काश बिजली का काम सीख लिया होता…

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व्यंग्य… पिछले साल हम बंगलोर में जिस लोकैलिटी में रहते थे वहां बिजली बहुत जाती थी। हमारे अपार्टमेंट में बैकअप भी नहीं था। गर्मी से परेशान हो बाथरूम में घुस जाते। बिजली न होने से पम्प न चल पाने के चलते नल भी सीटी बजाकर हंसता। इधर उधर टहल भी नहीं सकते थे क्योंकि बाहर कोरोना डेरा डाले था। ऐसे ही एक दिन बत्ती गुल हो गयी। तीन चार घंटे बीत गये तो साहबजादे ने केयरटेकर को फोन मिलाया। उसने कहा लाइट तो बराबर आ रही है। हो सकता है कि आपका फ्यूज उड़ गया हो। चार सौ रुपये लगेंगे कहिए तो मैं देखूं। सामान्य दिन होते तो हम नीचे जाकर कोई जुगत भिड़वाते। भारी मन से हां बोलते ही बिजली रानी आ धमकीं। सौ सौ के चार नोट फ्यूज बनाने के लिए देना, लाइफ का सबसे महंगा दिन साबित हो रहा था बंदे के लिए। …

ज्यादा नहीं दस साल पीछे ले चलता हूँ। उस साल गर्मी ड्यू शेड्यूल से पहले पड़ने लगी थी। पारा चालीस पर खौलने लगा। पानीदार फलों ने अमरूद केला को रातों रात रिप्लेस कर दिया। पंखे हाट वेव ब्लोअर बन गये। कूलरों ने बंधन मुक्त होते ही हाथ पांव फैलाये। अंदर का नजारा दिल को बैठाने वाला था। कूलर बॉडी में विंटर स्टे के दौरान चूहों ने तारों की चटनी बनाकर मजे से दवात उड़ाई थी। नयी मुसीबत सामने खड़ी थी।

कूलर के डाक्टर यानी इलेक्ट्रीशियनों ने अपना मोबाइल आफ कर दिया। घड़ी घड़ी बजने वाली घंटी सुने कि काम करें। जिसे देखो कूलर फिट करवाने के लिए इलेक्ट्रिकल शॉप में अपना नाम पता दर्ज कराने पहुंचा हुआ था। किसी कोे पंखों की आयलिंग-ग्रीसिंग करानी है तो किसी को कूलर की। बताते चलें कि कूलर फैमिली में अपना भी खास स्थान रहा है। घर में तीन-तीन कूलर होने के बाद भी कोई एक साल से ज्यादा काम नहीं करता। हर साल दो तीन हजार पुजाना पड़ता तब जाकर फैमिली कूल रहती। (सच तो यह है कि तब एसी सिनेमा हाल में ही नसीब होते थे) अपने पुराने इलेक्ट्रीशियन का नम्बर मिलाया। सौभाग्य से काल कनेक्ट हो गयी। उठते ही मैंने अभिवादन के साथ पूछ लिया,’प्यारे भाई, कब दर्शन दे रहे हैं?” उधर से आवाज आयी-‘पापा, बाथरूम में हैं। एक घंटे बाद बात कीजिएगा, अंकल!” उसने लाइन डिसकनेक्ट कर दी।…

न्यूज में दर्जा-ए-हरारत यानी पारे की ऊंचाई चालीस के पास देखकर हड़बड़ा गया। अभी तक 25-30 डिग्री का अहसास दे रही गर्मी न्यूज देखकर यकबयक पसीने में बदल गयी। कूलर खराब आैर गर्मी का यह आलम। इलेक्ट्रीशियन महाशय को फिर काल मिलाया। घंटी बजती रही आैर फोन पिक नहीं हुआ। अलबत्ता एक महिला ने जरूर ज्ञान दिया- ‘आप जिस उपभोक्ता को फोन मिला रहे हैं वह अभी जवाब नहीं दे रहा है। कृपया दोबारा प्रयास करें।” मैंने दोबारा प्रयास किया। अबकी बार एक दूसरी महिला की आवाज आयी-‘आप जिस उपभोक्ता से सम्पर्क करना चाहते हैं वह नेटवर्क एरिया के बाहर है।”… इस भयंकर बढ़ती गर्मी में टेलीफोनी बालायें कितनी शीतलता से यूजर की पूरी जानकरी दे रही थीं, आश्चर्य है।

सवाल यह है कि इलेक्ट्रीशियन प्यारे लाल कवरेज एरिया के बाहर इस गर्मी में क्या कर रहा है? शहर के पुराने ग्राहक को छोड़कर बाहर नये कस्टमर पक्के कर रहा है। बदमाश कहीं का। उसके इग्नोर करने के इस अंदाज ने गर्मी को चिंगारी में तब्दील कर दिया। आज मुझे अपने भाइयों की तरह बिजली का काम न सीख पाने पर बाकायदा अफसोस हो रहा था। परिवार में सभी बिजली का काम कर लेते थे। कुछ तो इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर बड़े बड़े पावर हाउस में तारों से जूझ रहे थे।

उन दिनों जरा सा पावर डाउन हुआ तो फौरन यह प्रतियोगिता शुरू हो जाती थी कि कौन फाल्ट ढंूढ़ लेता है। आनन-फानन में घर पुन: रोशन हो जाता था। ये अलग बात है कि आस-पड़ेास के भइयों के इस टेलेेंट का मिस यूज नहीं करते थे। मेरा सोच यह था कि जब घर में पहले से इतने इलेक्ट्रीशियन हैं तो एक मैं चलते करेंट में नंगे तार नहीं उमेठूंगा तो देश का क्या नुकसान हो जाएगा। मुझे बिजली से आज भी बहुत डर लगता है। एक बार गलती से प्लग लगे तार को दांत से छीलने की कोशिश भर की थी। बिजली ने स्वाद चखा दिया।…

बचपन में गर्मी में इतनी गर्मी नहीं पड़ती थी। कूलर-वूलर दिखावे की चीज हुआ करती थीं। हाथ के पंखों से काम चल जाता था। फिर पेड़ की जगह सड़क आैर कंक्रीट के जंगलों ने ले ली। गर्मी से पसीने का सोता जो फूटता तो उसे सुखाने में हैंड मेड फैन भी दम तोड़ देता। खिड़की पर खस की टहटी जड़ जाती। बारी बारी से उसे तर करने की ड्यूटी बांध दी जाती। बाहर जितनी गर्मी बढ़ती जाती अंदर का टम्प्रेचर गिरता जाता। आस पड़ोस के लोग बिजली के पंखे की हवाखोरी के पुल बांधते नहीं अघाते। मोहल्ले के सबसे कंजूस व देहात से ताल्लुक रखने वाले अंकल के वहां भी जब सिन्नी का पंखा फर्राटा भरने लगा तो सबने दबाव बनाया।

आखिर एक नया नवेला टेबुल फैन अपनी दहलीज भी लांघ गया। रंग काला था पर लगता सुन्दर। सब उसके फैन हो गये। घर में कुल जमा दस लोग आैर पंखा एक। सबको हवाखोरी करनी होती। बारी-बारी से लोग अपनी मुंडी उसके सामने करते। बाद में पता चला कि मार्केट में ऐसा पंखा भी आता है जो घूम-घूमकर हवा बांटता है। अब देर हो चुकी थी। तब किस्तों वाली तजवीज भी किसी कम्पनी के कपार में नहीं आयी थी।…किस्सा कोताह ये कि रात में आंगन में लेटने में उसके आगे कौन अपनी खटिया डालेगा बाकायदा पर्ची पड़ती।… हम बच्चे ठहरे नादान… बड़े खैर सल्लाह करके सारी पर्चियों पर एक ही नाम गोद देते। अगले दिन दूसरे का नाम निकल आता। हम छोटों को कभी नम्बर आता तो भी कैसे!.. एक दिन जब घर में कोई नहीं था तो बंदे मारे गुस्से के पंखे के पुर्जे पुर्जे अलग कर दिये। बड़े भाई पता नहीं कब आये आैर उनका एक झन्नाटेदार कंटाप कान के नीचे बजा। सजा के तौर पर एक हफ्ते के लिए पंखे से दूरी बनाने का फरमान सुना दिया गया।… खुराफाती दिमाग ने घर में पड़े पटरे आैर जाली से एक कूलरनुमा चीज बना डाली। बॉडी की छत पर एक कनस्तर में पानी रखने की व्यवस्था थी आैर नीचे उसे कलेक्ट करने के लिए भी एक कनस्तर था। सबने तारीफ की। टेबल फैन को कूलर में सेट कर दिया गया। ठंडी हवाएं लहरा के आने लगीं। अगले दिन कोहराम मच गया। पानी न जाने कैसे पंखे के अंदर चला गया।… पंखा बंद। सब बंदे को कूटने के लिए ढूंढ रहे थे।… एक हफ्ते बाद निरंतर दौड़ भाग करने के बाद पंखा लौटा। वो दिन है आैर आज की डेट तक मुझे कूलर व एसी में सोना पसंद नहीं है। बंग्लोर में लोग घरों में एसी कम ही लगाते हैं। यहां जरूरत ही नहीं पड़ती।… एक अच्छी खबर यह है कि पत्नी बच्चों ने लखनऊ में लगे एसी को बेचने का मन बना लिया है।…

प्रेमेन्द्र श्रीवास्तव