बेगम की शादी के सात साल बाद लखनऊ आकाशवाणी से हुई थी गायन की शुरूआत

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बॉलीवुड में चमके लखनऊ के फनकार

रामपुर के नवाब ने उनसे शादी की तजवीज रखी तो अख्तरी बाई को अपनी आजादी खोने का अहसास होने लगा। उन्होंने बड़ी शाइस्तगी से इस पेशकश को ठुकरा दिया आैर लखनऊ लौट आई। नवाब रामपुर से ध्यान हटाने के लिए अख्तरी बाई ने अपना ध्यान लगाया इश्तियाक अहमद अब्बासी में लगा दिया। कुछ ही समय पहले उनकी बीवी की मौत हुई थी।
अख्तरी बाई ने नवाब रामपुर व फिल्मों से किनारा कर लिया लेकिन उनको एक सामाजिक स्वीकृति आैर सुरक्षा की चाहत ने उन्हें इश्तियाक साहब की करीबी सईदा अहमद के दर पर ला खड़ा किया।

बकौल सईदा,’एक दिन मैं अपने घर पर बैठी थी। अख्तरी फैजाबादी आयी आैर बोलीं, ‘आप इश्तियाक अहमद को जानती हैं?” मेरे हां कहने पर बोलीं, ‘मेरी उनसे शादी करा दो।” मैं अवाक् रह गयी। न जान न पहचान सीधे रिश्ते की बात। मैं कहा ठीक है मैं आपका संदेशा उन्हें पहंुचा दूंगी। इश्तियाक मियां तशरीफ लाये तो मैंने उसी अंदाज में कहा ‘अख्तरी से शादी कर लो।” वो मुस्कुराए आैर बोले, ‘अत्तो ने पकाई मुर्गी, बत्तो ने पकायी दाल, अत्तो की मुर्गी जल गयी, बत्तो का बुरा हाल।” मैंने कहा मजाक छोड़िये, इस पर गौर फरमाइये। वो मेरे बच्चे के साथ खेलते रहे आैर बिना कुछ बोले चले गये। मु्झे बाद में पता चला कि ये दोनों बाहर मिलते हैं।

अख्तरी हफ्ते भर बात फिर तशरीफ लायीं। मैं पूरा वाक्या कह सुनाया। 1945 का साल रहा होगा। फिर एक दिन खबर आयी कि दोनों निकाह कर रहे हैं। मैं आैर मेरे शौहर एक नौकर गुलाब आैर इश्तियाक मियां उनके आफिस में इकट्ठा हुए। मैंने अपने निकाह का डुपट््टा उन्हें ओढ़ाया आैर मोलवी ने निकाहनामा पढ़ा। इस तरह वे अख्तरी से बेगम अख्तर हो गयीं।

निकाह पढ़ने से पहले उन्होंने कौल दिया कि वे जब तक शौहर नहींं कहेंगे गाना नहीं गायेंगी। शादी के बाद वो इश्तियाक साहब के पिता के घर मतीन मंजिल में आ गईं। इसके बाद इश्तियाक ने हवेली खरीदी। उन्हें इश्तियाक मियां से कोई आैलाद नहीं हुई। 1951 का साल उनके लिए मुसीबतों को पहाड़ लेकर आया। जिस अम्मी मुश्तरी बाई पर वो जान छिड़कती थीं वो साथ छोड़ गयीं। वे इस सदमे को वो बर्दाश्त न कर सकीं आैर उन्होंने बिस्तर पकड़ लिया। उन्होंने डिप्रेशन से निकलने के लिए शराब आैर सिगरेट का सहारा लिया। वे धुआंधार सिगरेट पीने लगी थीं।

बताते हैं कि फिल्म ‘पाकीजा” उन्होंने छह बार देखी। कारण यह था कि सिगरेट की तलब के चलते वो सिनेमा हाल से बाहर आतीं आैर जब लौटतीं तो फिल्म आगे निकल चुकी होती। एक साल तक इलाज चला लेकिन जब कोई सुधार न हुआ। उनकी हालत दिन ब दिन बिगड़ती हालत को देखकर डाक्टर आैर आकाशवाणी के साथियों के कहने पर कि उन्हें स्टेज पर न सही आकाशवाणी पर तो गाने की इजाजत दें। इश्तियाक मियां तैयार हो गये लेकिन लखनऊ में गाने की पाबंदी लागू रही। लम्बे गैप के बाद गाने की दुनिया में लौटने आसान नहीं था। वो अपना आत्मविश्वास लगभग खो बैठी थीं। उन्हें इस बात की फिक्र सताने लगी कि लोग उन्हें पहले की तरह स्वीकार करेंगे या नहीं। दिल आैर दिमाग मजबूत कर आखिर वो लौटीं और गाना शुरू किया। उनकी आवाज का जादू सिर चढ़कर बोलने लगा। 1952 में आल इंडिया रेडियो के संगीत समारोह में शिरकत की महफिल लूट ली। उनके रिकार्ड पर रिकार्ड रिलीज हो रहे थे। फिल्मों में काम करने के आफर भी आने लगे।

उन्होंने काम करने बजाए पाश्र्व गायन की हामी भर दी। नाग रंग (1953), दाना पानी (1953) व एहसान (1954) जैसी कुछ फिल्मों के लिए प्लेबैक किया। 1958 में बनी फिल्म ‘जलसाघर” के लिए उन्होंने गायन के साथ अभिनय भी किया क्योंकि इसके लिए वे इंकार नहीं कर सकीं क्योंकि ये अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मशहूर निर्देशक सत्यजीत रे बना रहे थे। इसके बाद उन्हें विदेशों से भी गायन के आफर आने लगे। भारत सरकार उनसे सांस्कृति प्रतिनिधि मंडल में शामिल होने की पेशकश कर चुकी थी। 1961 में भारत सरकार के प्रतिनिधि मंडल में शामिल होकर वे पाकिस्तना टुअर पर गयीं। वहां उन्होंने ठुमरी दादरा व गजलें सुनाकर सबको अपना दीवाना बना दिया। उन्हें लगा कि उनकी पहंच देश की सीमा के बाहर भी है। 1963 में अफगानिस्तान की यात्रा पर गयी आैर 1967 में रूस में अपनी गायकी का से सबको दीवाना बना दिया।

इसके बाद उनके कदम रुके नहीं। उन्होंने काफी देशों में अपने प्रोग्राम दिये। उन्हें अपनी कला को बांटने का ख्याल आया तो उन्होंने कई लड़कियों को अपने साथ जोड़ लिया। शांति हीरानंद, रीता गांगुली व अंजलि चटर्जी आदि को गंडा बांधकर सिखाना शूरू किया। वो बंद कमरे में सिखाने में यकीन नहीं रखती थीं। वे लङ़कियों को अपने साथ स्टेज पर ले जातीं आैर लाइव सिखातीं।

वो हिन्दुस्तान में घूम घूमकर शोज कर रही थीं। उनकी एक शिष्या शांति हीरानंद बताती हैं कि एक प्रोग्राम देने वो बम्बई जा रही थीं। रात का समय था। उनका सिगरेट का स्टाक खत्म हो गया था। महाराष्ट्र के किसी सूनसान स्टेशन पर ट्रेन रुकी। उन्होंने मुझसे सिगरेट खरीद कर लाने को कहा। मैंने देखा कि चारों परकिया तरफ घुप्प अंधेरा है। जब मैंने बताया कि यहां कोई दुकान नहीं है। वो बोलींं तू हट। मैं देखती हंू। वो उतरीं। सामने गार्ड खड़ा था उसको प्यार से बुलाया। वो आया तो उससे कहा कि मुझे सिगरेट ला दो। उसने साफ मना कर दिया कि यहां सिगरेट की कोई दुकान नहीं है। उन्होंने झट उसकी लालटेन आैर झंडी छीनकर सौ का एक नोट थमाया आैर बोली, ‘मैं नहीं जानती मुझे कहीं से भी लाकर दे।” गार्ड गया आैर सिगरेट लाकर जब उनके हाथ पर धरी तब कहीं गाड़ी आगे बढ़ी। उन्हें सिगरेट की तलब इतनी ज्यादा थी कि रमजान में वो केवल आठ या नौ रोजे ही रख पाती थीं।

उनके पास एक मोती का हार था, जो सात परत वाला था। आफ सीजन में वो इसे गिरवी रखकर पैसे लेतीं और संगीत का सीजन शुरू होने पर पैसे देकर हार वापस ले लेतीं। ये सिलसिला उनकी मौत तक करीब सात-आठ साल चला। हार लेकर पैसे देने वाले अरविंद पारिख थे, जो ज्वेलर के साथ सितार वादक भी थे। महीना अक्टूबर ही था। बंबई में कन्सर्ट था। शो हाउस फुल था। बेगम अख्तर ने लगातार लोगों की पसंद और फरमाइश पर गजलें सुनाईं। थकान उनके चेहरे पर साफ नजर आ रही थी़। शा कैंसर पेशेंट ऐड सोसाइटी के लिए था। उन्हें तमाम उपहार दिए गए, जो उन्होंने वहीं बांट दिए। जो पैसा मिला, वो सोसाइटी को दे दिया। बंबई के बाद उन्हें अहमदाबाद में कार्यक्रम करना था। शो की एडवांस बुकिंग हो चुकी थी। हाउसफुल होना तय था। 30 अक्टूबर 1974 को बेगम अख्तर अहमदाबाद में मंच पर पर पहंुचीं। सबको शुक्रिया कहा। उसी समय नवाब मंसूर अली खां पटौदी आए, जो उनके बड़े फैन थे। बेगम साहिबा ने खड़े होकर टाइगर पटौदी का इस्तेकबाल किया। रात के साढ़े तीन बज रहे थे। उनकी आखिरी पेशकश ठुमरी थी- ‘सोवै निंदिया, जगाए ओ राम….”। कुछ ही देर में शो का अंत था। तबीयत खराब थी, अच्छा नहीं गाया जा रहा था। ज्यादा बेहतर की चाह में उन्होंने खुद पर इतना जोर डाला तो वो गाते-गाते बेहोश हो गईं। उन्हें मेडिकल हेल्प देकर होटल ले जाया गया। जबरदस्त हार्ट अटैक था। जहां से वे वापस नहीं लौटीं। उनका निधन हो गया। उनके शव को लखनऊ लाया गया. बेगम अख्तर साहिबा की इच्छा के अनुसार लखनऊ के ठाकुर गंज इलाके के पास बसंत बाग में उन्हें सुपुर्दे-खाक किया गया। उनकी मां मुश्तरी बाई की कब्र भी उनके बगल में ही थी।

बेगम अख्तर की मौत के वक्त हार पारिख साहब के पास था। उन्होंने वो हार इश्तियाक अब्बासी को लौटा दिया और बदले में पैसे लेने से मना कर दिया। यह अलग बात है कि बेगम अख्तर की मौत के कुछ ही समय बाद इश्तियाक अब्बासी का भी इंतकाल हो गया। वो कहानी, जो अक्टूबर में शुरू हुई, अक्टूबर में ही खत्म हो गई। इसी के साथ एक कहानी खत्म हो गई। लेकिन बेगम अख्तर की गायकी, उनके अंदाज, संगीत में उनके योगदान का कभी अंत नहीं हो सकता। गजल, दादरा, ठुमरी, चैती, खयाल, मर्सिया, टप्पे … कोई नाम लीजिए, बेगम अख्तर के बगैर पूरा नहीं होगा। भारत सरकार ने इस सुर साम्राज्ञी मल्लिका ए गजल को पद्मश्री और मरणोपरान्त पद्मभूषण से सम्मानित किया था। उन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार भी प्राप्त हुआ था।

बेगम अख्तर के गायीं कुछ मशहूर गजलें व दादरा व ठुमरी-
1-ऐ मुहब्बत तेरे अंजाम पर रोना आया, 2- मेरे हमनफस मेरे हमनवा मुझे दोस्त बनकर दगा न दे, 3- दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे, 4-तबीयत इन दिनों बेगाना ए दम होती जाती है, 5- आए कुछ अब्रा कुछ शराब  आए, 6-वो जो हममें तुममें करार था, तुम्हें याद हो के याद हो, 7- मैं ढूंढता जिसे वो जहां नहीं मिलता, नयी जमीं नया आसमान नहीं मिलता। कुछ दादरा भी देखें- 1- हमरी अटरिया पे आओ संवरिया देखा देखी बलम हुई जाए, 2-जो बेदर्दी सपने में आ जाता, 3- सौतन के लम्बे लम्बे बाल ओ राजा जी, 4-बलमवा तुम क्या जानो प्रीत, 5- जरा धीरे धीरे बोलो कोई सुन लेगा।

# प्रेमेन्द्र श्रीवास्तव