आज हम आलस्य पर चर्चा करेंगे। यह विचार चार-पांच दिन पहले हमें आया था। पहले सोचा कि अगली सुबह चर्चा कर लें… फिर सोचा शाम को। सुबह-शाम दोनों बीत गए। चर्चा का मूड नहीं बना। एक विचार यह भी आया कि सुबह-शाम तो रोज़ आते हैं फिर अगले दिन के सुबह-शाम ही क्यों.. कर लेंगे चर्चा कभी भी। ऐसी भी क्या जल्दी है। आलस्य पर ही तो चर्चा करनी है… कोई ट्रेन थोड़े ही पकड़नी है कि वक़्त पर स्टेशन नहीं पहुंचे तो छूट जाएगी। वैसे भी कोरोना की वजह से अभी सारी ट्रेनें कहां चल रही हैं।
खैर, अब ज़्यादा आलस्य न करते हुए सीधे मुद्दे अर्थात आलस्य पर आते हैं। ‘आलस्य’ वैसे तो एक क्रिया है लेकिन क्रिया की श्रेणी में आने के लिए कुछ करना आवश्यक है। और, कुछ करना आलस्य में वर्जित है, इसलिए इसे क्रिया नहीं माना जा सकता। लेकिन आलस्य किया तो जाता ही है। यानी, कुछ न करते हुए भी जो क्रिया हो जाती है… वही आलस्य कहलाती है। ब्रह्म की तरह यह भी अत्यंत गूढ़ दर्शन है, जिसे समझना आसान नहीं है। समझने के लिए तमाम अध्ययन की दरकार होती है और तमाम अध्ययन आलस्य त्यागे बिना संभव नहीं है अतः इस दर्शन को गूढ़ ही रहने देते हैं।
सच कहा जाए तो आलस्य ईश्वर द्वारा मनुष्य को दिया गया वरदान है। ध्यान दीजिएगा, वरदान है यह जो पशु-पक्षियों को नहीं प्राप्त है। आपने किसी आलसी कुत्ते या घोड़े या किसी परिंदे को देखा है। नहीं ना। सब जन्मजात चुस्ती की घुट्टी पीकर आते हैं। पूरा जीवन भौंकते हैं, हिनहिनाते हैं लेकिन क्या लाभ… रहे पशु के पशु ही। जब तक जीते हैं, परेशानी उठाते हैं… आराम उन्हें मृत्यु के बाद ही नसीब होता है। वह भी कनफर्म नहीं। दूसरी ओर आलस्य का कवच पहने आदमी का कोई भी कार्य रूपी शस्त्र बाल-बांका नहीं कर सकता। संसार का कोई एजेंडा उनसे काम नहीं करा सकता। वह सुबह तभी जागता है, जब उसकी मर्ज़ी होती है। किसी घड़ी का अलार्म उसके लिए बना ही नहीं है। कोई रास्ता उसको चला नहीं सकता। कोई मंज़िल उसे लुभा नहीं सकती। वह अजगर को अपना अभीष्ट मानकर पड़ा रहता है।
यह तो संभव है कि उसे ‘निट्ठल्ला’, ‘निकम्मा’, ‘धरती पर बोझ’ आदि विशेषणों से नवाजा जाता हो… लेकिन सच्चे आलसी इससे विचलित नहीं होते और देर-सवेर अपना लक्ष्य प्राप्त कर ही लेते हैं। भाप के इंजन के आविष्कारक जेम्स वाट को भी सब निकम्मा कहते थे। केतली में उबलते पानी की भाप से उसके ढक्कन का उठना-गिरना देख रहे थे। तभी उनके दिमाग में आइडिया आया और आगे चलकर वह भाप के इंजन के रूप में संसार के सामने आया। यह कहना सही नहीं है कि आलसियों का मस्तिष्क खाली होता है। वस्तुत: उनके मस्तिष्क में शून्य होता है। गति मापने का कोई भी मीटर शून्य से ही शुरू होता है। इसलिए शून्य से शुरू होने वाला दिमाग कितनी रफ्तार पकड़ सकता है, इसका अनुमान कोई नहीं लगा सकता। अतः आलसियों को हल्के में नहीं लेना चाहिए।
ईश्वर या प्रकृति ने आलसियों और चुस्त लोगों के बीच कभी भेदभाव नहीं किया। उसने दोनों को दो हाथ, दो पांव दिए हैं। कोई काम कर-करके उन्हें घिस डालता है तो किसी की मैन्युफैक्चरिंग पॉलिश तक नहीं छूटती। 24 घंटे का दिन अगर आलसियों के लिए बनाया गया है तो तेज-तर्रारों को भी कम समय नहीं दिया गया है। सूर्य देवता सबके लिए सुबह ही उदय होते हैं। महिलाएं नौ माह में ही मां बनती हैं… ये नहीं कि चुस्त-दुरुस्त साढ़े चार महीने में लड़कौरी हो जाएं और आलसी साल-सवा साल तक पेट फुलाए रहें। कहने का आशय यह कि आलसियों के साथ पक्षपात तथाकथित तेज-तर्रार लोगों की निकृष्ट सोच का परिणाम है।
दोस्तों! सदियों से आलस्य और आलसियों के साथ घृणा का खेल खेला जा रहा है। लेकिन, किसी आलसी ने इसके खिलाफ आवाज बुलंद नहीं की… क्योंकि मुंह खोले बिना, ज़ुबान हिलाए बिना आवाज़ भी बुलंद नहीं की जा सकती। चूंकि, ज़ुबान या मुंह हिलाना भी आलसियों के प्रोटोकाल के विरुद्ध है… इसलिए वे ये अत्याचार सहने को विवश हैं। किसी भी सभ्य समाज में ऐसी सोच उस समाज के मुंह पर तमाचा है। इस विकृत सोच के खिलाफ आप ही आवाज़ उठाएं… हम तो प्रोटोकाल के तहत मुंह नहीं हिला सकते। याद रखिए, आलस्य मनुष्य का मौलिक अधिकार है, जिसे उससे कोई ताकत नहीं छीन सकती। जय हिन्द!
कमल किशोर सक्सेना
वरिष्ठ पत्रकार एवं व्यंग्यकार