समाज में जो भी तीज-त्यौहार मनाये जाते है, उसका कुछ न कुछ पौराणिक अथवा आध्यात्मिक महत्व अवश्य होता है। इसी प्रकार ‘होली’ पर्व के भी पौराणिक एवं आध्यात्मिक महत्व है। होली का त्यौहार ऋतुओं का राजा बसंत की यौवनावस्था में अर्थात् जब पेड़-पौधों में नये पत्ते और रंग-बिरंगे फूलों के आगमन से प्रकृति की छटा निखरती है, फाल्गुन की पूर्णिमा की अर्धरात्रि से प्रारम्भ होकर चैत्र मास की पंचमी तक मनाया जाता है।
होली पर्व का पौराणिक महत्व : होली पर्व के विषय में यह किवंदती है कि एक समय में असुरोें के राजा हिरण्यकश्यप को भ्रम हो गया था कि तीनों लोकों में उससे शक्तिशाली और कोई नहीं है, परन्तु उसके पुत्र प्रहलाद ने अपने पिता के विचारों से भिन्न जाकर भगवान विष्णु की भक्ति प्रारम्भ की और वह धीरे-धीरे भक्ति का प्रतीक बन गया। जो हिरण्यकश्यप को पंसद नहीं आया। इसलिए पहले तो उसने अपने पुत्र प्रहलाद को समझाने की चेष्टा की और फिर उसको मृत्यु की गोद में भेजने के तमाम यत्न किये परन्तु वह असफल रहा। तब उसने अपनी बहन ‘होलिका’ जिसको यह बरदान था कि यदि वह अपनी बरदानी चादर ओढ़कर अग्नि में प्रवेश करती है तो अग्नि से उसको किसी प्रकार की क्षति नहीं पहुँचेगी, को भक्त प्रहलाद को अग्नि में जलाकर मार देने हेतु तैयार किया। जब होलिका ने भक्त प्रहलाद को गोद में लेकर अग्नि में प्रवेश किया तो भगवान विष्णु की कृपा से होलिका की बरदानी चादर होलिका के सर से उड़कर भक्त प्रहलाद के सर पर आ गयी। जिससे भक्त प्रहलाद तो बच गया परन्तु होलिका अग्नि में जलकर राख हो गयी। इसलिए इस दिवस में होलिका जलाने की प्रथा है तथा अगले दिन भगवान की कृपा दृष्टि से भक्ति के प्रतीक प्रहलाद के बचने की खुशी में रंग-गुलाल से खुशियाँ मनाने की प्रथा प्रारम्भ हुई।
होली पर्व का आध्यात्मिक महत्व : ‘होली’ का अर्थ होता है ‘पवित्रता’। प्रकृति अर्थात् माता आदिशक्ति पंचमहाभूतों की संयुक्त स्वरूपा है। इस पंचमहाभूत में से अग्नि महाभूत का गुण पवित्रता है, इसलिए इस पावन दिवस पर होलिका दहन के रूप में अग्नि प्रज्ज्वलित कर समाज एवं दूषित मन को पवित्र करने हेतु सामूहिक यज्ञ का आयोजन होता है।
दूषित सामाजिक वातावरण की पवित्रता : चूँकि होली के त्यौहार के दिन अर्थात् चैत्र माह की प्रतिपदा को हिन्दू कैलेण्डर के अनुसार नये वर्ष का प्रारम्भ होता है, नव वर्ष में समाज में सुख, शांति एवं समृद्धि आयेे इसलिए प्रतिपदा के एक दिन पहले फाल्गुन माह की पूर्णिमा की रात में होलिका दहन की प्रथा के अन्र्तगत विभिन्न प्रकार के वृक्षों की समिधाओं से अग्नि का आह्वान किया जाता है। इस अग्नि यज्ञ से सामाजिक वातावरण एवं वायुमण्डल में पवित्रता बढ़ती है।
शरीर में आकाश तत्व के संतुलन एवं दूषित मन की पवित्रता : पंचमहाभूतों से निर्मित हमारे शरीर में हमारा मन आकाश महाभूत का प्रतीक है, चूँकि आकाश तत्व के स्वामी भगवान शिव है और आकाश तत्व अर्थात् मन के संतुलन हेतु यज्ञ करने का विधान है। जिससे मन के असंतुलन एवं विकार समाप्त होकर मन पवित्र होता है और जहाँ पवित्रता है वहीं पर शांति एवं समृद्धि का वास होता है। होलिका दहन भी यज्ञ है। जिसमें वृक्ष की समिधाओं एवं नये अन्न की आहूति देते हुए अग्नि के फेरे लेकर अग्नि देव एवं भगवान शिव की कृपा प्राप्त कर अपने मन को पवित्र करते है।
नये अन्न का यज्ञ है होली का पर्व : होली के त्यौहार को पहले के समय में ‘नवान्नेष्टि’ कहा जाता था। नवान्नेष्टि शब्द नव-अन्न-इष्टि से मिलकर बना है अर्थात् नये अन्न का यज्ञ। समाज में अन्न को देवता माना जाता है। चूंकि इस समय अन्न पकने लगता है तथा इस नये अन्न को घर लाने की प्रक्रिया से पूर्व होलिका अर्थात अग्नि देवता का आह्वान करके उसमें अन्न की आहूतियां देकर अन्न को पवित्रता प्रदान करने की प्रथा है ताकि वर्ष भर घर धन-धान्य से सदैव भरा रहे।
नये वर्ष की खुशियों एवं सामूहिकता का पर्व है होली : चैत्र मास से हिन्दू कैलेण्डर के अनुसार नये वर्ष का शुभारम्भ होता है। इसलिए समाज में नववर्ष के आगमन की खुशियों में फाल्गुन मास के अन्तिम दिन अर्थात पूर्णिमा की रात्रि में जाति धर्म से ऊपर उठकर सभी मनुष्य एक साथ सामूहिक स्थल पर एकत्रित होकर अग्नि का आह्वान करके समिधाओं और अन्न का यज्ञ करते है और विधिवत अग्नि के फेरे लेकर अग्नि देवता को नमन कर सामाजिक समृद्धि की कामना करते है। इसके उपरान्त अगले दिन अर्थात् चैत्र की प्रतिपदा से लेकर रंग पंचमी अर्थात पांच दिनों तक समाज में हर धर्म, जाति एवं सम्प्रदाय के लोगों के द्वारा एक दूसरे से गले मिलकर एवं रंग खेलकर खुशियाँ मनायी जाती है। त्यौहार की इस प्रक्रिया से सामाजिक कटुता समाप्त होकर समाज में सकारात्मकता का प्रसार बढ़ता है और जंहा सकारात्मकता एवं शुद्वता है वहीं प्रगति है।
रंगों से शारीरिक ऊर्जा के संतुलन का पर्व है होली : पंचमहाभूतों के संतुलन से बने मनुष्य शरीर में सूक्ष्यं ऊर्जा अंश ही शरीर का संचालन करते है, शरीर में अलग-अलग रंगों की आंतरिक ऊर्जा शक्तियों की चार्जिंग प्रकृति से निरन्तर हमारे शरीर के बाहर के अदृश्य बहुरंगी आभामण्डल अर्थात् ‘औरा’ से होती रहती है। हम सभी जानते है कि सूर्य की किरणें भी बहुरंगी होती है तथा 9 अलग-अलग रगों के ग्रहों की ऊर्जा किरणें निरंतर हमारे आंतरिक ऊर्जा को प्रभावित करती है। जिससे ही शरीर की क्रियाओं का संतुलन बनता है। कर्मकाण्ड में ग्रहों की इन्ही ऊर्जाओं के संतुलन करने के लिए रंग के अनुसार भोजन करने, अलग-अलग रगों के वस्त्र धारण करने अथवा रत्न इत्यादि पहनने की सलाह दी जाती है। चूँकि होली पर्व सामूहिकता का पर्व है, सामूहिकता में विभिन्न प्रकार के रगों से होली खेलकर तथा गले मिलकर एक दूसरे की ऊर्जाओं के मिलने से शारीरिक ऊर्जाओं के संतुलन की प्रक्रिया स्वतः होती है।
उपरोक्त महत्व के अतिरिक्त भी होली के पर्व के अन्य कई कारण अथवा महत्व भी हो सकते है।
एस.वी.सिंह ‘प्रहरी’