वर्तमान राजनीति अब धीरे-धीरे स्वार्थ नीति की तरफ बढ़ती चली जा रही है। जब मन हुआ गठबंधन कर लिया और जब मन हुआ अलग भी हो गए। न नैतिकता की चिंता और न जनता की नाराजगी का डर। और न ही इस बात की चिंता कि लोग क्या सोचेंगे। आज के राजनीतिज्ञों का शायद अब ये मानना है कि जनता तो भुलक्कड़ है, वोट देकर भूल जाती है। कांग्रेस तथा आम आदमी पार्टी, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी शरद गुट, नेशनल कांफ्रेंस समेत कई अन्य दलों का रिश्ता देखें तो कभी लगता है कि ‘तेरे बिना जिया लागे ना’ और फिर लगता है कि ‘हम तेरे हैं कौन’। 2024 के लोस चुनाव में तथाकथित हंडी गठबंधन ने जिस एकजुटता का परिचय दिया था, वह हरियाणा, महाराष्ट्र चुनाव आते-आते बिखर गयी। दिल्ली विधानसभा चुनाव में तो हालत ये है कि कांग्रेस के खिलाफ समाजवादी पार्टी और उद्धव ठाकरे की शिवसेना ने आम आदमी पार्टी को समर्थन कर दिया है। शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने तो एक कदम आगे जाकर दिल्ली विधानसभा चुनाव के लिए अपनी पार्टी के प्रत्याशियों की घोषणा कर दी है। शरद की पार्टी के प्रत्याशी आधे से अधिक सीटों पर चुनाव लड़ रहे हैं। कुल मिलकर दिल्ली का चुनाव आते-आते इंडी गठबंधन पूरी तरह बिखर गया है, अस्तित्वहीन जैसा हो गया है। उसकी हालत राजा के उस हाथी जैसी हो गई है, जिसे मरा हुआ तो सभी मान रहे पर, उसके मर जाने की घोषणा करने वाला कोई नहीं है।
हरियाणा और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव में इंदी गठबंधन के दल आपस में कोई समझौता नहीं कर सके और कई दलों ने तो गठबंधन के खिलाफ चुनाव लड़ा। बात हरियाणा की करें तो वहां आम आदमी पार्टी ने अंतिम समय तक कांग्रेस से गठबंधन की कोशिश की किंतु कांग्रेस ने उसको भाव नहीं दिया। अंततः आम आदमी पार्टी ने सभी जगह प्रत्याशी खड़े किए। नतीजा यह हुआ कि ना तो कांग्रेस की सरकार बनी और न ही आम आदमी पार्टी का कोई प्रत्याशी जीत पाया। यही हाल समाजवादी पार्टी का हुआ। प्रदेश में सिर्फ तीन सीट मांगने वाली सपा ने चुनाव के आखिरी वक्त में सिर्फ सोहना सीट से ही समझौता करने का प्रयास किया। किंतु एक सीट भी कांग्रेस ने सपा को नहीं दी तो सपा ने मजदूरी में मैदान ही छोड़ दिया। अब बात महाराष्ट्र चुनाव की। समाजवादी पार्टी ने इंडी गठबंधन से 12 सीटें मांगी थीं किंतु गठबंधन सिर्फ दो सीटें छोड़ने के लिए राजी हुआ था। चुनाव का आखिरी समय आते-आते समाजवादी पार्टी ने सभी 12 सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़े रखे। और अंततः समाजवादी पार्टी भी दरकिनार कर दी गई। यही नहीं महाराष्ट्र के महा विकास गाड़ी के घटक दलों में भी सीट को लेकर आपस में बड़ी खींचतान रही। कांग्रेस की कोशिश रही कि उसे ज्यादा से ज्यादा सीटें मिलें किंतु उद्धव ठाकरे की शिवसेना भी अपने दावे पर अटल रही। आखिरकार किसी तरह रोते-पीटते सीटों का बंटवारा हुआ। और नतीजा यह हुआ कि सबसे अधिक सीटें लड़ने वाली कांग्रेस बुरी तरह पराजित हुई और गठबंधन में सबसे कम सीटों वाली पार्टी बन गई। मतलब यहां भी गठबंधन सफल नहीं रहा।
महाराष्ट्र में तो आम आदमी पार्टी को भी जगह नहीं मिली। और अब दिल्ली के विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी के खिलाफ कांग्रेस सीना ताने खड़ी है। इस चुनाव की खास बात यह है कि कुछ राजनीतिक दल आम आदमी के साथ गलबहियां करते दिख रहे हैं। जैसे समाजवादी पार्टी और उद्धव ठाकरे की शिवसेना ने आप को समर्थन दे दिया है। वहीं शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने इस चुनाव में अपने 40 से अधिक प्रत्याशी खड़े कर दिए हैं। उधर नेशनल कांफ्रेंस ने कहा है कि अगर गठबंधन की यही गत होनी है तो इस गठबंधन को अब भंग करने का घोषणा कर देनी चाहिए। यानी 2024 के लोकसभा चुनाव में दिखाई गई विपक्षी एका दिल्ली का चुनाव आते-आते पूरी तरह तार-तार हो गई है। अलग चुनाव लड़ना तो फिर भी एक राजनीतिक मजबूरी हो सकती है लेकिन चुनाव प्रचार में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी एक-दूसरे के खिलाफ विष वमन करने से भी नहीं चूक रहे।
और इन सब का एक डिफेंस है कि गठबंधन तो लोकसभा चुनाव भर के लिए था। विधानसभा और स्थानीय चुनाव में अपनी सुविधा अनुसार रणनीति करने की बात तय हुई थी। इसीलिए उद्धव ठाकरे की शिवसेना ने महाराष्ट्र के वृहन्न मुंबई महा नगरपालिका चुनाव में अकेले ताल ठोंकने का फैसला किया है। और वहीं समाजवादी पार्टी ने बिना कांग्रेस से बात किए यूपी के मिल्कीपुर विधानसभा उपचुनाव के लिए अपना प्रत्याशी घोषित कर दिया है। अब कांग्रेस कह रही है कि हम तो अभी 2027 के विधानसभा चुनाव की तैयारियों में लगे हैं। हमने तय किया है कि हम कोई विधानसभा उपचुनाव नहीं लड़ेंगे। हालांकि दिल्ली में कांग्रेस के खिलाफ आम आदमी पार्टी का साथ देने वाली समाजवादी पार्टी का कहना है कि यूपी में अभी गठबंधन खत्म नहीं हुआ है। ऐसे में यही कहा जा सकता है की मीठा-मीठा गप और कड़वा-कड़वा थू। यानी सुविधा और जरूरतों की राजनीति का भारत में अब आगाज हो चुका है।
राहुल गांधी और कांग्रेस कर दिए गए किनारे : ‘दीवार क्या गिरी मेरे कच्चे मकान की, लोगों ने मेरे सहन से रस्ते बना लिए’। यह कहावत इस समय कांग्रेस पार्टी और उसके नेता राहुल गांधी पर एकदम फिट बैठती है। कांग्रेस ने हरियाणा और महाराष्ट्र का चुनाव क्या लूज कर दिया, उसके गठबंधन साथी उसे आंख दिखाने लग गए हैं। वैसे इसके लिए कांग्रेस की नीतियां भी दोषी हैं। उसने भी हमेशा ही सुविधा की राजनीति की। जहां उसे अपने पक्ष में माहौल दिखा, वहां उसने सहयोगियों को दरकिनार किया है। और अब सहयोगियों की बारी है तो वे भी आंख दिखाने लग गए हैं। हालिया दौर में दिल्ली विधानसभा चुनाव में कांग्रेस एकदम अकेली दिखाई दे रही है। गठबंधन के अधिकतर घटक उसके खिलाफ होकर अरविंद केजरीवाल का समर्थन कर रहे हैं। दरअसल हरियाणा में जिस प्रकार कांग्रेस ने आप और समाजवादी पार्टी को भाव नहीं दिया, जिस प्रकार महाराष्ट्र में उसने गठबंधन साथी शिवसेना उद्धव ठाकरे गुट को हल्के में लिया, जिस प्रकार उसने पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की अधीनता नहीं स्वीकारी, उसको लेकर गठबंधन के घटक दल कांग्रेस से नाराज हैं। यहां तक कि जम्मू-कश्मीर में गठबंधन साथी नेशनल कांफ्रेंस के उमर अब्दुल्ला ने यहां तक कह दिया है कि गठबंधन को समाप्त कर देना चाहिए। यानी अब बची-खुची संभावना उमर अब्दुल्ला ने भी खत्म कर दी है। हालांकि कांग्रेस ने अपनी सुविधा के लिए यह डिफेंस तलाश कर लिया है कि हमारा गठबंधन सिर्फ लोकसभा चुनाव के लिए ही था। इसी बात को बिहार में उसके गठबंधन साथी राष्ट्रीय जनता दल के प्रमुख नेता तेजस्वी यादव ने भी दोहराया है।
इस प्रकार हालिया राजनीतिक माहौल में हर पार्टी अपनी सुविधा देख रही है, अपना वोट बैंक देख रही है। और हर पार्टी अपने वोट बैंक के लिए के लिए गणित बैठा रही है। ऐसे में सियासी रिश्तों का बनना-बिगड़ना भी स्वाभाविक है। कहते हैं कि राजनीति संभावनाओं का खेल और जरूरतों का मेल है। इसमें कोई स्थाई शत्रु या मित्र नहीं होता है। यहां संबंध तात्कालिक जरूरत को देखकर और भविष्य की रणनीति को ध्यान में रख बनाए-बिगाड़े जाते हैं। असल में सच्चाई यह है कि अब लोकसभा के चुनाव हो गए हैं। और अगले 5 साल तक यही लगता है कि न तो लोस चुनाव पहले होने वाले हैं, और न ही पीएम नरेंद्र मोदी की सरकार जाने वाली है। ऐसे में राजनीति के सूरमा पाला बदल की भूमिका में धीरे-धीरे आते जा रहे हैं। हालांकि अभी किसी ने भी औपचारिक रूप से इस ओर कदम नहीं बढ़ाया है किंतु इसके संकेत मिलते जा रहे हैं। वैसे भी पूरे पांच साल तक सत्ता के खिलाफ राजनीति करने का रिस्क कोई दल नहीं लेना चाहता। क्योंकि पार्टी चलाने के लिए धन की जरूरत पड़ती है, और धन तो सत्ता की तरफ से ही आता है। ऐसे में लगता है कि बदली हवा का असर इंडी गठबंधन पर तेज होता जा रहा है। एक के बाद एक घटक दल कांग्रेस से पल्ला झाड़ने के मूड में दिखाई दे रहे हैं। इसमें आम आदमी पार्टी और नेशनल कांफ्रेंस का मैसेज तो लाउड एंड क्लीयर है। और बाकी घटक दल भी सटीक मौके की तलाश में हैं।
पल्ला झटकने की शुरुआत आप के सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल ने की है। अब सम्बन्धों में इतनी तल्खी आ गई है कि वे पानी पी-पीकर कांग्रेस को कोस रहे हैं। इतनी तल्खी कि केजरीवाल के खिलाफ नई दिल्ली सीट से कांग्रेस के उम्मीदवार संदीप दीक्षित ने उनकी शिकायत उप राज्यपाल से कर दी। उप राज्यपाल ने भी तुरंत इसकी जांच उपायुक्त को सौंप दी है। संदीप दीक्षित ने शिकायत पत्र में अरविंद केजरीवाल के झूठे वादों पर सवाल उठाया है। कांग्रेस नेता अजय माकन ने तो अरविंद केजरीवाल के झूठे वादों को लेकर उन्हें एंटी नेशनल तक कह दिया है। इसी को लेकर अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस नेतृत्व से कहा था कि अगर इन नेताओं के खिलाफ कार्रवाई नहीं की गई तो वह गठबंधन के अन्य नेताओं से बात करके कांग्रेस को गठबंधन से बाहर करने का कोशिश करेंगे। उनकी कोशिश रंग भी लाती दिखाई दे रही है।
अधिकतर नेता कांग्रेस के खिलाफ आप का समर्थन कर रहे हैं। खबर है कि अरविंद केजरीवाल ने बाकी दलों से वार्ता के बाद कांग्रेस को अलग-थलग करा दिया है। अब दिल्ली के विधान सभा चुनावों को लेकर कांग्रेस और आप में खूब वार-पलटवार जारी है। बीते दिनों राहुल गांधी ने दिल्ली में प्रचार के दौरान अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी की वादा खिलाफी पर जमकर भड़ास निकाली। राहुल गांधी ने अरविंद केजरीवाल की तुलना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके कथित झूठे वादों से कर दी। कांग्रेस का तो सीधा आरोप है कि आप भाजपा की बी टीम के रूप में काम कर रही है। वैसे लगभग छह महीने पहले एक साथ दिखने वाले आप और कांग्रेस ने एक दूसरे पर भाजपा की बी टीम के रूप में काम करने का आरोप लगाया है। केजरीवाल ने राहुल गांधी के आरोपों पर सीधे टिप्पणी करने से इनकार कर दिया है और कहा है कि कांग्रेस भाजपा की मदद कर रही है। उधर दिल्ली के चुनाव में राजद न तो कांग्रेस के साथ है और न ही आप के। वैसे चर्चाएं हैं कि लालू प्रसाद यादव कांग्रेस का समर्थन करना चाहते थे पर तेजस्वी यादव ने उनको समझा लिया।
उसके बाद बारी आई जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला की। कांग्रेस के साथ विधानसभा चुनाव लड़ने वाले उमर अब्दुल्ला अब कांग्रेस को ही कठघरे में खड़ा कर रहे हैं। उनका कहना है कि कांग्रेस का इवीएम पर रोना ठीक नहीं है। इवीएम पर दोहरा रवैया बिल्कुल ठीक नहीं है। उनका कहना है कि अगर कांग्रेस कहीं जीत जाती है तो इवीएम ठीक है, तो कहीं और उसके हारने पर खराब कैसे हो सकती है। अगर कांग्रेस को इवीएम से इतनी दिक्कत है तो उसे चुनाव ही नहीं लड़ना चाहिए। ऐसे में अब उमर अब्दुल्ला के बयान और उनकी आगामी राजनीति को लेकर चर्चाओं का बाजार गर्म है। उमर के इस रुख का समर्थन टीएमसी नेता अभिषेक बनर्जी ने भी किया है। उन्होंने कहा है कि इवीएम पर सवाल उठाने वालों को उसके खिलाफ सबूत भी देना चाहिए। उमर अब्दुल्ला ने तो अब ये भी कह दिया है कि गठबंधन के समापन की घोषणा कर देनी चाहिए। ताकि सबको अपने हिसाब से रणनीति बनाने का मौका मिले।
उसके बाद बारी आई शिवसेना यूबीटी के नेता उद्धव ठाकरे की। उद्धव ठाकरे ने पिछले दिनों ही नागपुर में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस से मुलाकात की और उन्हें गुलदस्ता भी दिया। इस मुलाकात के दौरान उद्धव ठाकरे ने वीर सावरकर को भारत रत्न देने की भी मांग उठाई है। ये वही उद्धव ठाकरे हैं, जो पूरे चुनाव भर वीर सावरकर पर टिप्पणी करने वाली कांग्रेस की गोद में बैठे रहे। उनकी पार्टी की प्रवक्ता सुषमा अत्रे तो राम, कृष्ण और सनातन का अपमान करती रहीं। अब तो उनकी पार्टी ने बृहन्मुंबई महानगरपालिका का चुनाव अकेले लड़ने का ऐलान कर दिया है। उन्होंने कहा है कि गठबंधन तो सिर्फ लोकसभा और विधानसभा चुनाव तक के लिए ही था। उनके इस निर्णय से साथी दलों में खलबली मची हुई है। विधानसभा चुनाव में फजीहत होने के बाद अब उन्होंने हिंदुत्व की ओर जाने का संकेत भी दिया है। इसके अलावा उनका मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस से मुलाकात करना एक बड़े राजनीतिक समीकरण की ओर संकेत कर रहा है। वैसे भी जानकार यही कहते हैं कि उद्धव ठाकरे को शपथ ग्रहण के समय भी बुलाया गया था किंतु उन्होंने एक रणनीति का हवाला देकर शपथ ग्रहण समारोह में आने से मना कर दिया था। ऐसे में अब शायद उनकी रणनीति का अगला चरण शुरू होने वाला है। देवेंद्र फडणवीस से उनकी मुलाकात के बाद से ही महाराष्ट्र की राजनीति में चर्चाओं का बाजार गर्म हो गया है। खैर शिवसेना यूबीटी के ही विधायक आदित्य ठाकरे ने भी समंदर से हुई नौका दुर्घटना के बहाने मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस से बात की थी। हालांकि शिवसेना उद्धव गुट की सरकार के खिलाफ झंडा उठा कर चल रहे दलों के साथ जुगलबंदी भी जारी है। किन्तु राजनीति में इसी को बार्गेनिंग पावर बढ़ाना कहते हैं।
एनसीपी नेता शरद पवार ने भी दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की है। वैसे तो कहने को यह मुलाकात किसानों के मुद्दे पर थी किंतु इसे लेकर भी चर्चाओं का बाजार गर्म है। पिछले दिनों यह चर्चा उठी थी कि एनसीपी के दोनों गुटों के सांसद अजित पवार के नेतृत्व में एनडीए का समर्थन करेंगे। इन चर्चाओं पर अभी तक शरद पवार की टिप्पणी भी नहीं आई है। ऐसे में उनका प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात करना चर्चाओं को जन्म तो देता ही है। वैसे भी नरेंद्र मोदी से उनके रिश्ते सभी को मालूम हैं। तो हो सकता है कि कोई खिचड़ी पक ही रही हो। इधर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को लेकर उनके हालिया बयान ने भी राजनीतिक सरगर्मी पैदा कर दी है। पवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तारीफ करते हुए कहा है कि संगठन की कला हमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से सीखनी चाहिए। उनका यह बयान आने के बाद तो और भी चर्चाएं तेज हो गई हैं। यह सब कुछ अचानक नहीं हो सकता। यानी कहीं तो आग सुलग रही है जिसका घुआं इधर आ रहा है। देखना यह है कि महाराष्ट्र की राजनीति से उठा यह धुआं राष्ट्रीय राजनीति को कैसे और कितना प्रभावित करता है।
वैसे शरद पवार और महाराष्ट्र की राजनीति के बारे में भविष्यवाणी कर पाना किसी के वश की बात नहीं है। अच्छे-अच्छे राजनीतिक पंडितों का अनुमान धरा रह जाता है।आखिर ऐसा कैसे हो गया, इसे समझने की कोशिश करते हैं। शरद पवार ने पिछले दिनों विचारधारा के प्रति राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के समर्पण को लेकर उसकी प्रशंसा की। उन्होंने अपनी पार्टी के लोगों से भी आग्रह किया कि वह भी समाज सुधारकों शाहूजी महाराज, महात्मा फुले, बी आर आंबेडकर, यशवंतराव चव्हाण के प्रगतिशील विचारों के प्रति अटूट प्रतिबद्धता के साथ अपने कार्यकर्ताओं का आधार तैयार करे। उन्होंने दक्षिण मुंबई की एक सभा में पार्टी कार्यकर्ताओं से कहा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पास प्रतिबद्ध कार्यकर्ता हैं, जो हिंदुत्व की विचारधारा के प्रति अटूट निष्ठा दिखाते हैं। और वे किसी कीमत पर अपने मार्ग से विचलित नहीं होते। पवार का मानना है कि हमारे पास भी ऐसा काडर होना चाहिए। शरद पवार ने इसके बाद एक पत्रकार वार्ता में कहा कि यह सच है कि इंडी गठबंधन सिर्फ लोकसभा चुनाव तक के लिए ही था। विधानसभा और स्थानीय चुनावी के लिए नहीं। ऐसे में सभी लोग अपने हिसाब से रणनीति बनाने के लिए स्वतंत्र हैं। एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि मैंने संघ की संगठन क्षमता की तारीफ की है, उसकी विचारधारा की नही। एक अन्य सवाल के जवाब में शरद पवार ने कहा कि अदानी के खिलाफ जेपीसी की कोई जरूरत ही नहीं है, क्योंकि उसका रिजल्ट विपक्ष के खिलाफ ही आएगा। उस जेपीसी में भाजपा और एनडीए का बहुमत होगा और वह कभी भी अदानी के खिलाफ फैसला नहीं देगा। ऐसे में जेपीसी का कोई मतलब नहीं है। इस प्रकार शरद पवार ने इंडी गठबंधन और कांग्रेस को झटका दे दिया है। उन्होंने कांग्रेस की अदानी विरोधी राजनीति का गुब्बारा भी फोड़ दिया है। इसके अलावा उन्होंने यह भी संकेत दे दिया कि इंडी गठबंधन अब बहुत दिनों का मेहमान नहीं रह गया है।
उधर बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो सुश्री मायावती ने भी एक देश एक चुनाव के मुद्दे पर एनडीए सरकार को अपना समर्थन देकर अपनी राजनीतिक लाइन एकदम क्लियर कर दी है। उन्होंने बता दिया है कि वह इस मुद्दे पर विपक्ष के साथ नहीं हैं। हालांकि संसद की राजनीति में उनका अभी कोई बहुत बड़ा योगदान नहीं है, किंतु विपक्ष के खिलाफ नैरेटिव सेट करने में उनका यह बयान काफी महत्वपूर्ण हो जाता है।
इंडी गठबंधन में नेतृत्व परिवर्तन की सुगबुगाहट : पिछले दिनों तो ये भी चर्चा आई की इंडी गठबंधन का नेतृत्व राहुल गांधी से लेकर टीएमसी नेता ममता बनर्जी को सौंप दिया जाए। ममता ने भी तुरंत प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कह दिया कि मैं पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री पद के साथ गठबंधन के संयोजक का भी दायित्व संभालने को तैयार हूं। दरअसल तृणमूल कांग्रेस के नेता कल्याण बनर्जी ने पिछले दिनों कहा था कि राहुल गांधी के नेतृत्व में गठबंधन कुछ खास प्रदर्शन नहीं कर पा रहा है। यहां तक कि उन्होंने राहुल गांधी को जोकर और बचकाने स्वभाव वाला भी कह दिया था। उनका कहना था कि ऐसे में गठबंधन का नेतृत्व ममता बनर्जी को सौंप देना चाहिए। उनकी इस मांग का समर्थन समाजवादी पार्टी ने भी तत्काल कर दिया। पार्टी के नेता राष्ट्रीय महासचिव रामगोपाल यादव और धर्मेंद्र यादव ने इसका समर्थन करते हुए कहा कि ममता बनर्जी बहुत योग्य और अनुभवी नेता हैं। और इस प्रस्ताव में कोई बुराई नहीं है। इस प्रस्ताव का समर्थन शरद पवार की पार्टी राकांपा की नेता सुप्रिया सुले ने भी किया है। इस प्रस्ताव का समर्थन शिवसेना उद्धव गुट के नेता संजय राउत ने भी किया। ममता बनर्जी को नेतृत्व सौंपने की बात का समर्थन अरविंद केजरीवाल की पार्टी ने भी किया है। वैसे कांग्रेस पार्टी ने इस पर कहा है कि जब कभी गठबंधन की मीटिंग होगी तो इन बातों पर विचार किया जाएगा। ममता बनर्जी को नेतृत्व सौंपने की बात का समर्थन राष्ट्रीय जनता दल के नेता लालू प्रसाद यादव ने भी किया है। कुल मिलाकर इस समय कांग्रेस पार्टी के खिलाफ गठबंधन में जबरदस्त माहौल है। आरोप है कि यह उसकी स्वार्थी राजनीति का परिणाम है। आरोप है कि कांग्रेस ने हमेशा अपना स्वार्थ देखा और गठबंधन साथियों को अर्दब में लेने की कोशिश की। इसी के चलते जम्मू कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस के साथ मिलकर चुनाव लड़ने के बावजूद कांग्रेस सरकार में नहीं है। दरअसल कांग्रेस सरकार में डिप्टी सीएम का पद चाहती थी किंतु उमर अब्दुल्ला ने इसके लिए साफ-साफ मना कर दिया। इसी से नाराज कांग्रेस पार्टी ने गठबंधन तो नहीं तोड़ा है किंतु बाहर से समर्थन देने का बात कह कर सरकार में शामिल नहीं हुई है। वैसे आंकड़ों की बात करें तो नेशनल कांफ्रेंस को कांग्रेस की बहुत जरूरत भी नहीं है। जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस का परफॉर्मेंस भी ऐसा नहीं है, जिसको देखकर उमर अब्दुल्ला को कोई दबाव महसूस करना पड़े। बीते दिनों श्रीनगर और सोनमर्ग के बीच बनी जेड-मोड़ टनल के उद्घाटन के मौके पर मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रशंसा करते हुए भी नजर आए। हाल ही में हुए विधानसभा चुनाव का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि आपने अपनी बात कायम रखी और 4 महीने के भीतर चुनाव करा दिया। इसका श्रेय आपको, आपकी टीम और चुनाव आयोग को जाता है। उमर का यह बयान सीधे तौर पर कांग्रेस की इवीएम विरोधी राजनीति के खिलाफ है। उमर ने कहा कि अंतरराष्ट्रीय योग दिवस पर भी श्रीनगर में आपने तीन महत्वपूर्ण बातें कही थीं। आपने कहा था कि आप दिलों की दूरी और दिल्ली से सूबे की दूरी को खत्म करने पर काम कर रहे हैं। ये वास्तव में आपके काम से साबित होता है। उमर ने कहा कि सूबे को ये आपकी दूसरी सौगात है। आपने 15 दिन पहले जम्मू को रेलवे डिवीजन की सौगात दी है। इनसे न सिर्फ दिलों की दूरी, बल्कि सूबे की दिल्ली से दूरी भी कम हो गई है। उमर अब्दुल्ला ने कहा कि पिछले 35-37 वर्षों में हजारों लोगों ने देश की प्रगति के लिए, सूबे के विकास के लिए अपने जीवन का बलिदान दिया। उन्होंने कहा कि जो लोग यहां आतंकी हमलों को अंजाम देते हैं, वो देश की भलाई नहीं चाहते हैं। उमर ने कांग्रेस का नाम लिए बगैर कहा कि जो जम्मू-कश्मीर में शांति और प्रगति नहीं देखना चाहते हैं, वैसे लोग कभी सफल नहीं हो सकते। हम उन्हें हमेशा हरा कर वापस भेजेंगे।
इस बाबत सूत्रों का कहना है कि सूबे के वर्तमान हालात में उमर अब्दुल्ला को हर कदम पर केंद्र के साथ की जरूरत है। कई विषय ऐसे हैं जिनमें उमर अब्दुल्ला के पास फ्री हैंड नहीं है। उन्हें दिल्ली में केजरीवाल का हाल पता है। ऐसे में कांग्रेस से दूर रहने में ही उनका भला है। इंडी गठबंधन की इस दशा पर भाजपा प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने कहा है कि यह स्वार्थ पर आधारित गठबंधन है। जैसे-जैसे इन दलों के स्वार्थ खत्म होते जाएंगे, उसे छोड़ने जाएंगे। शिवसेना यूबीटी के प्रवक्ता संजय राउत ने कहा है कि आपस में बयानबाजी से सम्बन्ध खराब होंगे। और धीरे धीरे गठबंधन भी टूट की कगार पर पहुंच जाएगा। इस पर कांग्रेस की नेता वर्षा गायकवाड़ का कहना है कि इस तरह के निर्णय हाईकमान लेता है। वैसे कांग्रेस को गठबंधन से बाहर करना इतना आसान नहीं है। इसके अलावा शिवसेना उद्धव गुट के ही प्रवक्ता आनंद दुबे ने कहा है कि जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला अब बीजेपी की भाषा बोल रहे हैं। ये गठबंधन के हित में नहीं है।
कांग्रेस ने कहा, समझौता तो सिर्फ लोकसभा के लिए था : कांग्रेस प्रवक्ता पवन खेड़ा ने दिल्ली में आप से अलग होकर चुनाव लड़ने पर कहा है कि इंडी गठबंधन का समझौता सिर्फ लोकसभा के लिए था। यह पहले से ही तय था कि विधानसभा चुनाव में सभी अपनी स्थानीय जरूरतों के हिसाब से फैसला लेंगे। और हम वही कर रहे हैं। उधर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कहा है कि कांग्रेस के लिए आप विपक्ष है। उनका कहना है कि यह आरोप ग़लत है कि कांग्रेस भाजपा से मिली हुई है। नयी दिल्ली विधानसभा क्षेत्र से पार्टी प्रत्याशी संदीप दीक्षित ने कहा है कि दो बार गलती से जीत जाने का मतलब ये नहीं कि इस बार भी आप जीत ही जाएंगे। इस बार तो माहौल कांग्रेस के पक्ष में है। इसके अलावा कांग्रेस के महासचिव और उत्तर प्रदेश के प्रभारी अविनाश पांडेय ने सपा द्वारा आप को समर्थन देने और उसके साथ चुनावी मंच साझा करने के फैसले पर सधी हुई प्रतिक्रिया दी है। उन्होंने कहा कि ये उनका अपना फैसला है। हमें इस पर कुछ नहीं कहना है। जब पूछा गया कि अखिलेश यादव का ये कहना है कि दिल्ली में भाजपा को हराने की क्षमता आप में है, तो श्री पांडेय ने कहा कि यह उनकी सोच हो सकती है। उन्होंने इस बात को कन्फर्म किया कि कांग्रेस यूपी में मिल्कीपुर का उपचुनाव नहीं लड़ेगी। उन्होंने कहा कि हम अभी से 2027 की तैयारियां कर रहे हैं।
अभय परमहंस
राजनीतिक विश्लेषक