भक्त, भक्ति और दुःख

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आस्तिक और नास्तिक दो प्रवृत्तियों के लोग संसार में होते है तथा उन सभी के जीवन में सुख एवं दुःख का आगमन और गमन चलता रहता है किन्तु आस्तिक प्रवृत्ति वाले व्यक्तियों का जीवन अपने आराध्य की भक्ति भाव एवं उन पर विश्वास के साथ चलता है तथा नास्तिक व्यक्ति को अनन्त शक्ति का बोध ही नहीं होता है। जब तक जीवन में सुख का भाव रहता है तब तक दोनों की स्थितियाँ अपनी प्रवृत्तियों के अनुरूप ही चलती है परन्तु जब जीवन में दुःख का आगमन होता है तो उन दोनों प्रकार के लागों की मानसिकता में बदलाव होता है, अर्थात् कुछ नास्तिक व्यक्तियों का झुकाव उस अदृश्य शक्ति की मान्यता के प्रति तेजी से बढ़ता है तथा आस्तिक विचारधारा से परिपूर्ण अनन्य भक्ति करने वाले कुछ लोग जिनको प्रारब्ध, कर्मचक्र और भक्ति का गूढ़ ज्ञान होता है, वह अपने आराध्य पर ही सभी परिणामों को छोड़कर दुःखों का डटकर मुकाबला करते हैं लेकिन आस्तिक विचारधारा वाले कुछ ऐसे लोग जिनका ज्ञान एवं भक्ति अपने आराध्य के प्रति बहुत कमजोर होती है वह दुःख के समय शीघ्र डगमगा कर यह सोचते है जब दुःख का आलिंगन करना ही है तो फिर आराध्य की भक्ति का क्या तात्पर्य होता है।

आध्यात्मिक रूप से इस विषय को ऐसे समझना होगा कि जो कर्म हम करते है तो उसके परिणाम का उत्तरदायी कोई दूसरा कैसे हो सकता है। यदि कहीं कोई कमी है तो वह हमारे आध्यात्मिक ज्ञान की। इसके लिए कर्मचक्र और भक्ति को ठीक से समझ लिया जाय तो जीवन बहुत सरल हो सकता है। मनुष्य जीवन के कर्मो में अनुमानतः 70 से 75 प्रतिशत तक प्रारब्ध कर्म तथा 25 से 30 प्रतिशत तक स्वतंत्र कर्म करने के अवसर प्राप्त होते है। प्रारब्ध कर्म वह होते है जो हमारे वर्तमान जन्म तथा पूर्व के कई जन्मों के संग्रहित कर्मो के परिणाम के रूप में इस जन्म में सुख अथवा दुःख के रूप में प्रत्यक्ष होते है तथा स्वतंत्र कर्म वह होते हैं जिसे हम इस जन्म में अपनी इच्छाओं के वशीभूत होकर करते है।

स्वतंत्र कर्मो में जो कर्म आत्मा की आवाज के आधार पर सात्विक विचारधारा से किये जाते है उनका परिणाम इसी जन्म अथवा अगले जन्म में सुख रूपी प्रारब्ध के रूप में प्रत्यक्ष होते है परन्तु यदि आत्मा की आवाज को दरकिनार कर केवल इन्द्रियों की इच्छा पूर्ति से हिंसा और लालच की प्रवृत्तियों से कर्मो को अंजाम दिया गया तो ऐसे स्वंतत्र कर्म इसी जन्म अथवा अगले जन्म मे दुःखद प्रारब्ध के रूप में प्रत्यक्ष होते हैं।

एक मूल प्रश्न अधिकांशतः सुनने को मिलता है कि किसी आराध्य की भक्ति करने के बावजूद दुःख अधिक क्यों परिलक्षित होता है अथवा दुःख का भोग क्यों करना पड़ता है, इसको समझने के लिए पहले भक्ति और भक्त क्या है इसको समझना होगा। वेदों में भक्ति करने के माध्यमों का वर्णन इस प्रकार किय गया है:-

श्रवणं कीर्तनं विष्णोः समरणं पादसेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्।।

अर्थात् श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, संख्य और आत्मनिवेदन ये 9 प्रकार से भक्ति करने केे माध्यम है। यह अपने आराध्य की भक्ति करने के माध्यम हो सकते है परन्तु यह भक्ति नही है श्रीमद्भगवद् गीता में चार प्रकार के भक्तों का वर्णन है:-
चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोंर्जुन।
आर्तो जिज्ञासुुरर्थाथी ज्ञानी च भरतर्षभ।।

अर्थात् आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी नामक चार प्रकार के भक्त होते है जिसमें प्रथम श्रेणी का भक्त वह होता है जो ज्ञानी है।

आर्त नामक श्रेणी में वे भक्त आते है जो शरीर में कष्ट आने, वैभव नष्ट होने से उत्पन्न होने वाले दुःख का निवारण करने के लिए भगवान को पुकारता है, यही भक्त अधिक दुःखी रहकर भगवान को दोषारोपित करता है और कहता है कि उसने अपने आराध्य की इतनी पूजा और सेवा की परन्तु फिर भी मुझे इतना दुःख, जबकि उसकी इस प्रकार की स्थिति व्यक्ति के पूर्व कर्मो के प्रारब्ध से ही उत्पन्न होती है।

जिज्ञासु नामक श्रेणी के भक्त अपने शरीर के पोषण हेतु नहीं वरन् संसार को अनित्य जानकर ईश्वरीय तत्व को जानने और उसको पाने के लिए भक्ति भजन करते हैं, यहां भी जिज्ञासा का अर्थ भगवान से कुछ पाने की ही लालसा है।

अर्थार्थी नामक श्रेणी के भक्त जो सुख और ऐश्वर्यता के लिए भगवान की भक्ति करता है इसको सकाम भक्ति कहते है।
ज्ञानी नामक श्रेणी के भक्त ही केवल ऐसे भक्त होते हैं जिनकी भक्ति सदैव निष्काम होती है ज्ञानी भक्त अपने आराध्य का छोड़कर और कुछ नहीं चाहता है इसीलिए भगवान ने ज्ञानी को ही अपनी आत्मा कहा है। ये भक्त ही केवल शुद्ध भक्त की श्रेणी में आते हैं ऐसे भक्त के योगक्षेम का वहन भगवान स्वयं करते है।

ईश्वरीय अंश प्रकृति के कण-कण में व्याप्त है अर्थात् हमारा सृजनकर्ता संचालनकर्ता ईश्वरीय ऊर्जा अंश है इसलिए आध्यात्मिक रूप से भक्त और भक्ति को इस रूप में समझे कि
व्यक्ति का शरीर और शारीरिक इन्द्रियां एक चंचल भक्त है और हमारी चेतना और आत्मा ईश्वरीय अंश है।
मनुष्य अपने शरीर तथा उसकी इन्द्रिंयों को वश में रखकर यदि बाहरी मोह और लोभ की चंचलता से अपना ध्यान हटाकर अन्दर के आत्मा और चेतना से मोह एवं लोभ पैदा करें तो वह भक्त ही ज्ञानी की श्रेणी में शीघ्र आ जाता है। ऐसे मनुष्य के पास जब सुख आयेगा तो उसमें लालच और अंहकार की उत्पत्ति नहीं होती है और उस सुख को भी जनकल्याण में अपिॅत करने का प्रयास करता है तथा जब उसके जीवन में दुःख का प्रारब्ध आता है तो भी वह अपने आराध्य के प्रति श्रद्वा और विश्वास से समर्पित होकर अपनी भक्ति में लीन रहता है तथा दुःखों का समय भी आसानी से निकल जाता है।

भगवान श्रीकृष्ण जी अर्जुन से कहते हैं कि जो अनन्य भाव से मेरा चिंतन करते हुए मेरी उपासना करते है उनका योगक्षेम मैं वहन करता हूँ। यहाँ योगक्षेम शब्द का अर्थ अप्राप्त वस्तु को प्राप्त करना, योग तथा प्राप्त वस्तु का रक्षण करना क्षेम होता है। मनुष्य जीवन की भागदौड़ अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति के लिए होती रहती है और उसके रक्षण की चिंता उसे सदैव रहती है। जिस प्रकार एक छोटा बालक अपनी सभी जरूरतों रोटी, कपड़ा और मकान की आवश्यकता को अपनी माता पर आश्रित होकर निश्चिंत रहता है और माता उसकी समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति का दायित्व स्वयं अपने ऊपर ले लेती है उसी प्रकार भगवान कहते है कि जो हमारी अनन्य भक्ति करता है ऐसे भक्त की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति तथा उसकी रक्षा का भार भगवान स्वयं अपने कंधों पर ले लेते है।

जब हम अनन्य भक्त बन जाते है तो फिर हम यह नहीं कह सकेंगें कि इतनी सारी पूजा पाठ करके भी हम दुःखी क्यों? कई बार भगवान की अपने भक्त पर विशेष कृपा होने से भगवान यह प्रयास करते है कि हमारा भक्त अपने पूर्व प्रारब्ध का फल इसी जन्म में भोग कर ले ताकि उसको मुक्ति मिल सके चूंकि प्रारब्ध का निस्तारण तो कर्म से ही होना है तो अधिक कर्म करना पड़ सकता है, दुःख जल्दी-जल्दी आ सकते है अधिक पूजा-पाठ करना पड़ सकता है। कभी कभी भगवान के आर्शीवाद से ही कर्मजीवन में ये सभी स्थितियां उत्पन्न होती है इसलिए जीवन में अपने आराध्य के प्रति पूर्ण समर्पण के साथ भक्ति करें, अपने आराध्य के प्रति अपनी दृढ़ता बनाये रखें, तो पायेगें कि आसानी से कष्टों का समय पूरा हो गया। इस बात को ठीक प्रकार से एक कहानी के माध्यम से समझा जा सकता है।

एक नगर में ईश्वर का अनन्य भक्त रहता था तथा उस भक्त पर ईश्वरीय कृपा अपार थी अर्थात् अत्यंत वह सुख पूर्वक जीवन यापन करता रहा परन्तु कुछ समय पश्चात् जब उसके जीवन में दुःख का आगमन हुआ तो कष्टों के चलते उसको अपने आराध्य पर अविश्वास हो गया और वह ईश्वर के विरूद्व ही प्रलाप करने लगा। अन्ततः एक दिन उसके आराध्य उसके सपने में आये और बोले ‘‘हे वत्स तुम दुःखी क्यों हो? जीवन में सभी को अपने कर्मो का फल भोगना ही पड़ता है, जब सुख तुमने आनन्द से व्यतीत किया तो दुःख का समय भी धैर्य से व्यतीत करो।’’ ऐसे में भक्त ने कहा ‘‘हे आराध्य यदि आप मेरे साथ होते तो मुझे कष्ट आते ही नहीं, मैने तो आराधना में पूरा जीवन लगा दिया और जब आज मुझ पर कष्टों का पहाड़ टूट पड़ा तो आपने मेरा साथ नहीं दिया तो आराध्य ने कहा कि आओं वत्स मै तुम्हारी भक्ति के पहले दिन से तुम्हारी यात्रा का दर्शन कराता हूँ। सबसे पहले सुखी जीवन का अध्याय खुला और भक्त ने देखा कि वह ईश्वर का हाथ पकड़कर आराम से समुद्र किनारे टहल रहा है और दोनों के पैरों के निशान रेत पर साथ साथ बनते जा रहे है, इसके बाद दुःख के अध्याय का आरम्भ हुआ तो भक्त हैरान रह गया क्योंकि अब रेत पर केवल दो पदचिन्ह ही बन रहे थे इतने में ही भक्त आवेश में चिल्ला पड़ा कि देखा आराध्य! आपने मेरा साथ छोड़ दिया इस बात पर आराध्य हंसते हुए बोले कि हे वत्स ध्यानपूर्वक पदचिन्हों को देखो, जिन पदचिन्ह को तुम अपना समझ रहे हो वह वास्तव में तुम्हारे नहीं बल्कि मेरे पदचिन्ह हैं। आराध्य ने कहा ‘‘हे वत्स जिस दिन से तुम पर कष्ट आया मैं उस दिन से तुमको अपनी गोद में उठाकर चल रहा हूँ’’ और समझाया कि ‘‘हे वत्स, जीवन मंे आने वाले कष्ट मनुष्य के अपने कर्मो का ही फल होते है और हर एक को अपना कर्मफल स्वयं भुगतना पड़ता है, इसलिए मैं तुम्हारे कर्मफल को बांट तो नहीं सकता फिर भी मैं अपनी ओर से तुम्हारे कष्टों को यथासंभव कम करने का प्रयास कर रहा हूॅ। यह सुनकर भक्त ने अपने आराध्य के चरण पकड़ लिये और क्षमा माँगी कि ‘‘हे आराध्य अनन्य भक्ति करने के बाद भी मुझसे यह भूल हुई।’’

चूँकि आराध्य अदृश्य ऊर्जा शक्ति के रूप में प्राकृतिक वातावरण और हमारे शरीर के रोम रोम में व्याप्त है। इसलिए मनुष्य स्वभाव में अभिभूत होकर यह न सोचें कि आराध्य उन्हें कष्ट में प्रत्यक्ष दिखाई नहीं दे रहे है बल्कि यह महसूस करें कि वह हर क्षण हमारे दुःखों के प्रभाव को कम करने का प्रयास कर रहे है। इसलिए यदि हम अपने आराध्य की शरण में हैं तो अपनी सुख, दुःख रूपी चिंताओं को अपने आराध्य पर ही डालकर उनकी अनन्य भक्ति करना ही श्रेयस्कर होगा।

एस.वी.सिंह प्रहरी