साहिर के प्यार में पागल थीं अमृता प्रीतम

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किस्से फिल्मी दुनिया के…

यह बात है 1944 की। प्रीतनगर में हुए एक मुशायरे के सिलसिले में साहिर से अमृता का मिलना हुआ। अमृता शादीशुदा थीं। उनकी 16 साल में प्रीतम सिंह से शादी हो चुकी थी। वो अमृता कौर से अमृता प्रीतम बन गयी थीं। लेकिन उनका अपने पति से कभी नहीं बनी। प्रेम से अछूती अमृता को साहिर की शायरी में अपने लिए मुहब्बत के बीज नजर आये। उन्हें पहली ही नजर में साहिर से प्यार हो गया। वो जब वहां से लौटीं तो बरसात हो रही थी। उन्होंने लिखा ‘मुझे नहीं मालूम साहिर के शब्दों की जादूगरी थी या कि उनकी खामोश नजर का कमाल था लेकिन कुछ तो था जिसने मुझे अपनी तरफ खींच लिया। आज जब उस रात को मुड़कर देखती हंू तो ऐसा समझ आता है कि तकदीर ने मेरे लि में इश्क का बीज डाला जिसे बारिश की फुहारों ने बढ़ा दिया।”

साहिर से दोस्ती होने के बाद लाहौर में उनके घर आया जाया करते थे। साहिर मुंह से कुछ नहीं कहते। बस सामने बैठकर एक टक निहारा करते आैर सिगरेट फूंकते। उनके जाने के बाद अमृता उनकी सिगरेट की बटों को उनके होंठों के निशान पर अपने होंठ रखकर पिया करतीं। इस तरह उन्हें भी सिगरेट पीने की लत लग गयी। अगर अमृता साहिर की पी हुई सिगरेट पीती थीं तो साहिर भी अमृता की पी हुई चाय की प्याली सम्भाल कर रखते थे। कहा तो यहां तक जाता है कि साहिर ने अमृता के होंठों से लगा प्याला बरसों तक नहीं धोया।

बंटवारे के बाद अमृता के पति उन्हें लेकर दिल्ली आ गये। दोनों के बीच सिर्फ खत ही जज्बात बयां करने का जरिया थे। फिर साहिर भी दिल्ली आ गये। अर्से बाद दिल्ली में एक बार अमृता साहिर से मिलने आयीं तो उनकी मां से भी मुलाकात की। काफी बातचीत के बाद जब अमृता विदा हुर्इं तो साहिर ने अपनी मां से कहा,’अम्मी ये अमृता है, जानती हो न? ये आपकी बहू बन सकती थी।” साहिर ने ताउम्र शादी नहीं की। अमृता साहिर से बेहद प्यार करती थी लेकिन वे साथ न हो सके।

1958 में अमृता के जीवन में इमरोज की इंट्री हुई। इस बार इश्क इमरोज को हुआ। दोनों एक छत के नीचे कई साल तक रहे लेकिन अलग अलग कमरों में। मजे की बात यह थी कि उन दोनों ने कभी यह नहीं कहा कि वे एक दूसरे के प्यार करते हैं। अमृता रात के सन्नाटे में लिखती थीं। इमरोज चालीस पचास बरस तक रात के एक बजे उठते एक चाय बनाते आैर खामोशी से उनकी टेबल पर रखकर वापस सो जाते। कभी कभी अमृता को इस बात की खबर तक नहीं होती थी।
इमरोज जब भी अपने स्कूटर पर अमृता को कहीं ले जाते थे तो उनकी उंगलियां इमरोज की पीठ पर कुछ न कुछ लिखा करती थीं। इमरोज इस बात से बखूबी वाकिफ थे कि उनकी पीठ पर साहिर का नाम लिखा जा रहा है।

अमृता ने अपनी आत्मकथा रसीदी टिकट में एक जगह जिक्र किया है कि जब वो आैर साहिर एक दूसरे पर जान छिड़कते थे। साहिर बीमार थे। अमृता ने उनके बिस्तर के बगल में बैठकर उनके सीने पर विक्स लगाया। इस नजदीकी का जिक्र करते हुए अमृता लिखती हैं ‘काश मैं उस लम्हे को हमेशा जी सकती।” वे साहिर को अपने खतों में मेरा शायर, मेरा देवता आैर मेरा खुदा सम्बोधित करती थीं।

साहिर लुधयानवी का असली नाम अब्दुल हई था। उनके पिता की कई पत्नियां थीं। उनके पिता ने उनकी मां को छोड़ दिया था। साहिर ही इकलौती आैलाद थे आैर पिता उन्हें हर हाल में अपने पास रखना चाहते थे। लेकिन कस्टडी मां को मिली क्योंकि उन्हें डर था कि उनका अय्याश शौहर कहीं उनकी जान न ले ले। उनका जीवन मुश्किलों में बीता। उनकी मां को जीवन में कोई सुख नहीं मिला था। वे अपनी मां से बहुत प्यार करते थे। वे जानते थे कि एक तलाकशुदा हिन्दू स्त्री को उनकी मां कभी नहीं अपनाएंगी। चेचक के दाग वाले साहिर के प्यार में खूबसूरत अमृता पूरी तरह डूबी हुई थीं। वे शादी शुदा थीं। बिजनेसमैन पति प्रीतम सिंह की फैमिली काफी कंजरवेटिव थी तो अमृता आजाद ख्याल। अमृता साहिर के लिए अपनी शादी तोड़ने को तैयार थीं।

बाद में 1960 वो अपने पति से अलग भी हो गयीं। वे दो बच्चों की मां थीं। वे अपनी शोहरत, घर परिवार सब कुछ छोड़कर घर बसाने के तैयार थीं लेकिन साहिर इतनी हिम्मत नहीं कर सके। साहिर जिन्दगी में कुछ बेहतर करना चाहते थे ताकि अपनी मां को खुश रख सकें। एक बार अमृता ने साहिर को खत लिखा। साहिर ने जान बू्झकर जवाब नहीं दिया तो उन्होंने अपना अंतिम खत कुछ यूं लिखा- ‘मैंने टूटकर प्यार किया तुमसे, क्या तुमने भी उतना किया मुझसे?” इस खत का जवाब भी साहिर ने नहीं दिया। अर्से बाद एक मुशायरे में दोनों की मुलाकात हुई तोे साहिर ने अपनी शायरी में कुछ इस तरह हाले दिल बयां किया –‘तुम चली जाओगी तो परछाइयां रह जाएंगी, कुछ न कुछ इश्क की रानाइयां रह जाएंगी।” जब पेंटर इमरोज अमृता की जिन्दगी में आ गये आैर साहिर साहब को पता चला तो उन्होंने शेर लिखा-
‘मुझे अपनी तन्हाइयों को कोई गम नहीं, तुमने किसी से मुहब्बत निबाह तो दी।” इस कदर दीवानावार चाहने के बाद भी दोनों अलग हो गये। हर मोहब्बत अंजाम तक पहुंचे यह जरूरी तो नहीं। साहिर अगर अपनी नाकाम मुहब्बत पर कुछ कहते तो शायद यही कहते-
‘किस दर्जा दिल-शिकन थे मोहब्बत के हादसे
हम जिन्दगी में फिर कोई अरमां न कर सके।”
(जारी…)

प्रेमेन्द्र श्रीवास्तव