तुष्टीकरण की नीति को मिला.

यही तुष्टीकरण पाकिस्तान ही नहीं आगे चीन के प्रति नेहरू की नीतियों में भी प्रकट होता है. कश्मीर पर युद्धविराम नेहरू की इसी तुष्टीकरण की राज्य नीति का परिणाम था. जो कश्मीर पाकिस्तान के कब्जे में चला गया था, उसकी वापसी का कोई विचार भी नहीं था. पाकअधिकृत कश्मीर को सरेंडर करते हुए वे कश्मीर की युद्धविराम रेखा को ही अन्तर्राष्ट्रीय सीमा मान लेने का प्रस्ताव पाक राष्ट्रपति अय्यूब को 1960 में कराची में दे चुके थे. हां, अय्यूब ने तत्क्षण ही उसे खारिज कर दिया था. फिर सन् 1963 की छह चक्र की वार्ताओं में पाकअधिकृत कश्मीर के साथ 1500 वर्गमील का और इलाका देते हुए युद्भविराम रेखा को ही संशोधन के साथ अंतरराष्ट्रीय सीमा मान लेने का प्रस्ताव दिया गया था. तो यह नेहरू की कश्मीर नीति थी.

पाकिस्तान का भविष्य क्या है ? अंग्रेजों के बनाये अस्वाभाविक से देश के जोड़ खुल रहे हैं. जो यूगोस्लाविया, सोवियत रूस के साथ हुआ, जो प्रथम विश्वयुद्ध में ओटोमन साम्राज्य के साथ हुआ था, वही होगा. एक अध्ययन संस्थान एटलांटिक कौंसिल के एक सर्वे में अगले 10 वर्षों में पाकिस्तान के पतन का आकलन सामने आया है. जहां कल का ही ठिकाना न हो वहां 10 वर्ष की जिंदगी तो बहुत लम्बा समय है. आर्थिक व राजनैतिक संकट का परिणाम यह है कि कराची बंदरगाह पर सामानों से लदे सैकड़ों जहाज खड़े हैं. भुगतान हो तो सामान उतरे. अब अमेरिकी व चीनी दोनों कैम्पों को साधने की उसमें क्षमता नहीं बची है. यहां भारतीय परिदृश्य पर कोई पाकिस्तान का रक्षक नेतृत्व नहीं हैं. यह कालखण्ड पाकिस्तान समस्या के समाधान के लिए आदर्श अवसर लेकर आया है. इस विखंडन की धारा को अपनी जटाओं में शिव के समान धारण कर लेने वाला देश भारत के अलावा दूसरा कौन है ? सहयोगी देश मुख्यतः अमेरिका, भारत व अफगानिस्तान ही होंगे.

विभाजन के निर्णय के बाद खान अब्दुल गफ्फार खान ने गांधी जी से कहा था, ‘आपने तो हमें भेड़ियों की मांद में झोक दिया.’ फ्रंटियर राज्य और गफ्फार खान को बचाना दरअसल भारत को बचाना था, काश ! हमारा नेतृत्व तब ऐसा सोच पाता. वह भेड़िया अब मरने वाला है. भेड़िये के मरते ही भारत की आंतरिक साम्प्रदायिक समस्या भी एक किनारे आ जाएगी. मोदीजी गलती नहीं करेंगे, देश को विश्वास है.पाकिस्तान नाम की चादर हटते ही जाने पर जो चार देश सामने आएंगे, वे भविष्य में हमारे लिए बांग्लादेश, नेपाल व श्रीलंका जैसे सहयोगी देशों की भूमिका में होंगे.

कैप्टेन आर. विक्रम सिंह, पूर्वसैनिक पूर्वप्रशासक