महाकुंभ और सनातन का है आदिकाल से नाता

महाकुंभ और सनातन का है आदिकाल से नाता एक माह का कल्पवास श्रद्धालुओं में करता है असीम शारीरिक और मानसिक ऊर्जा का संचार सनातन की समृद्धि और अपनी पौराणिक मान्यताओं को जानने का एक अवसर भी है यह महा मेला संगम स्नान के बाद अक्षय वट यानी द्वादश वेणीमाधव के दर्शन करने से बढ़ जाता है स्नान का महत्व महाकुंभ आयोजन का समुद्र मंथन की पौराणिक कथा से है गहरा नाता, इस जगह गिरी थीं अमृत की बूंदें मान्यता के अनुसार 12 जगहों पर गिरी थी अमृत की बूंदें, चार पृथ्वी पर और आठ स्थान देवलोक में इन्हीं चार जगहों हरिद्वार, नासिक, प्रयागराज और उज्जैन में अमृत गिरा, जहां लगता है महाकुंभ

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लखनऊ। महाकुंभ हमारी आध्यात्मिक आस्था, सनातन की जीवंत परंपरा और सात्विक जीवन शैली का एक आदर्श उदाहरण है। पूरे कुंभ के दौरान वातावरण ऊर्जामय रहता है। नदियों में विशेष औषधीय गुण आ जाते हैं। इस दौरान किया गया एक माह का कल्पवास लोगों में आध्यात्मिक ऊर्जा तो भरता ही है, साथ में मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य भी बढ़ाता है। बहुत से लोगों का यह अनुभव है कि एक माह के कल्पवास ने उनकी मानसिक और शारीरिक दशा में काफी सुधार किया है। इसलिए भी महाकुंभ का यह आयोजन महत्वपूर्ण होता है। यह सनातन को जगाने का अवसर तो होता ही है, नयी पीढ़ी के लिए अपनी परंपरा जानने का एक मौका भी होता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार समुद्र मंथन के बाद जब अमृत निकला तो उसके लिए देवताओं और असुरों में संग्राम हुआ। संग्राम के चलते अमृत की कुछ बूंदें पृथ्वी पर चार जगहों पर गिरी थीं, जहां महाकुंभ का आयोजन हर बारह साल के अंतराल पर किया जाता है। ये जगहें प्रयागराज, नासिक, हरिद्वार और उज्जैन हैं।

परंपरा के अनुसार महाकुंभ में आने वाले श्रद्धालु न केवल आध्यात्मिक अनुष्ठानों की श्रृंखला में शामिल होते हैं, बल्कि ऐसी यात्रा पर भी निकलते हैं जो सांस्कृतिक, आध्यात्मिक व भौतिक सीमाओं से परे है। इसमें जाति, पंथ या लिंग का भेदभाव दूर कर लाखों लोग शामिल होते हैं। यहां आने वालों में प्रमुख रूप से अखाड़ों, आश्रमों और धार्मिक संगठनों के लोग होते हैं। या फिर वे लोग जो भिक्षा पर निर्भर रहते हैं। महाकुंभ इन सभी के लिए एक केंद्रीय आध्यात्मिक भूमिका निभाता है। यह आम भारतीयों पर जादुई प्रभाव डालता है। महाकुंभ खगोल विज्ञान, ज्योतिष, आध्यात्मिकता, कर्मकांड की परंपराओं, और सामाजिक, सांस्कृतिक रीति-रिवाजों और ज्ञान को अत्यंत समृद्ध बनाता है। महाकुंभ मेला अनुष्ठानों का जीवंत मिश्रण है। माना जाता है कि पवित्र जल में डुबकी लगाने से पापों से मुक्ति मिलती है। स्वयं और पूर्वजों दोनों को पुनर्जन्म से मुक्ति मिलती है। महाकुंभ के दौरान तीर्थयात्री नदी के किनारे पूजा करते हैं और प्रवचनों में भाग लेते हैं। इन दिनों में संतों और विभिन्न अखाड़ों के सदस्यों का शानदार जुलूस निकलता है। वे अमृत स्नान नामक अनुष्ठान में भाग लेते हैं, जिसे ’राजयोगी स्नान’ भी कहा जाता है। यह महाकुंभ मेले की शुरुआत का प्रतीक है।

धार्मिक मान्यता है कि जो निर्मिति है, उसका शोधन होना है। इसी निर्मिति में समस्त चराचर जगत है। इस निर्मिति का एक लय है, आधार है, अध्यात्म है, दर्शन है। इसे ही सनातन धर्म मनीषा महाविज्ञान की संज्ञा देता है। यह अद्भुत है, अद्वितीय है। विश्व की किसी भी सभ्यता के पास इसे समझने की सामर्थ्य नहीं। महाकुंभ मानवता का सबसे बड़ा अध्यात्मिक और सांस्कृतिक समागम है। यूनेस्को ने महाकुंभ के आयोजन को मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर की संज्ञा दी है। दुनिया के 71 देशों के राजदूतों ने इस आयोजन में आकर अपने-अपने देशों के राष्ट्रध्वज यहां स्थापित किए हैं। और महाकुंभ को वैश्विक मान्यता प्रदान की है।

एक माह कल्पवास : महाकुंभ मेले का आयोजन वैसे तो लगभग 45 दिन होता है किन्तु एक माह का कल्पवास सर्वाधिक फलदाई माना जाता है। यह पौष पूर्णिमा से माघ पूर्णिमा तक चलता है। कल्पवास एक कठिन व्रत है, यह एक जीवनदायिनी साधना भी है। यह व्रत जीवन के उद्देश्य को समझने और उसे आध्यात्मिक रूप से सशक्त बनाने का अवसर प्रदान करता है। मान्यता है कि महाकुंभ में कल्पवास करने वालों के मोक्ष का द्वार खुल जाता है। प्रयागराज महाकुंभ में 13 जनवरी 2025 को पौष पूर्णिमा के स्नान के साथ संगम की रेती पर हमेशा की तरह लाखों भक्तों का कल्पवास शुरू है। ये एक आध्यात्मिक अनुभव है। इस दौरान उनकी दिनचर्या अनुशासित और संयमित होती है। कल्पवासी रोज सूरज उगने से पहले गंगा में स्नान कर दिन की शुरुआत करते हैं। और बाकी दिन पूजा-पाठ, सत्संग और कथा में बिताते हैं। इस एक महीने में कल्पवासियों को गजब की मानसिक और शारीरिक प्राप्त होती है। जो उनको असीम शांति प्रदान करती है।

महाकुंभ आयोजन का समुद्र मंथन से है नाता : पौराणिक कथाओं के अनुसार कुंभ का आयोजन समुद्र मंथन के बाद हुआ था। तब देवताओं और राक्षसों ने मिलकर अमृत के लिए समुद्र मंथन किया था। सबसे पहले विष निकला था, जिसे भगवान शिव ने ग्रहण किया। सबसे आखिर में अमृत निकला तो देवताओं ने असुरों से लम्बी लड़ाई के बाद प्राप्त किया था। इसी लड़ाई के दौरान पृथ्वी पर जिन चार जगहों पर अमृत की बूंदें गिरी थीं, वहीं महाकुंभ का आयोजन किया जाता है। काल भेद के कारण देवताओं के 12 दिन मनुष्य के 12 वर्षों के समान हैं। इसलिए महापर्व कुंभ हर स्थान पर 12 साल बाद लगता है। पौराणिक कथा के अनुसार समुद्र मंथन के दौरान देवता और राक्षसों के बीच अमृत के घड़े के लिए 12 दिनों तक लड़ाई भी चली थी। 12 सालों तक चले इस संग्राम में 12 स्थानों पर अमृत की बूंदें गिरी थीं। इसमें आठ जगह देवलोक के थे और चार पृथ्वी के थे। जिन स्थानों में पृथ्वी पर अमृत गिरा वे प्रयागराज, हरद्बार, उज्जैन व नासिक थे। इन चार जगहों पर महाकुंभ मेले का आयोजन किया जाता है। इस दौरान इन जगहों पर बह रही पवित्र नदियों के जल में विशेष उर्जा महसूस की जा सकती है। विशेष नियमों का विधि-विधान पूर्वक पालन करने से आकाश में उपस्थित ग्रहों की उर्ज़ा भी मानव का कल्याण करती है। प्रयागराज में कुंभ का आयोजन वृष राशि में हुआ है। इस समय देवगुरु बृहस्पति का संचार मकर राशि में हो रहा है। प्रयागराज में इससे पूर्व वर्ष 2013 में महाकुम्भ का आयोजन किया गया था। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार अमृत कलश की रक्षा के समय जिन राशियों पर जो ग्रह संचरण कर रहे थे, कलश की रक्षा करने वाले वही चन्द्र, सूर्य, गुरु आदि ग्रह जब उसी अवस्था में संचरण करते हैं तब महाकुम्भ पर्व का योग बनता है।

पौराणिक अक्षय वट भी है आस्था का प्रमुख केन्द्र : पवित्र संगम तट पर अक्षय वट है। ये वहीं अक्षय वट है, जिसकी गिनती द्बादश माधव के रुप में होती है। कहते हैं सृष्टि रचना से पहले परम पिता ब्रह्माजी ने यहां यज्ञ किया था। इस यज्ञ से ही सृष्टि की रचना हुई। ब्रह्माजी ने जब प्रयाग में यज्ञ किया था तब भी अक्षय वट यहां मौजूद था। एक कथा के अनुसार जब राजा दशरथ की मृत्यु के बाद पिंड दान की प्रक्रिया आई तो भगवान राम पिंड दान का सामान इकट्ठा करने चले गए। उस वक्त वहां सीता जी अकेली बैठी थीं। तभी वहां दशरथ जी प्रकट हुए और बोले कि बहुत भूख लगी है, जल्दी से पिडदान करो। उस वक्त मां सीता को कुछ नहीं सूझा तो उन्होंने अक्षय वट के नीचे बालू का पिड बनाकर राजा दशरथ के लिए दान किया। उस दौरान उन्होंने ब्राह्मण, तुलसी, गौ, फाल्गुनी नदी और अक्षय वट को पिडदान से संबंधित दान दक्षिणा दी। जब राम जी वहां पहुंचे तो सीता ने कहा कि पिंड दान हो गया। पर दोबारा दक्षिणा पाने की लालच में नदी ने झूठ बोल दिया कि पिड दान नहीं हुआ है लेकिन अक्षय वट ने झूठ नहीं बोला। उन्होंने रामचंद्र को दान में मिली मुद्रा रूपी दक्षिणा भी दिखाई। इस पर सीता जी ने प्रसन्न होकर अक्षय वट को आशीर्वाद दिया और कहा कि संगम स्नान करने के बाद जो कोई अक्षय वट का पूजन और दर्शन करेगा सिर्फ उसी को संगम स्नान का फल मिलेगा। यह अक्षय वट पिछले 450 सालों से किले में कैद रहा। अब मोदी-योगी के चलते श्रद्धालु कुंभ के बाद इसका भी दर्शन कर पाते हैं। प्रयाग महात्म्य, पद्म व स्कंद पुराण में भी अक्षयवट के दर्शन को मोक्ष का माध्यम बताया गया है। ये भगवान विष्णु का साक्षात विग्रह माना जाता है। यही कारण है कि सनातन धर्म में यह सबसे पवित्र व पूजनीय वृक्ष है। इस वृक्ष को माता सीता ने यह भी आशीर्वाद दिया था कि प्रलय काल में जब धरती जलमग्न हो जाएगी और सब कुछ नष्ट हो जाएगा, तब भी यह हरा-भरा रहेगा। मान्यता है कि बालरूप में भगवान श्रीकृष्ण इसी वट वृक्ष पर विराजमान हुए थे। इसके अलावा बाल मुकुंद रूप धारण करके श्रीहरि इसके पत्ते पर शयन करते हैं। पद्म पुराण में अक्षयवट को तीर्थराज प्रयाग का छत्र कहा गया है। कहते हैं इस पेड़ पर चढ़कर लोग मोक्ष की कामना और पाप से मुक्ति के लिए यमुना नदी में कूद कर जान दे देते थे। बाद में इस परंपरा पर अकबर ने रोक लगा दी थी और किला बंद कर दिया गया। अंग्रेजों के बाद यह किला अब सेना के नियंत्रण में आ गया है।

अभयानंद शुक्ल
राजनीतिक विश्लेषक