लखनऊ। यूपी के लोकसभा चुनावों में भाजपा को मिली हार के बाद सबके निशाने पर आए सीएम योगी आदित्यनाथ ने एक झटके में विरोधियों को चुप करा दिया है। कांवड़ यात्रियों की पवित्रता और शुद्धता के लिए दुकानदारों की पहचान का उनका आदेश हिट हो गया। और इसका जो राजनीतिक माइलेज उन्हें मिलना था मिल गया। यहां तक कि उनके खिलाफ झंडा उठा कर घूम रहे डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य भी इस मुद्दे पर उनका समर्थन करते दिखे। इसके अलावा इस मामले में तीन भाजपाई मुख्यमंत्रियों का नैतिक समर्थन भी परोक्ष रूप से योगी को मिल गया।
भाजपा में विरोध के स्वर झेल रहे यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कांवड़ यात्रा के बहाने अपने हिंदुत्व की धार को और पैना कर दिया है। वर्ष 2017 में यूपी में भाजपा की जीत के बाद हिंदुत्व के एजेंडे को धार देने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सिफारिश पर मुख्यमंत्री बनाए गए योगी ने लगातार इसी एजेंडे पर काम भी किया। इतना कि प्रदेश में या प्रदेश के बाहर की चुनावी रैलियों के लिए देश के कोने-कोने से उनकी डिमांड बढ़ गई है। वे एक प्रकार से नरेंद्र मोदी के बाद पार्टी में नंबर दो के दावेदार के तौर पर भी देखे जाने लगे हैं।
गड़बड़ तब शुरू हुई जब 2024 के लोकसभा चुनाव में यूपी में भाजपा की दुर्गति हुई और पार्टी 62 से सीधे 33 पर आ गई। ऐसे में पार्टी में विरोधियों के सारे तीर योगी पर धड़ाधड़ चलने लगे। एक तरह से वे अकेले पड़ने लगे। तभी सावन नजदीक आया और उन्हें संजीवनी मिल गई। फिर उन्होंने एक पुराने नियम को जीवित किया और कांवड़ यात्रा मार्ग पर स्थित सभी दुकानदारों के लिए अपने नाम का बोर्ड लगाना जरूरी कर दिया। इसमें उनका तर्क था कि यह कांवड़ियों की पवित्रता के लिए ऐसा करना उचित होगा। ऐसा करके उन्होंने अपनी कट्टर हिंदू की छवि को फिर एक बार चमका दिया। खैर, योगी सरकार का यह आदेश आते ही विपक्षी दल और कुछ साथी दल इसके विरोध में उतर आए। उनका मानना था कि इस आदेश से साम्प्रदायिक सद्भाव को चोट पहुंचेगी और मुस्लिमों के बहिष्कार का वातावरण बनेगा। उनके व्यावसायिक हित भी प्रभावित होंगे।
इसके बाद एक एनजीओ ने इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का रुख किया और कोर्ट ने एकपक्षीय आदेश देते हुए योगी सरकार के इस निर्णय पर अंतरिम रोक लगा कर यूपी, एमपी और उत्तराखंड सरकारों को नोटिस जारी कर दिया। मामले की अगली सुनवाई 26 जुलाई को नियत की गई है। इस विषय पर अगला फैसला क्या होगा यह 26 को ही पता चलेगा। कोई भी व्यक्ति सुप्रीम कोर्ट के इस अंतरिम रोक की चाहे जो भी व्याख्या करें किंतु योगी अपना काम कर गये। उन्हें कांवड़ियों की मार्फत हिंदुओं को जो मैसेज देना था वह दे दिया। साथ ही तीन अन्य मुख्यमंत्रियों ने उनके आदेश पर अपनी सहमति देकर यह भी जता दिया कि भाजपा में योगी की राष्ट्रीय छवि बन चुकी है। एक मुख्यमंत्री के तौर पर उनके आदेश पर सवाल उठा है तो यह दूसरा मामला है। और सरकार के स्तर पर मुकदमेबाजी भी होती रहेगी।
विरोधियों ने इस मामले में संघ प्रमुख मोहन भागवत को उद्धृत करते हुए कहा कि संघ प्रमुख कहते हैं कि हिंदुस्तान में रहने वालों का डीएनए एक है। ऐसे में मुसलमानों के हाथ से बना भोजन नहीं करने की बात सही कैसे हो सकती है। वैसे सवाल में दम तो है। दरअसल इस विवाद के पीछे कट्टर मुसलमानों की एक सोच जिम्मेदार है। जिसके बारे में कथित तौर पर कहा जाता है कि वे हिंदुओं यानी काफिरों को अशुद्ध किया हुआ खाना खिलाते हैं। यह आरोप कहां तक सही है, इसके बारे में कुछ भी कह पाना बहुत मुश्किल है। किंतु इस एक नकारात्मक नैरेटिव ने दोनों धर्मो के लोगों के बीच खाई पैदा की है। इस मामले पर दोनों वर्गों में अविश्वास का भाव पैदा हुआ है। इधर सोशल मीडिया पर वायरल एक वीडियो में कथा वाचक अनिरुद्धाचार्य जी महाराज एक दूसरा वीडियो दिखाते हुए लोगों को सावधान रहने को कहते हैं।
उस वीडियो में किसी मंदिर के बाहर बैठा हुआ एक फूल वाला माला बनाते समय हर फूल को पहले अपने मुंह से लगाता है और फिर उसे माला में पिरोता है। वीडियो में उसका यह कृत्य साफ दिखता है। पर वह फूल वाला हिन्दू है या मुसलमान यह नहीं स्पष्ट हो रहा है। ऐसे में यहां वह नैरेटिव काम करने लगता है जिसमें कथित तौर पर कहा जाता है कि मुसलमान काफ़िरों को अशुद्ध किया हुआ खाना खिलाते हैं। और यह ऐसा नैरेटिव है जिसे तोड़ पाना आसान नहीं है। कहते हैं कि झूठ बहुत दिन तक चलता नहीं है परन्तु यह भी सच है कि किसी झूठ को लगातार बोला जाए तो वह सच जैसा दिखने लगता है। इस मामले में भी कुछ ऐसा ही लगता है। ऐसे में संघ प्रमुख मोहन भागवत की बात का क्या मतलब रह जाता है। कावड़ यात्रा के दौरान दुकानदारों की पहचान जानने के पीछे भी यही सोच थी। कुछ कांवड़ियों का मानना है कि सावन में मुसलमान द्वारा बनाया गया खाना खाने से हमारी पवित्रता भंग होगी।
हो सकता है कि सरकार के पास भी ऐसा कोई इनपुट आया हो और इसी सोच के चलते संभव है सरकार ने ऐसा आदेश किया हो। सरकार ने यह आदेश क्यों दिया, यह तो अगली सुनवाई पर ही पता चलेगा जब यूपी सरकार सुप्रीम कोर्ट में पेश होकर अपना पक्ष रखेगी। खैर, सुप्रीम कोर्ट ने भी इस मामले में नेम प्लेट पर रोक लगाते हुए साफ-साफ कह दिया है कि नेम प्लेट लगाना जरूरी नहीं है किंतु मीनू का बोर्ड जरूरी है। ताकि यह पता चल सके कि आपके यहां शाकाहारी खाना मिलता है या मांसाहारी।
यहां एक और बात पर चर्चा करना जरूरी है। सुप्रीम कोर्ट के प्रति सम्पूर्ण आदर के साथ यह कहना जरूरी है कि यदि किसी को यह जानने का हक नहीं है कि वह जिस दुकान से सामान खरीद रहा है वह कौन है तो बहुत सारे सामानों पर हलाल सर्टिफिकेशन की क्या जरूरत है। वैसे भी ये काम कोई सरकारी संस्था नहीं करा रही है। फिर यह भी जानना जरूरी हो जाता है कि हलाल सर्टिफिकेशन के लिए लिया जाने वाला पैसा कौन ले रहा है और वह कहां खर्च हो रहा है। जब हिंदुस्तान में रहने वाले सभी लोगों का डीएनए एक है तो इस सर्टिफिकेशन की जरूरत क्यों। भाजपा प्रवक्ता सुधांशु त्रिवेदी ने भी टीवी डिबेट में यह सवाल की बार उठाया है।
वैसे ये मामला राजनीति से प्रेरित अधिक लगता है। चूंकि उत्तर प्रदेश में भाजपा की करारी हार के बाद योगी आदित्यनाथ को घेरने की कोशिश की जा रही थी। इसलिए उन्होंने अपना मास्टर स्ट्रोक चल दिया। और खुद को कट्टर हिंदू बताने की गरज से और आने वाले उपचुनाव को देखते हुए इस आदेश को जारी किया और कड़ाई की। ताकि नया नैरेटिव गढ़कर विरोधियों को परास्त कर उपचुनाव में जीत दर्ज की जा सके और सबका मुंह बंद किया जा सके। संयोग से इस आदेश का समर्थन उत्तराखंड, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री ने अपने यहां ये आदेश लागू करके किया। हरियाणा के सीएम नायब सिंह सैनी भी इसके पक्ष में दिखे।
इस मामले में उल्लेखनीय यह भी है कि सुप्रीम कोर्ट में जब इस मामले की सुनवाई हो रही थी तो उस समय सरकार का कोई नुमाइंदा या वकील डिफेंड करने के लिए मौजूद नहीं था। ऐसे में कोर्ट में यह मामला एक पक्षीय रूप से सुना गया। खैर, सुप्रीम कोर्ट ने तीनों सरकारों को नोटिस जारी कर अगली सुनवाई 26 जुलाई नियत की है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि पूरे मामले में केंद्र की मोदी सरकार चुप है। उसकी तरफ से कोई पॉजिटिव या निगेटिव रिएक्शन नहीं आया है। हालांकि समर्थक दलों लोजपा, जदयू, और रालोद ने इसकी मुखालफत की है। जिससे तो यही लगता है कि अंदरखाने मोदी सरकार का भी योगी सरकार के इस कदम को समर्थन नहीं है। अन्यथा सहयोगी दल इस मामले में विरोध दर्ज करें और भाजपा की तरफ से कोई रिएक्शन न आए ऐसा हो ही नहीं सकता।
कुछ जानकार इसे योगी और अमित शाह के बीच शक्ति प्रदर्शन के रूप में देख रहे हैं। और इसे पार्टी में नंबर दो लड़ाई का पहला राउंड मान रहे हैं। इस मामले में यह भी सच है कि लोकसभा चुनाव के बाद केंद्र और यूपी सरकार में संवादहीनता बढी है। मोदी सरकार के शपथग्रहण के वक्त ही योगी जितना समय दिल्ली रहे हों परन्तु उसके बाद नहीं गए। और उनके कथित विरोधी डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य लम्बी चौड़ी फाइल लेकर पार्टी अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा से मुलाकात कर चुके हैं। पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष भूपेंद्र चौधरी भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात करने जा चुके हैं। लेकिन अभी तक गृहमंत्री अमित शाह उत्तर प्रदेश नहीं आए हैं। वे बाकी प्रदेशों में लगातार दौरे कर रहे हैं। ऐसे में इस बात को भी बहुत गंभीरता से लिया जाना चाहिए। बहरहाल मुख्यमंत्री योगी अपना राजनीतिक खेल कर चुके हैं, परिणाम चाहे जो भी हो।
अभयानंद शुक्ल
राजनीतिक विश्लेषक