बॉलीवुड में चमके लखनऊ के फनकार
जब कभी क्लासिक फिल्मों में कोरियोग्राफी की बात आयेगी तो लखनऊ के पंडित बिरजू महाराज का नाम बहुत ही सम्मान के साथ लिया जाएगा। कम लोग जानते होंगे कि उन्होंने सत्यजीत रे की लखनऊ की पृष्ठभूमि पर बनी पीरियड व क्लासिक फिल्म ‘शतरंज के खिलाड़ी” में दो गीत गाये और कोरियोग्राफी की।
फिल्म ‘देवदास” के गीत ‘काहे छेड़े मोहे” की कोरियोग्राफी कर खूब प्रशंसा व सम्मान बटोरा। फिल्म ‘डेढ़ इश्कियां”, ‘उमराव जान” व संजय लीला बंसाली की फिल्म ‘बाजीराव मस्तानी” के गीत ‘मोहे रंग दे लाल” का नृत्य निर्देशन भला कौन भुला पायेगा। 1986 में पद्म विभूषण सम्मान, संगीत नाटक अकादमी अवार्ड, कालीदास सम्मान, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय व खैरागढ़ विश्वविद्यालय द्वारा डाक्टरेट की मानद उपाधि, सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड, एसएनए अवार्ड, संगम कला अवार्ड, 2002 में लता मंगेश्कर पुरस्कार, 2012 में कमल हासन की फिल्म ‘विश्वरूपम” में नेशनल फिल्म अवार्ड फार बेस्ट कोरियोग्राफी, 2015 में वाजिद अली शाह अवार्ड, 2016 में फिल्म ‘बाजीराव मस्तानी” के गीत मोहे रंग दे लाल की कोरियोग्राफी के लिए फिल्मफेयर अवार्ड ये साबित करते हैं कि उनकी टक्कर का कोई भी कोरियोग्राफर इंडस्ट्री में फिलहाल नहीं है।
आइये पंडित जी के लखनऊ कनेक्शन के बारे में भी झांकते चलें। ब्रिजमोहन नाथ मिश्रा उर्फ पंडित बिरजू महाराज संगीतज्ञ, गायक, कवि, कम्पोजर, शिक्षक, निर्देशक, कोरियोग्राफर, वक्ता का जन्म 4 फरवरी 1938 को लखनऊ में हुआ। पिता जगन्नाथ महाराज उर्फ अच्छन महाराज व मां श्रीदेई मिश्रा का प्यार व दुलार मिला। परदादाजी महाराजा ठाकुर प्रसाद अवध के अंतिम नवाब के कथक गुरु रहे। दादाजी बिन्दादीन महाराज व उनके भाई महाराज कालका प्रसाद वाजिद अली शाह के दरबार में कथक नृर्तक थे। बिन्दादीन महाराज के सानिध्य में कला की शिक्षा व हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत, गायन, कथक, डांस ड्रामा, ठुमरी, दादरा, भजन, गजल आदि में महारत हासिल की। चाचाजी श्री शम्भू महाराज व बैजनाथ मिश्रा उर्फ लच्छूजी महाराज का भी प्यार व आशीर्वाद मिला।
पिता अच्छन महाराज, चाचा शम्मू महाराज व लच्छू महाराज से कथक की तालीम हासिल की। पिताजी नवाब रामपुर के दरबार में राज्य नृतक थे। बिरजू महाराज कभी लखनऊ व कभी रामपुर अपनी मां के साथ आते-जाते रहते। सात साल के थे तो रामपुर दरबार में नवाब रजा अली के समक्ष पहली बार अपनी कला का प्रदर्शन किया। फिर नौ साल की उम्र में 20 मई 1947 को पिता का देहान्त हो गया। वे काफी कठिन दिन थे। परिवार सहित कानपुर चले गये। वहां उनकी बहन ब्याही थीं। बीच में आठ माह के लिए चाचा लच्छू महाराज के पास बम्बई भी गये। चाचाजी वहां फिल्मों में कोरियोग्राफर थे। फिर कपिला दीदी अपने साथ दिल्ली ले आयीं। चाचा शम्भू महाराज के पास दिल्ली में भारतीय कला केन्द्र से जुड़ गये। तेरह साल की कम उम्र में उन्होंने नयी दिल्ली के संगीत भारती में कथक की शिक्षा देना शुरू किया। फिर भारतीय कला केन्द्र में कथक शिक्षक की भूमिका निभायी। संगीत नाटक अकादमी की एक शाखा कथक केन्द्र का कार्य भार सम्भाला। 1998 में निर्देशक के पद से अवकाश प्राप्त किया। इसी साल कलाश्रम के नाम से अपना स्कूल खोला और लखनऊ कथक घराने की परम्परा को आगे बढ़ा रहे हैं। आज उनकी पहचान डांस ड्रामा गोवर्धन लीला, माखन चोरी, मालती माधव, कुमार सम्भव व फाग बहार में सर्वविदित है। पत्नी श्रीमती अन्नपूर्णा देवी (स्वर्गीय), दो बेटे दीपक महाराज, जय किशन महाराज व बेटी ममता महाराज सभी कथक के नामचीन डांसर हैं। पौत्र त्रिभुवन महाराज व पौत्री रागिनी महाराज हैं। लगभग सभी देशों में जाकर एक हजार से ज्यादा स्टेज परफार्मेंस, सैकड़ों वर्कशप कीं।
सवाल जवाब सेशन : फिल्मों में हमेशा कथक को कोठे पर ही क्यों दिखाते हैं? इस सवाल पर पंडित जी बोले, हमारी फिल्मों में जब कभी कोठे पर डांस की सिच्वेशन आती है तो तत्काल कथक को ही प्रिफरेंस दी जाती है। इसका कारण यह है कि जब अंग्रेज भारत आये तो कथक मंदिरों से निकलकर नवाबों और बादशाह के दरबार की जीनत बन गया। वे ही कथक के पोषक और संरक्षक के रूप में आगे आये। हमारे दादा-परदादा ने तो लखनऊ के अंतिम नवाब के न सिर्फ कथक की तालीम दी बल्कि वे उनके दरबार में एक खास मुकाम रखते थे। उन्होंने ही हमारे दादाजी बिन्दादीन महाराज जी को घर भी मुहैया कराया हुआ था। बिन्दादीन की ड्योढ़ी ने आज स्मारक का रूप ले लिया है। कथक को जिन्दा रखने के लिए उच्च कोटि की तवायफों व भांडों को भी यह कला सिखायी जाती थी। हां, तो आपका सवाल था कि फिल्मों में तवायफ के कोठे पर कथक को ही क्यों दिखाया जाता है। इसकी पहली वजह तो यह है कि इसमें विस्तार, अभिनय, भाव, तेजी, ताल, ठुमरी, संगीत और अदा का अद्भुत समावेश है। जो ठुमरी के साथ एक चमत्कारी भाव उत्पन्न करता है। चूंकि उच्च श्रेणी की तवायफों को यह कला बखूबी आती थी और यह परम्परा सी बन गयी और कथक कोठे पर खूब फला-फूला।
आप कथक के उच्च कोटि के परफार्मर हैं उसके बाद भी चंद फिल्मों में ही आपने कोरियोग्राफी की है, इसका क्या कारण है? मेरे पूछे जाने पर उनका जवाब था, ‘मेरी कुछ शर्तें हैं जिनके पालन के बिना मैं कोरियोग्राफी नहीं करता। सबसे पहली बात है ड्रेस। अगर कास्टयूम वर्गल हुआ तो मैं तुरन्त मना कर देता हूं। फिल्म में क्लासिक टच होना भी जरूरी है। गीत के बोल भी शास्त्रीय होने चाहिए। द्विअर्थी बोलों से मैं परहेज करता हूं। नृत्यांगना को भी डांस में निपुण होना चाहिए। ये सारी शर्तें हमारे मित्र संजय लीला भंसाली पूरा करते हैं तो मैंने उनके साथ दो फिल्मों में कोरियोग्राफी की है। ऐसा नहीं है कि हमारे खानदान को फिल्मों से कोई परहेज था। मेरे चाचाजी शम्भू महाराज जी ने कई फिल्मों में कोरियोग्राफी की जिसमें फिल्म ‘मुगले आजम” और ‘पाकीजा” प्रमुख हैं।
लखनऊ के कलाकार आपकी तरफ मुंह उठाये देख रहे हैं क्या उनकी मनोकामना पूरी होगी? इस पंडित जी ने कहा, उम्र के अंतिम पड़ाव में हर कोई अपनी मिट्टी की ओर लौटना चाहता है। मेरी भी इच्छा है कि मैं अपना ज्यादा से ज्यादा समय लखनऊ को दूं। यहां पर लखनऊ घराने की कथक परम्परा की नयी पौध तैयार करूं। कुछ ऐसी योजना बना रहा हूं कि मैं तो लखनऊ में रहूं ही साथ ही मेरे कथक निपुण बेटा दीपक भी वहां कार्यशालाओं को आयोजित करे। मेरी इच्छा है मेरे जन्मभूमि लखनऊ या आसपास कोई डेढ़ एकड़ की जमीन सरकार हमें दे तो हम वहां प्रकृति की गोद में जिसमें कुएं, गोशाला हो, झोपड़ी, ओपन एयर स्टेज, गुरु शिष्य परम्परा जैसा आवासीय कलाश्रम बने, जहां रहकर विद्यार्थी कथक की बारिकियों के साथ कला की अन्य विधाओं जैसे चित्रकला, गायन, वादन व अन्य शास्त्रीय नृत्य सीखें। देखिए प्रदेश सरकार मेरी यह इच्छा कब पूरी करती है।
आज आप जिस मुकाम पर हैं उसका श्रेय आप किसको देना चाहेंगे? इस सवाल पर उनका कहना था कि नि:संदेह अपनी मां को दूंगा। पिता जी के गुजर जाने के बाद हमारे परिवार पर संकट के बादल छा गये। हम लखनऊ से कानपुर चले गये। मैं चार साल लखनऊ कानपुर के बीच रहा। बाद में कपिला दीदी हमें दिल्ली ले गयीं। वहां भी मेरा स्ट्रगल जारी रहा। दो साल तक साइकिल पर चला। फिर तीन और पांच नम्बर की बस से धक्के खाता हुआ आता-जाता। जिन्दगी में बहुत उतार-चढ़ाव देखे।
# प्रेमेन्द्र श्रीवास्तव