सीता नवमी और भारत में समाज का मनोविज्ञान

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सामान्य तौर पर आदर्श स्थिति में सदैव ही भारतीय दर्शन और संस्कृति में सीताराम, उमापति, राधा कृष्ण जैसे शब्दों की स्थापना करके इस बात को स्वीकार कर लिया गया है कि पुरुष का अस्तित्व महिला से जुड़कर ही है… और वह पुरुष से आगे है लेकिन जब व्यवहारिकता के स्तर पर इस बात का आकलन किया जाता है तो सदैव ही पुरुष के अधीन महिला दिखाई देती है।

… और यही कारण है कि चाहे रामनवमी पर रामचंद्र जी के जन्म की बात आए या कृष्ण जन्माष्टमी पर कृष्ण के जन्म की बात है। उसके प्रति जनमानस में जो निष्ठा है.. समर्पण है.. वह समर्पण सीता के जन्म सीता नवमी और राधा के जन्म राधा अष्टमी पर नहीं दिखाई देता है। यदि सीधे तौर पर कहा जाए तो देश की अधिकांश जनता को यह पता भी नहीं है कि राधा अष्टमी के दिन राधा का जन्म हुआ था या सीता नवमी के दिन सीता का जन्म हुआ था।

यदि लोग निष्पक्ष होकर सच के साथ खड़े हो तो उन्हें आज भी यह नहीं पता होगा कि आज के दिन मां सीता का जन्मदिन है। और यह तथ्य है.. यह बताता है कि व्यवहारिकता में हम महिलाओं के लिए कितने संवेदनशील हैं। इस बात का आकलन इससे भी किया जा सकता है कि ज्यादातर घरों में लोगों को अपनी मां का जन्मदिन पता ही नहीं होता है और धीरे-धीरे मां भी अपने जन्म दिन को या तो भूल जाती है या उस दिन को लेकर कभी भी वह कोई चिंता नहीं जाहिर करती है।

ऐसी स्थिति में सीता नवमी के दिन मां सीता के जन्म को सिर्फ उनके जन्म के आधार पर विश्लेषण करने के बजाए इस बात के लिए भी एक मानक के रूप में देखा जाना चाहिए कि भारतीय समाज में महिला को लेकर एक संकीर्णता क्यों दिखाई देती है। मां सीता का त्याग चाहे वह अशोक वाटिका में बैठी हुई एक महिला के रूप में देखा जाए या वन में गर्भधारण करने के बाद बाल्मीकि आश्रम में रहने की उस कठिन परिस्थिति को समझने का प्रयास किया जाए तो एक बार बिल्कुल स्पष्ट है कि महिला सदैव ही पुरुष को आदर्श और मर्यादित बनाने के लिए परीक्षाएं देती है लेकिन पुरूष औरत को आदर्श और मानक बनाने के लिए कोई परीक्षा नहीं देना चाहता या नहीं देता है।

इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि उसने कभी अपने लिए किसी परीक्षा का प्रावधान ही नहीं किया।
समुद्र मंथन में भी रत्नों के रूप में महिला का निकलना और उसे विष्णु को दे दिया जाना यह बताता है। महिला को एक रत्न के रूप में तो स्थापित किया जा सकता है लेकिन रत्न सहित वह हाड़-मास की एक जीती जागती मानव है, इसे समझने के लिए एक कठिन स्वीकारोक्ति की आवश्यकता है।

यही नहीं सीता नवमी के संदर्भ में ही यदि मां कौशल्या के त्याग को समझने का प्रयास किया जाए तो उसकी कोई बात ही नहीं की जाती है। राजा दशरथ को कितनी वेदना हुई.. राजा दशरथ को कितना कष्ट हुआ.. इस पर साहित्य भरे रहते हैं लेकिन एक मां के लिए पुत्र का वियोग क्या रहा.. इस पर चर्चा न किया जाना यह बताता है कि मां जैसे शब्द के साथ सिर्फ अन्याय किया गया है। उसे बच्चा पैदा करने वाली एक निमित्त मानने के सिवा कुछ भी मानने को वास्तविक अर्थों में समाज तैयार नहीं रहा है।

आदर्श स्थिति इससे भिन्न है जहां पर मां का महिमामंडन इस तरह से किया गया है। जिससे यह सदैव ही प्रतीत होता है कि मां शब्द अद्वितीय है इस बात पर विचार करने की आवश्यकता सभी को है कि क्या कारण है कि जिस तरीके से राष्ट्रपति भवन से लेकर और एक आम आदमी तक राम जन्म के लिए उत्साहित रहता है.. नाचता है.. प्रसाद वितरण करता है.. छुट्टियां होती हैं.. उसी तरह से राम को मर्यादा पुरुषोत्तम बनाने में महत्तम भूमिका निभाने वाली उनकी पत्नी मां सीता के लिए उत्साह के अनुनाद क्यों नहीं सुनाई देते हैं।

क्यों नहीं राम नवमी की तरह सीता नवमी को कोई छुट्टी होती है.. क्यों नहीं है.. आम आदमी को सीता मां के जन्म के बारे में पता होता है क्या महिला की वास्तविकता अभी भी हम स्वीकार कर पा रहे हैं या सिर्फ महिला को पुरुष के बाद की पंक्ति में खड़ा हुआ एक मानव देखने की आदत पाल चुके संपूर्ण विश्व के मानव महिला की सर्वोच्चता को मानने से सदैव बचते रहे और पुरुष के इसी स्वाभिमान का परिणाम मां सीता द्वारा स्वयं को पृथ्वी में समा लेने की घटना में देखा जाना चाहिए एक अपमान.. एक दर्द.. एक उपेक्षा को मां सीता ने अपने जीवन में जिस तरह ओके कर पृथ्वी पर अपने जीवन की लीला को अंतिम स्वरूप दिया था। वह महिला के समाज में और पुरुष के जीवन में स्थान को रेखांकित करने के लिए सर्वोच्च उदाहरण है।

और इसीलिए सीता नवमी के दिन मां सीता के जन्मदिन पर वह प्रत्येक नागरिक जो सीताराम सीताराम करता है या राम के जीवन में मां सीता के महत्व को जानता है या सीता के उन त्याग की कहानियों को जानता है जो रामायण.. रामचरितमानस में उल्लिखित हैं। उनके प्रकाश में स्वयं या आकलन करें कि वर्तमान परिवेश में घरों में त्याग की मूर्ति बन कर बैठी हुई समर्पण की मूर्ति बनकर स्थापित हुई मां सीता के रूप में महिलाओं के जीवन और उनके जन्मदिन के लिए हम कितने संवेदनशील हैं।

उत्साहित हैं और हम उन्हें कितना अपने समान समझकर उसी तरह से उनके भी जीवन के इस महत्वपूर्ण दिन को मनाने जानने के लिए उत्सुक है और यही मूल्यांकन भारतीय समाज में महिला के जीवन को समझने और उसकी वास्तविक स्थिति को रेखांकित करने के लिए आज मां सीता के जन्मदिन के दिन उपयुक्त होगा पर इसके लिए एक नैतिक साहस की आवश्यकता है।

आलोक चांटिया