भारतीय दवा उद्योग के बढ़ने का मौका, कठिन चुनौती भी

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भारत जेनरिक दवाओं का विश्व में सबसे बड़ा निर्यातक

भारतीय दवा उद्योग ने बीते समय में अल्पकालिक फायदे के फेर में जो गलतियां कर डालीं, वे ही अब भारी पड़ रही हैं। औषधि के उत्पादन में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका वाले क्रियाशील औषधीय संघटक अर्थात सक्रिय दवा सामग्री (ऐक्टिव फार्मास्युटिकल इंग्रीडिएंट्स) की आपूर्ति के लिए भारतीय दवा उद्योग पिछले तीन दशकों में चीन पर जरूरत से ज्यादा आश्रित हो गया।

अब जब आगे बढ़ने के भरपूर नए अवसर सामने खड़े हुए हैं तो एपीआई की कमी आड़े आ रही ‌है। ऐसे में जो विकल्प हैं भी उन्हें अपनाने-अपनाते तरक्की का मौक़ा हाथ से निकलने की प्रबल आशंका है। दवा बनाने में एपीआई, मध्यग (इंटरमीडिएट्स) और रासायनिक यौगिकों (केमिकल कंपाउंड्स) का उपयोग किया जाता है।

देश में आर्थिक नीतियों के उदारीकरण के पहले 1991 तक भारतीय दवा उद्योग एपीआई का उत्पादन काफी मात्रा में खुद करता था और अपनी कुल खपत का मात्र 0.30 फीसद चीन से आयात करता था। चीन ने दो कार्यों पर फोकस किया जिनकी भरपूर अनदेखी भारतीय कंपनियों ने की। चीन ने शोध-अनुसंधान पर पूंजी, उन्नत तकनीक और निपुण मानवबल को पूरी तरह से झोंक दिया, और उसी का दोहन‌ कर रहा है।

भारतीय दवा उद्योग चीनी एपीआई का आयात बढ़ाने के साथ-साथ खुद का उत्पादन कम करना शुरू कर दिया क्योंकि आयातित माल सस्ता पड़ता था। यह सिलसिला बदस्तूर ज़ारी है। परिणाम यह हुआ कि 2019 में भारत ने अपनी 68 फीसद से भी ज्यादा जरूरत चीन से आयातित मात्रा से पूरी की।

भारतीय दवा उद्योग ने 2019 में एपीआई, इंटरमीडिएट्स आदि का कुल मिलाकर 24900 करोड़ रूपए का आयात किया, इसमें 16900 करोड़ रूपए की हिस्सेदारी चीन की रही। चीनी निर्यातक कंपनियां समय-समय पर मूल्य वृद्धि करके भारतीय मजबूरी का फायदा उठाने में भी माहिर हैं। बाकी आयात अमेरिका, इटली सहित करीब दस देशों से किया जाता है।

भारतीय दवा उद्योग में 300 से भी अधिक एपीआई इस्तेमाल में आते हैं। ऐंटीबाॅयटिक, विटामिन सी, विटामिन बी, विटामिन बी 1, विटामिन बी 2, विटामिन बी 6, इंसुलिन, इबुप्रोफेन, रैनिटाइडिन सहित सैकड़ों दवाओं की उत्पादन सामग्री के खातिर पड़ोसी देश की बैसाखी पर चल रहे भारतीय दवा उद्योग के समक्ष कोई भी तात्कालिक, लागतक्षम व सुगम विकल्प उपलब्ध नहीं है।

एपीआई का उत्पादन फटाफट बढ़ाने का कोई उपाय नहीं है। चीन एपीआई के वैश्विक उत्पादन में शीर्ष पर है, इसकी एपीआई की वार्षिक उत्पादन क्षमता 21 लाख टन से अधिक है। इसके वैश्विक उत्पादन में 68 फीसद हिस्सेदारी चीन की है। केंद्र सरकार ने एपीआई उत्पादन बढ़ाने के लिए पिछले सप्ताह उत्पादन-बद्ध-प्रोत्साहन (पीआईएल) योजना के तहत 5082.65 करोड़ रूपए का निवेश स्वीकृत किया है। पर इससे एपीआई का उत्पादन फटाफट बढ़ा पाना संभव नहीं है।

दवाओं के निर्यात में वृद्धि के प्रचुर अवसर उपलब्ध हैं। क्योंकि वर्ष 2024 तक विश्व में बड़ी संख्या में ब्रांडेड दवाओं की पेटेंट अवधि समाप्त होने वाली है, इन दवाओं की वैश्विक बिक्री सालाना 18 लाख करोड़ रुपए से अधिक है। ऐसे में भारत के जेनरिक दवा निर्यात में जबर्दस्त बढ़ोतरी हासिल की जा सकती है। जिन दवाओं के पेटेंट की अवधि समाप्त होने पर उनके उत्पादन में इस्तेमाल होने वाले रसायनों से ही निर्मित दवाओं को ‘जेनरिक’ कहा जाता है। जेनरिक दवाओं की कीमत सस्ती होती है।

ब्रांडेड दवाओं के पेटेंट की अवधि भिन्न देशों में अलग-अलग है। अमेरिका और यूरोपीय संघ देशों में पेटेंट अवधि अमूमन पांच वर्ष और अन्य तमाम देशों में बीस वर्ष तक है। भारत जेनरिक दवाओं का विश्व में सबसे बड़ा निर्यातक देश है। जेनरिक दवाओं के समग्र वैश्विक उत्पादन में भारत की हिस्सेदारी 21-22 फीसद के स्तर पर है, यदि एपीआई की पर्याप्त मात्रा उपलब्ध होती रहे तो आने वाले तीन- चार सालों में इनका उत्पादन बढ़ाकर निर्यात में जबर्दस्त इज़ाफ़ा किया जा सकता है।

फार्मास्युटिकल इक्सपोर्ट प्रमोशन कौंसिल ऑफ इंडिया से जुटाई गई ‌जानकारी के अनुसार देश से दवाओं का निर्यात 2019-20 में 2058 करोड़ डाॅलर की तुलना में 18.07 फीसद बढ़कर वित्तीय वर्ष 2020-21 में 2440 करोड़ डाॅलर पहुंच गया। कौंसिल ने 2025 तक भारतीय दवा उद्योग का वार्षिक आकार 10000 करोड़ डाॅलर के स्तर पर पहुंचने का अनुमान लगाया है।

भारतीय दवा उद्योग में छोटी बड़ी मिला कर तीन हजार कंपनियां और दस हजार से ज्यादा उत्पादन इकाईयां लगी हुई हैं। लेकिन एफडीआई सीमा 74-100 फीसद तक करने के बावजूद वांछित परिणाम प्राप्त नहीं हो रहे हैं। इस मामले में चीन बहुत आगे निकल गया। ‍दीर्घ कालिक और स्थायी नीतियों के साथ ही निपुण मानवबल की पर्याप्त उपलब्धता के कारण ही भारत की तुलना में चीन में विश्व स्तर की दवा कंपनियों ने काफ़ी ज़्यादा पूंजी निवेश किया है।

प्रणतेश नारायण बाजपेयी