ऊर्जा संसार के कण-कण में व्याप्त है परन्तु वह अदृश्य है, आदिशक्ति के इस ऊर्जा रूपी अंश को नष्ट करना अंसम्भव है। इसको केवल चेतन अर्थात पुरूष तत्व रूपी ज्ञान के माध्यम से किसी स्वरूप में परिवर्तित किया जा सकता है, सर्वशक्तिमान होने के बावजूद अदृश्य रहकर मायावी होकर आवश्यकतानुसार किसी भी रूप में परिवर्तित होकर यह ऊर्जा शक्ति निरंतर संसार के सृजन की भागीदार बनती रहती है। इसीलिए इस ऊर्जा शक्ति को माता आदिशक्ति कहा गया है।
संसार की उत्पत्ति परम्शक्ति की इच्छानुसार हुई, जिन्होने संसार के सृजन के लिए अपने सम्पूर्ण अंश (पुरूष एवं प्रकृति) में से प्रकृति के अंश को अलग किया। पुरूष तत्व चेतन अंश है, जिसे संसार में ज्ञान कहा जाता है तथा प्रकृति तत्व ऊर्जा का अंश है, यही ज्ञान एवं ऊर्जा अंश मिलकर संसार में सृजन एवं संचालन का कार्य करते रहते हैं।
त्रिदेव अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश में से ब्रह्मा को सृजनकर्ता, विष्णु को संचालन एवं पालनकर्ता और महेश को संहारक देव के रूप में हम सभी जानते हैं। पुराणों में इस बात का उल्लेख किया गया है कि जिस समय असुरों का साम्राज्य बढ़ा तो तीनो देवों ने अपनी-अपनी शक्तियों के समिश्रण से एक सर्वशक्तिमान परम्शक्ति का सृजन किया जिसे माता दुर्गा कहा जाता है। माता सरस्वती सत्गुणी ऊर्जा शक्ति है जो कि भगवान ब्रह्मदेव की शक्ति है, माता लक्ष्मी रजोगुणी ऊर्जा शक्ति है जो कि भगवान विष्णु जी की शक्ति है तथा माता पार्वती तमोगुणी ऊर्जा शक्ति है जो कि देवों के देव भगवान महादेव की शक्ति हैं। इन तीनो शक्तियों के समिश्रण से माता दुर्गा रूपी आदिशक्ति का सृजन हुआ, यही आदिशक्ति ऊर्जा के रूप में पूरे ब्रह्माण्ड में व्याप्त है, इसीलिए ब्रह्माण्डीय ऊर्जा में तीनों तत्व क्रमशः रजस अर्थात गति, तमस अर्थात स्थिरता एवं सत्व अर्थात निरंतरता के गुण विद्यमान होते हैं।
संसार के प्रत्येक जीव अथवा वस्तु में इन तीनो गुणों की ऊर्जा सदैव विद्यमान रहती है। परन्तु प्रत्येक जीव या मनुष्य के मूल आचरण में इन तीनों में से किसी एक गुण की प्रधानता रहती है, इसी से संसार में संतुलन स्थापित रहता है परन्तु समस्त योनियों में श्रेष्ठ मनुष्य योनि में चेतना का पूर्ण विकास होता है। इसीलिए वह सदैव अपनी इन्द्रियों को गतिमान अथवा स्थिर रखना चाहता है परन्तु विभिन्न प्रकार के खान-पान एवं रहन-सहन को आत्मसात करते हुए विभिन्न वातावरण में निरंतर आवागमन करते रहने के कारण उसके अन्दर विद्यमान त्रिगुणों में असंतुलन व्याप्त हो जाता है, यह असंतुलन उसे उसके मूल आचरण से अलग-थलग कर देता है जो कि उसके लिए पीड़ा का कारण बनता है। हालांकि मनुष्य योग-ध्यान और आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करके नियम, संयम और धर्म का पालन करते हुए अपने गुणों को मूल आचरण के मुताबिक संतुलित कर सकता है, परन्तु मनुष्य के भीतर व्याप्त भौतिकता एवं इच्छाओं की आसक्ति उसे सदैव अपने आप से दूर कर वाह्य आडम्बर की ओर ले जाती है। इसीलिए मनुष्य के मन में आध्यात्मिक ज्ञान को प्राप्त करने एवं उसका अनुसरण करने के प्रति सबसे कम इच्छायें उत्पन्न होती है। इन्हीं अंसतुलित ऊर्जाओं को संतुलित करने के लिए वर्ष में चार नवरात्रि पर्व होते है। जिनमें से गृहस्थ आश्रम के व्यक्ति दो नवरात्रि पर्व ही मनाते है।
नवरात्रि के नौ दिनों में तीन-तीन दिनों के तीन चरण होते है। प्रथम तीन दिवस में माता दुर्गा में तमस् ऊर्जा रूपी माता काली, जो कि वीरता एवं आत्मविश्वास की प्रतीक है, की पूजा का विधान है, अगले तीन दिवस में रजस ऊर्जा रूपी माता लक्ष्मी जी, जो धन-धान्य एवं भौतिकता का प्रतीक है, की पूजा का विधान है तथा अन्तिम तीन दिवस में सत्व ऊर्जा रूपी ज्ञान की देवी माता सरस्वती की पूजा का विधान है। इन तीन-तीन दिनों में अलग-अलग प्रकार के गुणों पर आधारित पूजा एवं कार्यक्रम होते हैं।
माता दुर्गा के बारे में पुराणों में यह कहा गया है कि उन्होंने मधु, कैटव, महिषासुर जैसे तमाम असुरों का वध किया है। यहाँ पर आध्यात्मिक दृष्टिकोण से यह जानने की आवश्यकता है कि आखिरकार ये असुर कौन हैं जिनका वध माता आदिशक्ति को करना पड़ा? इसका उत्तर है कि जो अपने सुर अर्थात अपने होश में न हो अर्थात् जो अपना आपा खो दे वही असुर है, कई बार जब हमारा आचरण हमारे नियत्रंण में नहीं रहता है तो हमारा आचरण आसुरी प्रवृत्ति वाला हो जाता है। हमारे रक्त में समाई हुई वासनाओं एवं नकारात्मकता को रक्तबीज नामक असुर कहा गया है, जो हमारे बिगड़े हुए राग है उसे मधु नामक असुर कहा गया है तथा हमारे अन्दर व्याप्त द्वेष नामक नकारात्मकता को कैटभ नामक राक्षस कहा गया है और जो हमारे जड़त्व में जो नकारात्मकता है उसे महिषासुर नामक असुर कहा गया है। पुराणों में शुम्भ और निशुम्भ के बारे में उल्लेख किया गया है जिसमें से शुम्भ का अर्थ है स्वयं पर संशय करना तथा निशुम्भ का अर्थ है अपने आस पास सभी पर संशय करना। यह सर्वविदित है कि संशय व्यक्ति को अनुत्पादक बना देता है और उसकी मूल बुद्धि का नाश करता है। जब हम आत्मा एवं प्राण रूपी नवरात्रि पर्व में अपने मन, कर्म और वचन से माता दुर्गा का आवाहन करते है तो वह हमारे अन्दर विद्यमान इन असुर रूपी नकारात्मक ऊर्जाओं का नाश करके हमारी त्रिगुणी ऊर्जाओं में संतुलन स्थापित करके हमको हमारे मूल में स्थापित कर देती है, साथ ही माता दुर्गा अपनी शक्तियों से हमारे अन्दर विद्यमान नकारात्मक संशय को दूर कर हमारी बुद्धि को शुद्धि प्रदान करती है जिससे मनुष्य अपनी मनुष्यता में वापस आकर पूर्ण धार्मिकता से अपना जीवन यापन करता है।
किसी भी उपासना में उपवास, जप-तप, प्रार्थना, मौन और योग-ध्यान का उपयोग होता है। जिसमें उपवास मनुष्य के अन्दर खान-पान से उत्पन्न हुए दोषों में संतुलन स्थापित कर शरीर को पवित्र करता है, जप-तप और प्रार्थना से मनुष्य की सूक्ष्म इन्द्रियाँ, जो कि विकार उत्पन्न करने के कारण दूषित हो जाती हैं, स्वच्छ होती हैं और उनमें संतुलन स्थापित होता है, मौन मनुष्य की वाणी दोषों को दूर कर उसमें पवित्रता उत्पन्न करता है तथा योग-ध्यान मनुष्य के बेचैन मन को शान्ति प्राप्त होती है और वह ब्रह्माण्डीय ऊर्जा से समागम करके मनुष्य के मन में संतुलन स्थापित करके उसे उसके मूल आचरण में स्थापित कर देती है। यह सर्वविदित है कि जब मनुष्य के अन्दर शान्ति का वास होता है तो उसके अन्दर सकारात्मक भाव उत्पन्न होते है और इन्हीं सकारात्मक भाव की ऊर्जा से वह सृजनात्मक एवं उत्पादक कार्य करने में सक्षम होता है। नवरात्रि उत्सव के दौरान देवी दुर्गा के नौ विभिन्न रूपों की आराधना होती है जिसका संस्कृति में वर्णन इस प्रकार है कि-
प्रथम शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी, तृतीयं चंद्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम्।।
पंचम स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च, संप्तम कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम्।।
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः, उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मनाः।।
अर्थात् प्रथम दिवस में माता शैलपुत्री, द्वितीय दिवस में माता ब्रह्मचारिणी, तृतीय दिवस में माता चंद्रघण्टा, चतुर्थ दिवस में माता कूष्माण्डा, पंचम दिवस में माता स्कंदमाता, षष्टम दिवस में माता कात्यायनी, सप्तम दिवस में माता कालरात्रि, अष्टम दिवस में माता महागौरी तथा नवम् दिवस में माता सिद्धिदात्री जी की आराधना से देवी माता स्वयं को सभी रूपों में प्रत्यक्ष करती है और अपनी शक्तियों से साधक को आर्शीवाद प्रदत्त करती है। मनुष्यों को अपनी ऊर्जाओं में संतुलन एवं सकारात्मकता स्थापित करने के लिए सदैव नवरात्रि व्रत एवं आराधना अवश्य करनी चाहिए।
एस.वी.सिंह ‘प्रहरी’