शिकारी पक्षियों में गिने जाने वाले ‘गिद्धराज” को देख कर मन में भले ही एक घृणा का भाव जागृत होता हो लेकिन प्रदूषण रहित परिवेश में गिद्धों की भूमिका महत्वपूर्ण होने से इंकार नहीं किया जा सकता क्योंकि मानव शव या पशुओं के शव को सामान्यत: कोई छूना पसन्द नहीं करता है लेकिन ‘गिद्धों” का समूह सडांध मारते शव के मांस को नोंच नोंच कर खा डालते हैं। लिहाजा मुर्दा शरीर के संक्रमण से फैलने वाले प्रदूषण पर गिद्ध अंकुश लगाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
हालांकि गिद्ध अपनी भूख शंात करने व पेट भरने के लिए सडांध भरे मांस को खाते हैं लेकिन इससे माहौल प्रदूषित नहीं होने पाता आैर देश व समाज एक जहरीले संक्रमण की चपेट में आने से बचता है लेकिन संक्रमण से समाज को मुक्त रखने वाले गिद्धों के अस्तित्व का संकट खड़ा दिख रहा है क्योंकि अब मुर्दा पशुओं को देख कर आकाश में गिद्धों का समूह मंडराते नहीं दिखता। करीब तीन दशक पहले देश में गिद्धों की तादाद चार करोड़ के आसपास थी लेकिन अब गिद्धों की संख्या घट कर पचास पचपन हजार के बीच रह गयी है। नब्बे के दशक में अचानक गिद्धों की संख्या में कमी दिखी तो पशु पक्षी विशेषज्ञों व वैज्ञानिकों की आंखे खुली तो अध्ययन की दिशा गिद्धों के जीवन मरण पर केन्द्रीत हो गयी क्योंकि गिद्धों की मौतें तेजी से हो रहीं थीं।
मुर्दाखोर पक्षी गिद्धराज संक्रमण को खत्म करते करते खुद संक्रमण का शिकार होने लगे। पच्चीस तीस सालों की अवधि में गिद्धों की विभिन्न प्रजातियों के 90 से 95 प्रतिशत गिद्ध खत्म हो गये। गिद्धों की विभिन्न प्रजातियों में काण्डर, किंग वल्चर, कैलिफोर्नियन वल्चर, टर्की बजर्ड, अमरीकी ब्लैक वल्चर, अफ्रीका व एशिया के राजगिद्ध, काला गिद्ध, चमर गिद्ध, बड़ा गिद्ध व गोबर गिद्ध आदि गिने जाते हैं। कत्थई व काले रंग के गिद्ध अन्य पक्षियों की तुलना में काफी वजनदार पक्षी माने जाते हैं। इनकी देखने की क्षमता काफी तेज होती है। आसमान में मीलों की ऊंचाई पर उड़ान भरने के बावजूद धरती पर पड़े मांस के लोथड़े को वह आसानी से देख लेते हैं लेकिन आज समाज का यह प्राकृतिक सफाई कर्मी आसमान में उड़ान भरते नहीं दिखता आैर मरघट में गिद्ध समूह की कांय-कांय सुनने को नहीं मिलती।
वैज्ञानिकों व विशेषज्ञों की मानें तो गिद्धों की मौत की वजह ‘डाइक्लाफिनेक” एक बड़ा कारण रही। वर्ष 2003 में अमेरिका के एक पशु पक्षी वैज्ञानिक ने पाकिस्तान में गिद्धों की मौत पर अध्ययन किया था। जांच में गिद्धों की मौत का कारण ‘डाइक्लाफिनेक” सामने आया था। इसका सीधा असर भारत में पड़ा था। ‘डाइक्लाफिनेक” दवा गाय व भैंस को दर्द से राहत देने के लिए दी जाती है। इस दवा का प्रभाव गाय व भैंस के शरीर में मौत के बाद भी बना रहता है। इस मांस को खाने के बाद गिद्धों की आंतों पर बुरा प्रभाव पड़ता है जिससे गिद्धों की मौत हो जाती थी। जब तक भारत सरकार इस तथ्य से अवगत होती तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
हालांकि बाद में सरकार ने इस दवा के उपयोग पर पाबंदी लगा दी थी। इसके अलावा गुजरात में पंतगबाजी के कारण भी बड़ी संख्या में गिद्धों की मौतें हुयीं क्योंकि मंझे में फंस जाने के कारण गिद्धों की गर्दन कट जाने से मौत हो जाती थी। देश व समाज को प्रदूषण से बचाने व सफाई कर्मियों के मानिंद माने जाने वाले पक्षी गिद्धों को बचाने के लिए शासकीय स्तर पर गिद्ध संरक्षण योजना पर कार्य व्यापक पैमाने पर होना चाहिए। हालांकि करीब दस साल पहले इस दिशा में पहल हो चुकी है लेकिन गिद्धों के महत्व को देखते हुये यह पहल व प्रयास नाकाफी हैं। एक दशक पहले पिंजौर में वल्चर कंजर्वेशन ब्राीडिंग सेंटर की शुरुआत हुई थी। गिद्ध संरक्षण का यह प्रोजेक्ट सेंटर फारेस्ट डिपार्टमेंट आफ हरियाणा, बाम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी, रॉयल सोसाइटी फॉर प्रोटेक्शन वर्डस, इंस्टीट्यूट ऑफ जुलॅाजी व नेचुरल वर्डस आफ प्रे ट्रस्ट के सयंुक्त प्रयासों से चल रहा है लेकिन सामाजिक व शासकीय स्तर पर व्यापक पैमाने पर गिद्ध संरक्षण की परियोजनाएं चलनी चाहिए। वन एवं पर्यावरण मंत्रालय को भी आर्थिक सहयोग से पक्षी संरक्षण की परियोजनाओं को बल देना चाहिए क्योंकि गिद्धों की जमात समाज की अहम आवश्यकता है क्योंकि गिद्धों की निगाह खास तौर से शवों पर मांस पर रहती है। चाहे वह नदियों में बहते पशुओं व मानव के शव हों या मरघट में पड़े पशुओं के शव हों… उनका भोजन तो यही है।