कंपकपाती शिशिर की शीत और गरीब

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# शिवचरण चौहान
महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने लिखा है
शिशिर की शर्वरी
हिंस पशुओं से भरी।
ऐसी दशा विश्व की
विमल लोचनों ने देखी
जगा त्रास।
हृदय संकोचनों की नाची
दिगंबरी प्रात। किरन हाथ प्रातः बढ़ाया कि भय के हृदय से पकड़कर छुड़ाया।
चपलता पर मिली अपलप थल की तरी।।
शिशिर की रात का निराला ने बखूबी वर्णन किया है।
भारतीय जनमानस को छह ऋतुएं हमेशा प्रभावित करती रही हैं। बरसात के बाद शरद ऋतु आती है। शरद ऋतु में मौसम सुहाना होता है। हल्की गुलाबी ठंड अच्छी लगती है। शरीर को सूर्य की किरणें शहद सी मीठी लगती हैं। पर हेमंत और शिशिर तो पूरी प्रकृति को ही थरथरा जाते हैं।

आ गया हेमंत प्यारे।
कांपते थर थर सितारे।।
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आवत ही हेमन्त के कम्पन लगो जहा न __ पद्माकर।
हेमंत के आते ही शीत का जोर बहुत बढ़ जाता है। सितंबर अक्टूबर यानी क्वार, कार्तिक महीनों के समाप्त होते ही अगहन और पूस यानी 15 दिसंबर और जनवरी से 15 फरवरी तक कड़ाके की ठंड सर्दी पाला और पहाड़ों पर बर्फ पड़ती है। पेड़ों की पत्तियां पीली होकर झड़ जाती हैं। फूल मुरझाने लगते हैं। तितलियां पंख नहीं फड़फड़ा बातें। पंछियों चिड़ियों की कतारें पेड़ों की फुंगियों और बिजली के तारों मोबाइल के टावर पर बैठकर दोपहर में धूप सेंकती हैं। गिलहरी शिशिर की वजह से पेड़ की आखिरी डाली पर बैठ कर टिल टिलाटी है। लोग हीटर अंगीठी अलाव तपता तापते हैं। पुआल, कंडा, लकड़ी जलाकर शिशिर से अपनी जान बचाते हैं। जिनके घर में एसी लगे हैं वे वातानुकूलित माहौल में रहकर सर्दियां बचाते हैं। रजाई कंबल, शाल दोशाला, कंटोप, मोजे दस्ताने, मफलर सब के कानों पर शरीर पर लिपट जाते हैं।

कहावत है गर्मियां गरीबों की और सर्दियां अमीरों की। सर्दियों में अमीर तो आराम से अच्छा-अच्छा खा पीकर स्वस्थ रहते हैं पर गरीब की जान पर बन आती है। भारत में कितनी मौतें हैं सर्दी लगने से होती हैं उतनी शायद किसी अन्य वजह से नहीं होती। इसीलिए निराला ने लिखा है की शिशिर की रात खतरनाक जंगली जानवरों से भरी है। शिशिर के खतरनाक जंगली जानवर किस मनुष्य को अपना शिकार बना लें कहा नहीं जा सकता।

हेमंत और शिशिर गरीबों के लिए काल बनकर आती है। कहने को तो सरकारें कहती हैं कि उसने अलाव जलवाए कंबल बटवाए, चाय और बिस्कुट वितरित करवाए पर यह सब बातें नाकाफी साबित होती हैं। न जाने कब से लोक ग्राही सरकारें गरीबों के हित की बातें करती हैं और आज तक गरीबी भारत से गई ही नहीं। गरीबों को सड़क किनारे बस अड्डा रेलवे स्टेशनों या किसी भी सार्वजनिक स्थल पर ठिठुरते हुए देखा जा सकता है।
कहावत है….
आया अगहन
चूल्हे में अदहन।।
अगहन में दिन इतना छोटा होता है कि चूल्हे में रोटियां बनाते ही दिन बीत जाता है।
आया पूस।
रजाई में घूस।।
पूस यानी जनवरी में रजाई में छिपे ही दिन बीत जाता है। रजाई से निकलने का मन ही नहीं करता। कुछ लोग पकौड़ी या अन्य गर्म चीजें खाकर सर्दियों का लुफ्त उठाते हैं। पर शिशिर गरीबों पर कहर बनकर टूटती है। लोक कवि घाघ ने कहा है
बच्चों से हम बोलत नाही
जवान लगे सग भाई
बूढ़ों को हम छोड़त नाही
चाहे ओढ़े फिरे रजाई।।
सच में शिशिर वृद्ध लोगों के लिए काल बनकर आती है। थोड़ा सा चूके नहीं की यमराज का बुलावा आ जाता है।
धनु के पंद्रह, मकर पचीस।
चिल्ला जाड़ा दिन चालीस।।
धनु राशि के पंद्रह दिन और मकर के 25 दिन सूर्य धरती से दूर रहता है और कड़ाके की ठंड होती है इसे ही इ चिल्ला जाड़ा कहते हैं। चिल्ला जाड़ा इसी ऋतु में ही पड़ता है। शीत के 40 दिन गरीबों के लिए आफत बनकर आते हैं। ना रहने का ठिकाना ना खाने का ठिकाना। किसी शायर ने लिखा है
आशियाना न आबदाना है।
हम गरीबों का क्या ठिकाना है।।

सर्दी गरीबों पर कहर बनकर टूट टी है। मौत का संदेश लेकर आती है। समाज सेवा में लगे तमाम तमाम समाज सेवक समाजसेवी संस्थाएं गरीबों को चाय गरीबों को कंबल रजाई बांटने की फोटो खींचा कर सोशल मीडिया में शेयर कर दो दानवीर कर्ण बन जाते हैं। असल में गरीब की कोई सुनने वाला नहीं है गरीब के लिए सर्दियां जानलेवा होती हैं।
माघ मास की पंचमी को बसंत पंचमी मनाई जाती है और तभी से शीत का प्रकोप, शिशिर का गुस्सा कम होने लगता है।
आई माघ की पाचे।
बूढ़ी, डुकरिया नाचें।।
माघ महीने में बसंत पंचमी के आते ही बूढ़े और बुढ़िया यानी कि वृद्ध मनुष्य अपने को सुरक्षित महसूस करने लगते हैं। सूर्य धरती के करीब आने लगता है और ताप बढ़ने लगता है। जब जाडा कम हो जाता है सूरज थोड़ा गरमाता है।
वह भूमि रम्य तो है पर छह ऋतुओं की अति जड़ चेतन पशु पक्षी और मनुष्य को बहुत विचलित करती है। बरसात में जब बहुत ज्यादा पानी बरसता है।