भगवान शिव का तीसरा नेत्र भी रहा विफल………समुद्र मंथन से श्री सुरभि गाय का प्राकट्य हुआ। गौ माता के शरीर में समस्त देवी देवता एवं तीर्थो में निवास किया। देवताओ ने गौ माता का अभिषेक किया और श्री सुरभि गाय के रोम रोम से असंख्य बछड़े एवं गौए उत्पन्न हुये। उनका वर्ण श्वेत (सफ़ेद) था। वे गौ माताए एवं बछड़े विविध दिशाओ में विचरण करने लगे।
एक समय सुरभी का बछड़ा मां का दूध पी रहा था। गौ एवं बछड़ा उस समय कैलाश पर्वत के ऊपर आकाश में थे। भगवान शिव ने उस समय समुद्र मंथन से उत्पन्न हलाहल विष पान किया था अतः उनके शरीर का ताप बढ़ने से भगवान शिव श्री राम नाम के जाप में लीन थे। गौ के बछड़े के मुख से दूध का झाग उड़कर श्रीशंकर जी के मस्तक पर जा गिरा।
इससे शिवजी को क्रोध हो गया, यद्यपि शिवजी गौमाता की महिमा को जानते है परंतु गायो का माहात्म्य प्रकट करने के लिए उन्होंने कुछ लीला करने हेतु क्रोध किया।
शंकर जी ने कहा कि यह कौन पशु है जिन्होंने हमें अपवित्र किया ? शंकर जी ने अपना तीसरा नेत्र खोला, परंतु गौ माताओ को कुछ नहीं हुआ। शंकर जी की दृष्टि अमोघ है अतः कुछ परिणाम तो अवश्य होगा। इसलिए गौ माता शिवजी की दृष्टि से अलग अलग रंगो में परिवर्तित हो गयी। तब प्रजापति ने ब्रह्मा ने उनसे कहा प्रभो ! आपके मस्तक पर यह अमृत का छींटा पड़ा है।
बछडों के पीने से गाय का दूध जूठा नहीं होता। जैसे अमृत का संग्रह कर के चन्द्रमा उसे बरसा देता है, वैसे ही रोहिणी गौएं भी अमृत सेे उत्पन्न दूध को बरसाती हैं। जैसे वायु, अग्नि, सुवर्ण, समुद्र और देवताओं का पिया हुआ अमृत कोई जूठे नहीं होते, बैसे ही बछड़ों को दूध पिलाती हुई गौ दूषित नहीं होती। ये गौएँ अपने दूध और घी से समस्त जगत् का पोषण करेंगी। सभी लोग इन गौओ के अमृतमय पवित्र दूध रूपी ऐश्वर्य की इच्छा करते हैं। इतना कह कर सुरभि एवं प्रजापति ने श्रीमहादेव जी को कईं गौएँ और एक वृषभ दिया।
तब शिवजी ने भी प्रपत्र होकर वृषभ को अपना वाहन बनाया और अपनी ध्वजा को उसी बृषभ के चिह्न से सुशोभित किया।
इसी से उनका नाम ‘वृषभध्वज’ पड़ा। फिर देबताओ ने महादेव जी को पशुओ का स्वामी (पशुपति) बना दिया और गौओ के बीच में उनका नाम बृषभांक रखा गया। गौएं संसार सर्वश्रेष्ठ वस्तु हैं। वे सारे जगत को जीवन देने वाली हैं। भगवान शंकर सदा उनके साथ रहते हैं। वे चन्द्रमा से निकले हुए अमृत्त से उत्पन्न शान्त, पवित्र, समस्त कामनाओ को पूर्ण करने वाली और समस्त प्राणियों के प्राणों की रक्षा करने वाली हैं।