मैंगो मैन के आम, गुठलियों के भी दाम

मैंगो मैन की ऊंची उड़ान........ बिल्ली के भाग से छीका फूटा। जैसा चाहा एकदम वैसा ही हुआ। अब कामयाबी से मिली खुशी का पैमाना भलाभल्ल छलक रहा है

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मैंगो मैन की ऊंची उड़ान…….. बिल्ली के भाग से छीका फूटा। जैसा चाहा एकदम वैसा ही हुआ। अब कामयाबी से मिली खुशी का पैमाना भलाभल्ल छलक रहा है। इसी खुशी मैंगो पार्टी दे डाली। रकम-रकम के आम। पता नहीं उन्हें देसी सूट करता भी कि नहीं। प्रजातियां भी एक से बढ़कर एक हैं। जैसे किरहा, गोलकी, भच्च, बे-महरिया, खटुआ आदि। फिलहाल एक के बाद एक ग्रैंड पार्टी का दौर चल रहा। है। कभी ग्रेटर नोएडा में दो-ढाई हजार चुनींदा लोगों की आलीशान पार्टी तो कभी दिल्ली कांस्टीट्यूशनल क्लब में। (प्रेस क्लब योफी इंडिया वाली हुई कि नहीं) पार्टी देकर सारा दी बर्बाद नेताजी जिंदाबाद का नारा बुलंद है।

इसमें कानपुर की तीन पार्टियों का तो शुमार ही नहीं। चौथी मैंगो पार्टी। इसके अलावा एक और मुनादी कर दी कि हमारी सियासी पार्टी के हर खास-ओ-आम (वो वाला आम नहीं) को इत्तिला की जाती है कि आपको आपकी मेहनत का फल मेहनताना देकर नहीं, आउटिंग कराके दिया जाएगा। चाहो तो पूरी ट्रेन बुक करा लो। जहां मन हो वहां जाओ। विदेश घूम आओ। सारा खर्चा हम उठाएंगे। किसी ने पीछे से ढोल बजाया ढम ढमा ढम ढम..। हां भैया हां भैया कहते हुए लोग गिल-गिल कम्पट हो गए। सुना है घूमने वालों की सूची बन रही है। शेर याद है न जो छपा करता था कि ‘इंसान के हाथों की बनाई नहीं खाते/हम आम के मौसम में मिठाई नहीं खाते।’ मन तो कुलांचे मार रहा थ की नेपथ्यसे आवाज गूंजी, ‘अबे ओ ताश के तिरपनवे पत्ते चुप बैठ। सियासत में दिखावे को दोस्ती न मिला/गर दिल नहीं मिलता तो हाथ भी न मिला।’

नकफुसरा बैठा कनिया मा : भैया हो, आजकल सबसे पुरानी पार्टी में बड़ी गपड़चौथ मची है। हार का ठीकरा फोड़े के लिए खोपड़ी ढूंढ़ी जा रही। चुनाव लड़े एक नेता अपने प्रिय नकफुसरे नेता को बचाने के लिए उन्हें कनिया लीन्हे घूम रहे हैं। दूसरा गुट हार का ठीकरा इसी नकफुसरे पर फोड़ने को तैयार है। नेताजी कभी अपने रुमाल से उसकी नाक पोछते हैं तो कभी आंखों का कीचड़। मूड़ में तेल चुपड़कर उसके दिमाग को ठंडा करने के लिए लोरी भी गाते हैं, ‘चक चक चंदिया, तेल लगाएं मन्दिया, खाये दूध भतिया, निकल आएं दतिया।’ अच्छा एक बात यह भी है कि नकफुसरा कनिया से उतरकर कभी कभी लखनऊ तक पोलिटिकल उछलकूद मचाने को मचलता है लेकिन वह नियंत्रण में भी है। मचलने, उछलने-कूदने पर लॉलीपॉप देकर शांत कर दिया जाता है।
कभी न कभी तो कनिया से उतारना ही होगा, नेता जी।

और अंत में : आटा दाल का भाव पता है? यह कहावत बन गयी है जिसका उपयोग हर सन्दर्भ में चल जाता है। पर यहां तो योगी सरकार के खेती-बारी यानी कृषि मंत्री को सही में नहीं पता है कि आटा-दाल का भाव क्या है। कभी कुछ तो कभी कुछ बताने लगते हैं।

महेश शर्मा वरिष्ठ पत्रकार