महंगाई पर लगाम लगाने में सरकार असफल साबित हो रही है। थोक मूल्यों के साथ ही खुदरा दामों में भी बढ़ोत्तरी का दौर शुरू होने से आम आदमी की मुसीबत बढ़ गई है। घर का खर्च चलाने में दम निकल रहा है। खाने पीने की हर वस्तु महंगी हो गई है। ऊपर से महामारी के कारण सेहत पर खर्च लगातार लोगों की चिंता का सबब बना हुआ है।
पिछले एक साल से खाद्य वस्तुओं की कीमतें बेलगाम हो चली हैं। उत्तर भारत में घर-घर इस्तेमाल में आने वाला सरसों का तेल 120 रुपए प्रति किलो से बढ़कर दोहरा शतक लगा चुका है। दालें भी 50 फीसदी तक महंगी हो गई हैं। बीती सर्दियों में हर गरीब की थाली का अहम हिस्सा आलू भी कीमतों के मामले में सरपट दौड़ रहा था। प्याज के बारे में तो वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन का बयान चर्चित रहा था, ‘हर व्यक्ति प्याज नहीं खाता है। मैं तो कतई नहीं खाती हूं।’
भले ही वित्त मंत्री प्याज न खाएं। खाद्य वस्तुओं की कीमतें बढ़ना कम नहीं हुईं। इस हद तक कि महंगाई रिजर्व बैंक की उम्मीद से ज्यादा हो गईं हैं। थोक मूल्य सूचकांक मई माह में 12.9 फीसद हो गया। खुदरा मूल्य सूचकांक भी छह माह के उच्च स्तर पर है। मई में 6.3 फीसद का स्तर था। जबकि अप्रैल में यह 4.2 फीसद पर था।
एक बड़ी दिक्कत कोर महंगाई को लेकर भी है। ‘कोर इनफ्लेशन’ में खाद्य और ईंधन शामिल नहीं किया जाता है। यह भी सात साल का उच्च स्तर छू चुकी है। मई में 6.6 फीसद हो गई। अप्रैल में 5.40 फीसद थी। यानी कच्चा माल महंगा हो गया। मेटल ने तो दस साल का कीर्तिमान बना दिया।
तो इसका मतलब क्या है? माइक्रोप्रोसेसर, पैनल, कंपोनेंट आदि के दाम बढ़ने के चलते टीवी, मोबाइल, कम्प्यूटर धीरे-धीरे लगातार महंगे हो रहे हैं।
डीजल की कीमतों के कारण ढुलाई भी महंगी हो गई। इसका असर खाद्य से लेकर एफएमसीजी और हर चीज के ट्रांसपोर्टेशन पर पड़ रहा है। दूध से लेकर सब्जियों तक। आम आदमी ऐसे हालात में क्या करे? पिछले साल कोरोना महामारी के दौरान वेतन में कटौती पहले ही हो चुकी है। वेतन वृद्धि, बोनस तो एक ख्वाब बन गई है। अब सोच-सोच कर खर्च करने की नौबत आ गई है। गैर जरूरी चीजों की खरीदारी पर उसने अंकुश लगा दिया है।
यही वजह है कि पर्यटन, बाहर खाना-पीना, लक्जरी आइटम की खरीदारी के फैसले अधिसंख्य लोगों ने टाल दिए हैं। इसकी एक वजह कोरोना की दूसरी लहर में स्वास्थ्य सेवाओं की पोल खुलना भी रहा है। कुछ समय तक तो ऐसे हालात बन गए थे कि जेब में पैसा होने के बाद भी किसी कीमत पर न तो अस्पताल में बिस्तर मिल पा रहे थे और न ही ऑक्सीजन। अस्पतालों ने भी अनाप-शनाप बिल वसूले।
लाखों लोगों की मौत ने भी उसके भरोसे को हिला दिया।
यही वजह है कि रिजर्व बैंक के उपभोक्ता विश्वास सर्वेक्षण में लोगों में निराशा दिखाई दी। सबको अगले साल आर्थिक परिदृश्य में कुछ भी चमकीला नहीं दिखाई दे रहा है। हैरत की बात है कि इस साल मार्च में 5.3 फीसद लोग ही भविष्य को लेकर थोड़े आशान्वित थे। मई तक आते-आते भरोसा ऐसा डिगा कि यह नेगेटिव दायरे में चला गया। शून्य से भी नीचे 18.3 फीसद लोग आने वाले एक साल तक भरोसेमंद नहीं थे। रोजगार को लेकर भी यही स्थिति रहने का अंदेशा है। आमदनी के मामले में भी कमोबेश ऐसे ही हालात हैं।
अब ऐसी स्थितियों में कौन अपनी अंटी ढीली कर सकता है? सरकार चाहती है कि लोग खर्च करें। कंपनियां नया निवेश करें। कैसे होगा? जब लोगों की आमदनी घट रही है, भविष्य को लेकर भरोसा डिगा हो तो कैसे यह होगा? लोग गैर जरूरी खर्च तो कतई नहीं करेंगे। बाजार में मांग ही नहीं होगी तो कंपनियां निवेश क्यों कर करेगी? उन्हें अपनी उत्पादन क्षमता बढ़ाने की क्यों जरूरत होगी? यदि ऐसा नहीं होता है तो रोजगार के नए मौके कैसे पैदा होंगे? जब रोजगार ही नहीं होगा या लोग कम वेतन पर काम करेंगे तो मांग कैसे बढ़ेगी? यानी हम फि र उसी दुष्चक्र में फंसे रहेंगे।
फेडरेशन आॅफ आटोमोबाइल डीलर्स एसोसिएशन के मुताबिक अप्रैल माह में 8,65,134 दो पहिया बिके। मई में इसमें 55 फीसद की गिरावट आई। कुल 4,10,757 दो पहिया वाहन ही बिके। किसानी के लिए ट्रैक्टर भी अप्रैल के 38,285 के मुकाबले मई में 16,616 ही बिके। व्यावसायिक वाहन मई में 17534 बिके जबकि एक माह पहले 51436 बिके थे।
काबिले गौर है कि इस बार महामारी का प्रकोप ग्रामीण क्षेत्रों में भी फैला। यहीं आकर महंगाई रिजर्व बैंक के लिए परेशानी का सबब बन जाती है। छह फीसद से ज्यादा होना वाकई गंभीर चिंता का विषय है। अप्रैल तक थोक महंगाई ही तेजी से बढ़ रही थी। मई में खुदरा महंगाई ने भी तेजी पकड़ ली। दरअसल, महंगाई के चलते खरीदारी क्षमता घट जाती है।
सबसे ज्यादा असर निजी खपत पर पड़ता है। वाहनों की बिक्री के आंकड़े इसकी पुष्टि करते हैं। घरेलु बचत भी तेजी से कम हो रही है। पिछले वित्तीय वर्ष की अक्तूबर-दिसंबर तिमाही में यह घटकर 8.2 प्रतिशत हो गई। जबकि महामारी की शुरूआत में 21 प्रतिशत तक थी। यह साबित करती है चिकित्सा सेवाओं पर बढ़ता खर्च। पिछले एक साल से रिजर्व बैंक ने चार फीसद रेपो रेट में कोई बदलाव नहीं किया है।
यदि मुद्रस्फीति के बरअक्स देखें तो लोगों को बैंक की एफडी पर कम ब्याज मिल रहा है। यानी यह नेगेटिव दायरे में हैं। शायद इसीलिए इक्विटी मार्केट में लोगों का निवेश बढ़ रहा है। शेयर बाजार के लगातार चढ़ने की एक वजह यह भी है। लेकिन, एफडी के मुकाबले अधिसंख्य जोखिम का रास्ता अपनाने को मजबूर है। स्टेट बैंक आॅफ इंडिया की 16 जून को जारी रिपोर्ट के मुताबिक अंतर्राष्ट्रीय व घरेलु कारणों के चलते महंगाई में तेजी कुछ समय तक बनी रही सकती है।
कई राज्यों में आंशिक लॉकडाउन के कारण सप्लाई चेन प्रभावित होने से भी इसमें इजाफा हुआ है।अमूमन, रिजर्व बैंक ब्याज दरों में थोड़ी वृद्धि कर महंगाई पर लगाम लगाने की कोशिश करता है। ताकि बाजार में पूंजी की उपलब्धता कम हो। कर्ज महंगा हो जाता है। लेकिन, इसमें जोखिम है। पहले से ही अर्थव्यवस्था विकास की बाट जोह रही है। इस विकल्प पर अमल करने से मुश्किलें और बढ़ जाएंगी।
कॉन्फेडरेशन आॅफ इंडियन इंडस्ट्रीज (सीआईआई) के प्रेसीडेंट टीवी नरेंद्रन अर्थव्यवस्था में जान डालने के लिए सरकार से तीन लाख करोड़ के प्रोत्साहन पैकेज की मांग कर चुके हैं। खपत आधारित अर्थव्यवस्था में मजबूती के लिए लोगों के हाथों में पैसे थमाने होंगे। उनका यह भी मानना है कि टीकाकरण की रफ्तार में और तेजी लाने की जरूरत है। तभी व्यापारिक और औद्योगिक गतिविधियां पुराने ढर्रे पर लौट सकेंगी। रिजर्व बैंक और केंद्र सरकार के लिए एक और चुनौती सामने आने वाली है। हाल में अमेरिकी फेडरल रिजर्व बोर्ड की बैठक में यह संकेत मिला है कि अमेरिका में 2023 में ब्याज दरों में वृद्धि की जा सकती है। यह वाकई खतरे की घंटी है।
दुनिया के तमाम उभरते बाजारों से डॉलर वापस अमेरिका की तरफ मुड़ जाते हैं। 2013 में ऐसा हो चुका है। इससे पहले एशियाई टाइगर कहे जाने वाले देशों ने इसका कहर झेला था। अब देखना है कि महंगाई से परेशान रिजर्व बैंक आने वाली आफत से निपटने की क्या तैयारी करता है? बहरहाल, जून माह में आरटी- पीसीआर हटने के चलते हिमाचल प्रदेश के रास्ते में गाड़ियों के कई किलोमीटर लंबे जाम के वाकये के पीछे ज्यादा पढ़ने की कोशिश न करें। हॉस्पिटैलिटी सेक्टर में जल्द बहार आने की उम्मीद नहीं है। वैसे भी जब लोग महंगाई से त्रस्त हैं तो रीयल एस्टेट में भी बड़े बदलाव नहीं होने जा रहे हैं। तीसरी लहर की आशंका के बीच तो कतई नहीं।
आलोक भदौरिया वरिष्ठ पत्रकार