विश्व बाल श्रम निषेध दिवस सिर्फ एक परिकल्पना !

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प्रकृति में पाए जाने वाले सभी जीव जंतु पेड़ पौधे एक निश्चित समय तक सिर्फ अपने अंदर के गुणों को बढ़ाने और परिपक्वता तक पहुंच कर उस पौधे या पशु जगत के विशेष गुणों को उसी रूप में प्रदर्शित करने का प्रयास करते हैं। जिसके अंतर्गत उनके पूर्वज प्रकृति में परिणाम देते रहे हैं।

यही सब कुछ मनुष्य के लिए भी सत्य होना चाहिए था लेकिन संस्कृति जैसे शब्द ने प्राकृतिक रूप से मानव शिशु के सामने यह चुनौती रख दी कि वह कृत्रिम तरीके से भी सामाजिकरण के उन तथ्यों को सीखने का प्रयास करें। जिससे मानव द्वारा बनाई गई संस्कृति स्थापित रहे और यह तथ्य भी बहुत समय तक सकारात्मक सा प्रतीत हुआ लेकिन जैसे-जैसे जनसंख्या बढ़ती गई प्राकृतिक संसाधनों और जनसंख्या के बीच असंतुलन पैदा होता गया।

वैसे वैसे मनुष्य ने ना सिर्फ हाइब्रिड कल्चर के अंतर्गत अपरिपक्व पौधों से फल प्राप्त करने की इच्छा और प्रयास आरंभ कर दिया बल्कि अपने ही पैदा किए गए बच्चों से भी उन कार्यों की आशा करने लगा जो उन बच्चों को परिपक्वता पर करना चाहिए था। क्योंकि अब मानव को पृथ्वी पर अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए सिर्फ प्राकृतिक आपदाओं से नहीं बचना था बल्कि संसाधनों को प्राप्त करने के लिए संघर्ष की न्यूनतम स्थिति के लिए प्रचलित मुद्रा को अर्जित करने का प्रयास ज्यादा से ज्यादा करना था।

इसके उसने नासिर बच्चों को ज्यादा पैदा किया बल्कि बच्चों को भी परिपक्वता से पहले मुद्रा अर्जुन का एक बेहतर साधन समझकर उपयोग करने लगा। जिसका परिणाम यह हुआ कि ज्यादा से ज्यादा प्राकृतिक संसाधनों का दोहन हुआ.. जमीनों की उर्वरता समाप्त हुई.. समय से पहले फल सब्जी पेड़ पौधों से प्राप्त करने के चक्कर में दूषित और विषाक्त फल और सब्जी मिलने लगे।

वैसे ही समय से पूर्व बच्चों के द्वारा अर्जुन की प्रक्रिया में समाज को ऐसे बच्चे प्राप्त होने लगे चीन के अंतर्गत स्वाभाविक उन्नति और प्रगति के भाव के बजाय एक कृत्रिम स्थिति ज्यादा दिखाई देने लगी। जिसके कारण समाज को देश को विश्व को उस तरह के बच्चे नहीं प्राप्त हुए। जिनके अंदर उनका बचपन दिखाई देता हो और इस अव्यवस्था को संयुक्त राष्ट्र संघ की अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन द्वारा 2002 में महसूस करते हुए विश्व बाल श्रम निषेध दिवस का आरंभ किया गया।

वर्ष 2021 में किस दिवस का थीम विषय है.. अब करिए और बाल श्रम रोकिए। इसके साथ ही यह भी संकल्पना है कि वर्ष 2025 तक संपूर्ण विश्व में हर तरह के बाल श्रम को समाप्त कर दिया जाएगा। जबकि पूरे विश्व में वर्तमान में करीब 16 करोड़ बालक श्रमिक है। जिसमें से सिर्फ 12600000 बाल श्रमिक भारत में है। ऐसा नहीं है कि यह स्थिति सिर्फ कम आय वाले देशों में ही सीमित है।

अमेरिका जैसे देश में भी करीब 5% बच्चे बाल श्रमिक हैं। यूरोपिय और एशिया के देशों में भी करीब 4% बच्चे बाल श्रमिक हैं जबकि अरब के देशों में 3% बच्चे बाल श्रमिक हैं। पिछले 4 सालों में करीब 8400000 बाल श्रमिक वैश्विक स्तर पर बढ़े हैं। यह एक बहुत ही बड़ा प्रश्न किसी के सामने आता है। कि बाल श्रम है क्या.. ऐसा कोई भी कार्य जो 5 वर्ष की आयु से लेकर 17 वर्ष की आयु के बच्चों द्वारा किया जा रहा हो और जिससे उनका शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और शैक्षिक विकास बाधित हो रहा हो, वह बाल श्रम कहलाता है।

वैसे तो भारतीय संविधान में 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों द्वारा किया जाने वाला कार्य बाल श्रम कहलाता है लेकिन यदि वैश्विक स्तर की परिभाषा में 1 सप्ताह में 21 घंटे के घरेलू कार्य को लड़कियों के साथ जोड़ दिया जाए तो वैश्विक स्तर पर बाल श्रम का दायरा लिंग आधार पर बढ़ जाता है। वैसे वैश्विक स्तर पर बच्चों में लड़के ज्यादा बाल श्रम में लगे हैं लेकिन घरों में लड़कियों को सामाजिकरण के नाम पर घरेलू कामों में लगाए रखते हुए उन्हें मनोरंजन खेलकूद आदि से दूर करना भी एक ऐसा बाल श्रम का क्षेत्र है। जिस पर भारत जैसे देश में भी काफी कम काम हुआ है।

आज स्थिति यह है कि प्रत्येक 10 बच्चों में विश्व में एक बच्चा बाल श्रमिक है लेकिन जब इस स्थिति को अफ्रीका और एशिया के देशों के आधार पर आकलन के स्तर पर देखा जाता है तो प्रत्येक 4 बच्चों में एक बच्चा बाल श्रमिक है। जिसमें से ज्यादातर बच्चे ग्रामीण क्षेत्रों में बाल श्रम में संलग्न है। जिनका प्रतिशत 14% है जो शहरी क्षेत्रों के 5% बाल श्रमिकों से करीब 3 गुना ज्यादा है।

ऐसी स्थिति में यह सोचना एक महत्वपूर्ण कार्य होगा कि किस अर्थ में बच्चों को भगवान की मूरत कहा गया है और वैश्विक स्तर पर बच्चों को चाइल्ड इस द फादर ऑफ मैन कहा गया है। यदि यह दोनों बातें आज विलोपित दिखाई दे रहे हैं तो यह स्वता ही सिद्ध है कि वैश्विक स्तर पर मूल संस्कृति का विलोपन हुआ है या वह विघटित हुई है। आज बच्चों को लेकर यह नहीं माना जा रहा है कि वह भगवान की मूरत है क्योंकि भगवान के प्रति इस तरह की क्रूरता किया जाना धार्मिक स्तर पर भी अनुमन्य नहीं है।

वैसे तो वैश्विक स्तर पर मांटेसरी पद्धति में नर्सरी को शैक्षिक विधा में वह कक्षा माना गया है। जहां पर बच्चे के अंदर उस तरह का वातावरण पिरोया जाता है। जिसमें वह शिक्षा लेने के तरफ अग्रसर हो सके और यही नर्सरी का भाव उस पेड़ पौधों वाली नर्सरी में भी समाहित होता है। जहां पर एक परिपक्व को पेड़ को उसके फल फूल के लिए तैयार करने से पहले एक शिशु अवस्था में उसी के पौधों को मिलने का स्थान सुनिश्चित होता है।

ऐसी स्थिति में मानव संस्कृति बच्चों के लिए भी ऐसी नर्सरी के रूप में होनी चाहिए थी, जहां पर बच्चे का सर्वांगीण विकास उसकी परिपक्वता से पहले हो सके लेकिन यदि ऐसा नहीं हो रहा है तो मानव संस्कृति अपने निर्माण के अर्थ में विघटित हुई है और वह स्वयं ही भस्मासुर बन कर अपने ही मानव बच्चों के शोषण का एक आधार बन गई है और उनके जीवन को उतना ही असुरक्षित बनाने की ओर अग्रसर हुई है। जितना प्रकृति के साथ रहते हुए मानव प्राकृतिक विपदा ओं जीव जंतुओं से असुरक्षित था।

इसीलिए विश्व बाल श्रम निषेध दिवस स्वर प्रत्येक व्यक्ति को यह मनन करने की आवश्यकता है कि 2025 तक वह इस स्तर पर अपने को मानसिक स्तर पर क्या तैयार कर पाएगा। जिसमें वह स्वयं या आकलन कर सके कि वह अपने चारों तरफ के बच्चों को उनके प्राकृतिक मनोरंजन निर्माण प्रगति से दूर रख कर क्या उन्हें सिर्फ अपने कार्यों की पूर्ति का एक साधन समझ रहा या नहीं जिस दिन संपूर्ण विश्व में मानव के मस्तिष्क में यह विमर्श पैदा हो जाएगा। वही दिन विश्व बाल श्रम निषेध दिवस का आदर्श दिन होगा अन्यथा यह सिर्फ एक कल्पना होगी कि पृथ्वी से पूरी तरह बालश्रम मिटा दिया जाएगा।

डॉ आलोक चांटिया