जीवन को नष्ट न करें, भस्मासुर तंबाकू का करें परित्याग

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आज से लगभग 5000 से लेकर 3000 ईसवी पूर्व जब दक्षिण अमेरिका की बहुत सी जनजातियों के मध्य तंबाकू की खेती की जा रही थी तो शायद ही यह कल्पना किसी के मन में रही हो कि एक दिन पूंजीवादी व्यवस्था में तंबाकू व्यापार का इतना बड़ा साधन हो जाएगा। आज सरकार राजस्व के लिए और पूंजीवादी व्यवस्था सरकार को चलाने के लिए धन एकत्र करने के आधार पर इस जहर को आवश्यकता से ज्यादा उत्पादित कर रहा है।

भारत जैसे देश में भी 25000 करोड रुपए का व्यवसाय करने वाला उत्पाद तंबाकू मानव जीवन के लिए भस्मासुर से कम नहीं है लेकिन मानव जीवन और पूंजीवादी व्यवस्था में सदैव ही पूंजीवादी व्यवस्था जीतती रही है। यही कारण है कि विश्व भर में यह चिंता तो है कि लोग तंबाकू खा कर मर रहे हैं लेकिन भूटान को छोड़कर विश्व का कोई देश आज तक यह साहस नहीं कर सका है कि वह अपने देश से तंबाकू और उसके उत्पादों को पूरी तरह बनना और बनाना रोकने की पहल करें।

.. और यही कारण है कि जब 80 के दशक में इस बात को वैश्विक स्तर पर महसूस किया गया कि तंबाकू के उत्पादों से एक सीमा से ज्यादा मनुष्य मरने लगे हैं तो 1987 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने तंबाकू के प्रति लोगों में जागरूकता फैलाने और इससे होने वाले कैंसर के लिए संवेदनशील बनाने के लिए प्रयास करने की आवश्यकता पर जोर दिया जो कि 31 मई 1988 को पहली बार विश्व स्वास्थ संगठन द्वारा इसके मसौदे को तैयार करके विश्व के सामने रखा गया। इसलिए हर वर्ष 31 मई को विश्व तंबाकू दिवस मनाया जाता है।

वर्ष 2016 में अखिल भारतीय अधिकार संगठन द्वारा भारत में तंबाकू से होने वाली मौतों के प्रति चिंतित होते हुए सरकार से भूटान देश की तरह ही अपने देश में भी तंबाकू और उससे बनने वाले उत्पादों के उत्पादन और खेती को पूरी तरह रोकने के लिए पत्र लिखा गया। जिसके जवाब में भारत सरकार द्वारा इस सत्य को स्पष्ट किया गया कि 2008 में पहले ही सार्वजनिक जगहों पर धूम्रपान करना निषेध किया जा चुका है।

..और वर्ष 2006 में इस पर भी नियम में बनाया जा चुका है कि गुटका और इस तरह के उत्पादों के व्यवसाय पर कठोरता पूर्वक रोक लगाई जा सके लेकिन संगठन की शिकायत जस की तस रह गई ना तो सिगरेट का उत्पादन रुका ना तंबाकू बनाने वाली कंपनियों ने तंबाकू के उत्पादन पर रोक लगाई ना सरकार ने इसके लिए प्रयास किया बल्कि राजस्व के नाम पर सरकार द्वारा इस तथ्य पर असमर्थता दिखाई गई कि तंबाकू और उसके उत्पादों पर देश में पूरी तरह विलोपन किया जाना संभव है। जिससे यह स्पष्ट था कि पूंजीवादी व्यवस्था में मानव जीवन का मूल्य सर्वोच्च नहीं है।

इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता है कि इन उत्पादों का उपयोग करने के कारण एक बीमार समाज को बनाने की स्थिति को रोकने के लिए संवेदनशीलता को विश्व स्तर पर, राष्ट्रीय स्तर पर जरूरी माना गया है और इसीलिए उसके लिए जागरूकता कार्यक्रम चलाए जाने पर जोर दिया जा रहा है। वर्ष 2021 में विश्व स्वास्थ संगठन द्वारा तंबाकू के लिए जो थीम का निर्धारण किया गया है वह है -“छोड़ने के लिए प्रतिबद्धता” जिससे पुनः यह स्पष्ट है कि वैश्विक स्तर के संगठन भी एक व्यक्ति विशेष से यह अपेक्षा करते हैं कि वह अपने आत्मबल, अपने जीवन और अपने संकल्प के द्वारा इन उत्पादों को छोड़े और इस तथ्य पर काम करने का प्रयास करें कि चंदन विष व्यापत नहीं लिपटे रहत भुजंग अर्थात तंबाकू के रूप में मानव जीवन की ओर बढ़ रहे भुजंग से मानव स्वयं बचने का प्रयास करें क्योंकि सरकार या पूंजी वादी व्यवस्था में तंबाकू उत्पाद निरंतरता में चलते रहेंगे।

यह अत्यंत गंभीर विषय है कि जिस मानव जीवन को श्रेष्ठतम कहा गया है, उस मानव जीवन की श्रेष्ठता से ज्यादा पूंजी की व्यवस्था को वैश्विक स्तर पर श्रेष्ठतम मानते हुए मानव को सिर्फ एक उपभोक्तावादी संस्कृति का वाहक मानकर किसी राष्ट्र की सुरक्षा, संरक्षा और जनता के लिए आवश्यक पूंजी को निरंतर प्रवाह में रखने के लिए ऐसे विषैले उत्पादों को आज भी विकसित और विकासशील देश की होड़ में लगे लगभग सारे देश तंबाकू को संरक्षण प्रदान कर रहे हैं।

भारत जैसे देश में यह स्पष्ट है कि अमेरिका से आयातित यह पत्ते आज करीब-करीब हर दूसरे व्यक्ति के जीवन में स्थान बना चुके हैं। मुंह का कैंसर बहुत सामान्य घटना हो चुकी है। व्यक्ति इस बात पर कभी विचार ही नहीं करता है कि जितना पैसा वह तंबाकू उत्पादों को खाकर बर्बाद करता है, उतने पैसे से वह किसी गरीब व्यक्ति की सहायता कर सकता है।

यही नहीं एक सामान्य व्यक्ति इस तथ्य को भी नहीं जान पाता है कि बराबर मुंह में तंबाकू या उसके बने उत्पादों को खाने से मुंह के अंदर निकलने वाले लार में उपस्थित टाइलिन एंजाइम को हम थूक के रूप में लगातार बाहर थूकते रहते हैं। जिससे खाने की अम्लीयता को कम करने वाला क्षारीय तत्व शरीर को मिल ही नहीं पाता है और शरीर में अम्ल क्षार के असंतुलन के कारण तमाम तरह के रोग उत्पन्न हो जाते हैं। चाहे वह लीवर से संबंधित रोग हो और चाहे हृदय से संबंधित रोग हो या फिर अंतिम स्थिति के रूप में कैंसर जैसे भयानक रोग हो..। जिसका इलाज पूर्णतया आज भी नहीं संभव है।

..और इसीलिए अपने नैतिकता के प्रदर्शन में पूंजीवादी व्यवस्था और सरकार के प्रयासों का प्रतीक सिर्फ इस बिंदु में खोजा जा सकता है कि प्रत्येक तम्बाकू उत्पाद पर यह लिखा रहता है कि सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है या तंबाकू खाना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है या जानलेवा है। भारत जैसे देश में जहां साक्षरता ज्यादा है पढ़े-लिखे लोग कम है वहां पर इस तरह चेतावनी लिख देने को कर्तव्यों की संपूर्णता के रूप में देखा जाता है जो कि एक तरह से कूट व्यवस्था है। जिसमें लोग यह जान ही नहीं पाते कि उत्पादों पर लिखा क्या है?

विश्व तंबाकू दिवस के दिन सबसे महत्वपूर्ण तथ्य है कि प्रत्येक व्यक्ति यह सोचे कि जिस भी राष्ट्र में वह रहा है। उस राष्ट्र मैं उसके जीवन की कीमत पूंजीवादी व्यवस्था के सापेक्ष क्या है और पूंजी के अविरल प्रवाह को बनाए रखने के लिए उसके जीवन की कीमत को किस स्तर तक समझा जा रहा है। जिसके कारण लगातार मानव जीवन मौत के साथ होकर गुजरता है।

यह एक प्राकृतिक सत्य है कि चंदन की शीतलता सबसे ज्यादा सर्प को आकर्षित करती है और दुनिया के जितने भी विषैले पदार्थ हैं, मादक द्रव्य हैं वह मानव जीवन को सबसे ज्यादा आकर्षित इसीलिए करते हैं पर निर्धारित मानव को करना है कि इन सबके साथ रहते हुए वह तटस्थ रहे और इनका प्रभाव अपने ऊपर ना पड़ने दे तभी विश्व स्वास्थ संगठन की 2021 की थीम छोड़ने के लिए प्रतिबद्ध का कोई महत्व है, कोई सार है।

अब ऐसे दिवस के दिन सोचना आपको है कि आप भस्मासुर बन कर अपने जीवन को प्रतिदिन समाप्त करने की ओर बढ़ना चाहते हैं, कैंसर के दर्द को लेकर जीना चाहते हैं, अपने घर की आर्थिकी को ध्वस्त करना चाहते हैं या अपने शरीर को प्रकृति और भगवान का एक वरदान मानते हुए इसे तंबाकू रूपी सर्प से उसे बचाते हुए चंदन बनकर इस दुनिया में महकना चाहते हैं। पर सारा दारोमदार मनुष्य पर ही है। ना तो पूंजीवादी व्यवस्था को कुछ करना है ना सरकार को ही करना है ! अपने हाथ जगन्नाथ वाले दर्शन से ही विश्व तंबाकू दिवस के उद्देश्य को कुछ सार्थक किया जा सकता है।

डॉ आलोक चांटिया