खेती किसानी के सबसे बड़े साहूकार राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) के इतिहास में पहली बार रिकॉर्ड तोड़ एनपीए प्रावधान किए गए। आगे बैंक की शीर्ष प्रबंधन टीम के सामने और गंभीर चुनौतियां खड़ी हो रही हैं।
एनबीएफसी और माइक्रो फाइनेंस इंस्टीट्यूशंस (एमएफआई) पर पिछले साल से कहीं ज्यादा भारी पड़ने वाला है चालू वित्तीय वर्ष। भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर ने बीते दिन अचानक बुलाई गई प्रेस कॉन्फ्रेंस में आने वाले जोखिम भरे समय के बारे में स्वयं खुला बयान दिया। 2020-21 के नक्शे कदम पर चालू वित्तीय वर्ष 2021-22 भी कोविड का झंझावात खासकर वित्तीय और बैंकिंग उद्योग को उलटी दिशा में धकेलेगा।
नाबार्ड की 2020-21 और 2021-22 की बैलेंस शीट आने पर प्रबंधन टीम की कुलशता का परीक्षण भी खुद ब खुद हो जाएगा। बताते चलें कि एनबीएफसी, एमएफआई और आरआरबी में नाबार्ड का सर्वाधिक धन लगा है। नाबार्ड बोर्ड ने जब 2018-19 में एनपीए के लिए 215 करोड़ रु का प्रावधान किया था तो इसकी तरफ किसी का ध्यान नहीं गया। लेकिन अद्यतन उपलब्ध 2019-20 की बैलेंस शीट खुलासा करती है कि एनपीए प्रावधान में एक साल में 327 फीसद का ऐतिहासिक उछाल दर्ज किया गया।
जबकि 2020 मार्च तक तो कोविड का असर पड़ने की शुरुआत तक नहीं हुई थी, तब 704 करोड़ रु का प्रावधान एनपीए के लिए करना पड़ गया। कोविड काल 2020-21 की बैलेंस शीट आने दीजिए, वो शीर्ष प्रबंधन के लक्ष्य के अनुसार 7.5 लाख करोड़ रु की कद्दावर बैलेंस शीट भी हो जाएगी क्योंकि मौजूदा हालातों से निपटने के लिए एनबीएफसी एमएफआई और क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों (आरआरबी) प्राइमरी कोआपरेटिव एग्रीकल्चर ऐंड रूरल डेवलपमेंट बैंक (पीसीएआरडीबी), प्राइमरी एग्रीकल्चर क्रेडिट सोसायटीज़ (पीएसीएस) सहित अन्य ऐसी संस्थाओं को ऋण सहायता के अलावा पर्याप्त मात्रा में पुनर्वित्त उपलब्ध कराने के ऊपर के आदेशों के चलते बैंक प्रबंधन मुक्तहस्त मदद मुहैया कराएगा।
जैसा कि नाबार्ड चेयरमैन ने इसी मार्च में खुलासा किया था कि इससे वित्तपोषित आरआरबी में से 23 अर्थात पचास फीसद अच्छी स्थिति में हैं। बाकी बचे 21 आरआरबी को ‘इन फोकस’ श्रेणी में रखा गया है। नाबार्ड ने आरआरबी को 2017-18 में 11537 करोड़ रु, 2018-19 में 13862 करोड़ रु और 2019-20 में 10849 करोड़ रु की ऋण सहायता मुहैया कराई।
वर्ष 2019-20 की बैलेंस शीट से यह पता चला कि 2016-17 से बैंक के रिटर्न आॅन इक्विटी (आरओई) और रिटर्न आॅन एसेट्स (आरओए) दोनों में गिरावट आई, यह किसी संस्थान के कमजोर पड़ते वित्तीय प्रदर्शन का संकेतक होता है। नाबार्ड का आरओई 2016-17 में 9.08 फीसद से घटकर 2017-18 में 8.58 फीसद और आरओए का 0.82 फीसद से स्लिप होकर 0.80 फीसद रह जाना अच्छा नहीं है।
यह तो भारत सरकार की क्षमता और नीति है कि नाबार्ड को हर साल बड़ी मात्रा में शेयर पूंजी के रूप में खासा सपोर्ट मिलता है। 2017-18 से 2019-20 तक के तीन वर्षों में सरकार ने 7380 करोड़ रु बतौर शेयर पूंजी नाबार्ड में डाले। जिससे इसकी कुल चुकता पूंजी पिछले साल मार्च में 14080 करोड़ रु हो गई। साहूकारी में लगे अन्य सभी संस्थानों की तरह अधिक से अधिक सहायता मुहैया कराने के लिए ज़्यादा से और ज़्यादा वित्तीय संसाधन जुटाते रहने के व्यावसायिक उत्तरदायित्व के कारण नाबार्ड पर भी वित्तीय देयताओं के भारी बोझ का सहजअनुमान इसके सालाना ब्याज भार से लगाया जा सकता है।
ब्याज इसका माई-बाप है। ब्याज से प्राप्त होने वाली सालाना आय का 82-85 फीसद भाग अपने ऊपर लदे ऋण का ब्याज भरने में चला जाता है। 2016-17 में ब्याज आय 19153 करोड़ रु और ब्याज भुगतान 16268 करोड़ रु 2017-18 में 21354 करोड़ के सापेक्ष 17848 करोड़, 2018-19 में 26249 करोड़ के मुकाबले 22199 करोड़ रु और 2019-20 में 28745 करोड़ की तुलना में 23782 करोड़ रु ब्याज चुकाया गया।
प्रबंधन को 2019-20 में बैंक द्वारा म्युचुअल फंडों, काॅमर्शियल पेपर्स, ट्रेज़री बिलों और सर्टिफिकेट आॅफ डिपाॅज़िट में किए जाने वाले निवेश में सिलसिलेवार और जबरदस्त कटौती करनी पड़ी। 2018-19 के दौरान म्युचुअल फंडों में बैंक के 7587 करोड़ लगे थे 2020, मार्च के गुजरने तक 3519 करोड़ कर दिया गया।
काॅमर्शियल पेपर्स में 553 करोड़ रु से 277 करोड़ रु और यही सीडी में हुआ, 2019-20 में ट्रेज़री बिलों में निवेश शून्य रहा जबकि इसके पूर्व वर्ष में 664 करोड़ रु लगे थे। सकल निवेश का स्तर 5604 करोड़ रु कम करके 39610 करोड़ से 34006 करोड़ कर दिया। नाबार्ड एक बड़ा संस्थान है तो जिम्मेदारी भी उतनी ही बड़ी बनती है।
इसके मुखिया से कहीं ज्यादा बोर्ड आॅफ डायरेक्टर्स की जवाबदेही बनती है। बोर्ड में चेयरमैन के अतिरिक्त भारतीय रिज़र्व बैंक के एक डिप्टी गवर्नर, वित्त मंत्रालय, ग्रामीण विकास मंत्रालय और कृषि मंत्रालय के सीनयर एवं तज़ुर्बेदार आईएएस, और राज्यों के विभागीय अधिकारियों सहित कोई दस अधिकारियों को निदेशक पद पर नियुक्त करने की स्पष्ट वैधानिक और व्यावहारिक आवश्यकता ही आधार होती है।
दो डिप्टी एमडी और साथ ही चार दर्जन से अधिक चीफ़ जनरल मैनेजर्स और मातहत कर्मियों की जिनकी हैंडसम सैलरी और एलाउंसेज़ पर (इसमें पीएफ आदि शामिल नहीं है) नाबार्ड सालाना हजार करोड़ रुपए से ज्यादा खर्च उठाता है। उत्पादकता से सम्बद्ध करते हुए इनकी सामूहिक जवाबदेही का भी वार्षिक आॅडिट करने और आॅडिट रिपोर्ट के आधार पर वेतन भत्तों में वृद्धि-कटौती का नियम लागू करने की दरकार है।
जानकारों का तो यह कहना है कि रिज़र्व बैंक और वित्त मंत्रालय को नाबार्ड के भारी भरकम कद, विस्तारित वित्तीय क्रियाकलापों और चौतरफा लदी जिम्मेदारियों के बोझ को हलका करने के उपायों पर विचार करने की जरूरत है।
प्रणतेश नारायण बाजपेयी