जानिए आखिर क्यों होती है मां शैलपुत्री की प्रथम पूजा… मां दुर्गा के नौ रुपों में पहला रुप है शैलपुत्री का। नवरात्र के पहले दिन घट स्थापना के साथ देवी के इसी रुप की पूजा की जाती है। मां का यह रुप सौम्य और भक्तों को प्रसन्नता देने वाला है।
ऐसी मान्यता है कि देवी पार्वती पूर्व जन्म में दक्ष प्रजापति की पुत्री सती थी। दक्ष के यज्ञ कुंड में जलकर देवी सती ने जब अपने प्राण त्याग दिए तब महादेव से पुनः मिलन के लिए उन्होंने पर्वतराज हिमालय की पुत्री के रुप में जन्म लिया। पर्वतराज हिमालय की पुत्री होने के कारण ये हेमवती और उमा नाम से जानी जाती हैं। पर्वत को शैल भी कहा जाता है इसलिए माता का प्रथम रुप शैलपुत्री के नाम से जाना जाता है।
मान्यता है कि देवी पार्वती ने अपने पूर्वजन्म के पति भगवान शिव को पुनः पाने के लिए वर्षों कठोर तप किया। इनके तप से प्रसन्न होकर महादेव ने पार्वती को पत्नी रुप में स्वीकार कर लिया। विवाह के पश्चात देवी पार्वती अपने पति भगवान शिव के साथ कैलाश पर्वत पर चली गईं। इसके बाद मां पार्वती हर साल नवरात्र के नौ दिनों में पृथ्वी पर माता-पिता से मिलने अपने मायके आने लगीं। संपूर्ण पृथ्वी माता को मायका माना जाता है।
नवरात्र के पहले दिन पर्वतराज अपनी पुत्री का स्वागत करके उनकी पूजा करते थे इसलिए नवरात्र के पहले दिन मां के शैलपुत्री रुप की पूजा की जाती है। भगवती का वाहन बैल है। इनके दाहिने हाथ में त्रिशूल और बाएं हाथ में कमल का फूल है। साथ ही इन्हें समस्त वन्य जीव-जंतुओं की रक्षक माना जाता है। दुर्गम स्थलों पर स्थित बस्तियों में सबसे पहले शैलपुत्री के मंदिर की स्थापना इसीलिए की जाती है कि वह स्थान सुरक्षित रह सके।