भाजपाई राजनीति में 1998-99 की कहानी का दोहराव

* फिर कहानी के तीन पात्र-ठाकुर ब्राह्मण और पिछड़ा * फिर कमंडल पर मंडल को लादने की कोशिश * फिर भाजपा की राजनीति पर संघ का दखल बढ़ा * फिर लिखी जा रही केंद्र व यूपी के टकराव की दास्तान * दोनों पक्षों को विस उपचुनाव तक शांत रहने के निर्देश * केशव मौर्य की बॉडी लैंग्वेज फिलहाल काफी सुकून भरी है

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लखनऊ/नयी दिल्ली। भाजपा की राजनीति में एक बार फिर 1998-99 की कहानी दोहराए जाने की संकेत मिल रहे हैं। इस बार भी कहानी वही है, बस पात्र बदले हैं। जिस प्रकार कल्याण सिंह के समय में केंद्र और यूपी के सूरमा आमने-सामने थे, ठीक उसी प्रकार वर्ष 2024 की राजनीति के सूरमा आमने-सामने हैं। जिस प्रकार यूपी की राजनीति में कल्याण सिंह को राजनाथ सिंह और कलराज मिश्र ने चुनौती दी थी ठीक उसी तरह 2024 की कहानी में योगी आदित्यनाथ को केशव प्रसाद मौर्य और बृजेश पाठक ने चुनौती दी है। कहानी के किरदार भले ही लखनऊ के हों लेकिन चाल दिल्ली से चली जा रही है। एक के ऊपर भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व का वरदहस्त है तो दूसरे के सर संघ का हाथ है। अब देखना यह है कि लड़ाई किस ओर जाकर करवट लेती है।

वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की शर्मनाक पराजय के बाद मंथन का दौर चालू है। हार का ठीकरा किसके सिर पर फोड़ा जाए इसको लेकर लगातार बयानबाजी चल रही है। इस बार प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को घेरे में लेने की कोशिश है। और इस कोशिश का चेहरा बने हैं प्रदेश के डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य। और उनके साथ खड़े दिख रहे हैं प्रदेश के दूसरे डिप्टी सीएम बृजेश पाठक। प्रदेश में एनडीए की सहयोगी पार्टियों भी इस मुद्दे पर केशव प्रसाद मौर्य के साथ दिख रही हैं। पार्टी के अंदर से भी कई विधायकों ने योगी के कामकाज को लेकर सवाल उठाए हैं और कहा है कि उनकी सरकार में कोई सुनवाई नहीं है। इसमें गोरखपुर के पनियरा क्षेत्र से सात बार के विधायक फतेह बहादुर सिंह, एमएलसी देवेंद्र प्रताप सिंह, जौनपुर क्षेत्र के विधायक रमेश मिश्रा, विधान परिषद सदस्य प्रांशु अवस्थी के अलावा बहुत से लोग हैं जिन्होंने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के खिलाफ बयानबाजी की है। इन सभी का आरोप है योगी की गलत कार्य प्रणाली के चलते अधिकारी विधायकों और सांसदों की नहीं सुनते। इससे कार्यकर्ता नाराज है। और इसी का परिणाम लोकसभा चुनाव में हार के रूप में मिला है।

यह विवाद तब और बढ़ उठा जब प्रदेश भाजपा कार्यकारिणी की बैठक में डिप्टी सीएम केशव प्रसाद में कह दिया कि संगठन हमेशा बड़ा था, है और रहेगा। कोई भी सरकार संगठन से बड़ी नहीं हो सकती। इसके जवाब में योगी आदित्यनाथ ने भी कह दिया कि ज्यादा उछल-कूद करने वालों को कुछ नहीं मिलने वाला है। इस विवाद का अंत कहां जाकर होगा इसके बारे में कुछ भी कर पाना बहुत मुश्किल है। लेकिन मोटे तौर पर अंदर से छन कर जो खबर आई है उसका साफ संकेत यही है कि प्रदेश की कमान फिलहाल योगी के पास ही रहेगी। यूपी भाजपा को लेकर दिल्ली में शनिवार 27 जुलाई को हुई बैठक का लब्बोलुआब तो लगभग यही है। परंतु ये विधानसभा उपचुनाव तक के लिए युद्ध विराम जैसा है। फाइनल रिजल्ट उसके बाद ही आएगा।

उत्तर प्रदेश भाजपा में सत्ता संघर्ष का परिणाम चाहे जो भी हो परंतु पार्टी उत्तर प्रदेश में एक बार फिर मंडल बनाम कमंडल की लड़ाई की तरफ बढ़ रही है। अगर उसे 2027 का विधानसभा चुनाव जीतना है तो कट्टर हिंदूवाद की राह छोड़कर सोशल इंजीनियरिंग की तरफ बढ़ना ही होगा। अखिलेश यादव के पीडीए की काट ढूंढना होगा क्योंकि उसका दबाव बढ़ा है। इस लिहाज से केशव प्रसाद मौर्य या कोई और पिछड़ा चेहरा सामने लाना होगा। क्योंकि योगी आदित्यनाथ इस खांचे में फिट नहीं बैठते। योगी आदित्यनाथ बनाम केशव प्रसाद मौर्य की लड़ाई के बाद भाजपा की दिल्ली बैठक का तो का तो यही निष्कर्ष निकल रहा है। अब यह आरएसएस और भाजपा हाईकमान को तय करना है कि वे कट्टर हिंदूवाद यानी कमंडल यानी योगी आदित्यनाथ की ओर जाना पसंद करेंगे या फिर सोशल जस्टिस के लिए मंडल यानी केशव प्रसाद मौर्य की ओर। और इसी गणित में छिपा है योगी बनाम केशव के विवाद का अंत। जो भी होगा अंतिम फैसला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ही होगा क्योंकि संघ उनको इग्नोर करने की स्थिति में नहीं है। जैसा कि कल्याण सिंह के समय में हुआ था। उस समय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई की ही चली और कल्याण सिंह को पद छोड़ना पड़ा था।

जानकारों का कहना है कि ये विवाद अगर बहुत बढ़ा तो तीसरे चेहरे की इंट्री हो सकती है जैसा की कल्याण सिंह के बाद हुआ। उन्होंने पद तो छोड़ दिया पर इस शर्त के साथ कि राजनाथ सिंह या कलराज मिश्र को सीएम नहीं बनाया जाएगा। और उस समय समय राम प्रकाश गुप्ता को मुख्यमंत्री बनाया गया जो राजनीतिक रूप से संन्यास की स्थिति में थे। इस बार कैसा होगा या कब होगा, यह पीएम नरेंद्र मोदी की इच्छा पर निर्भर करता है। भाजपाई राजनीति के जानकारों का मानना है कि यह विवाद अंतिम तौर पर संभवतः तब सुलझेगा जब भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष तय हो जाएगा। उसके बाद ही तय होगा कि यूपी की राजनीति किस दिशा में जाएगी। पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष संघ की इच्छा वाला होगा या केंद्रीय नेतृत्व की इच्छा वाला, यह तय हो जाने के बाद यूपी का भविष्य तय हो जाएगा।

भाजपा की राजनीति के इतिहास में थोड़ा पीछे जाए तो यूपी में 1998-99 में तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के खिलाफ राजनाथ सिंह और कलराज मिश्र थे। उस समय पिछड़े वर्ग के नेता के खिलाफ एक ठाकुर और एक ब्राह्मण नेता सक्रिय थे। जबकि इस बार ठाकुर योगी आदित्यनाथ के खिलाफ पिछड़ा वर्ग के केशव मौर्य और ब्राह्मण बृजेश पाठक हैं।
कुल मिलाकर इस बार भी विवाद के केंद्र में ठाकुर, ब्राह्मण और पिछड़ा नेता ही हैं। तब भाजपा में सत्ता के शीर्ष पर अटल बिहारी वाजपेई जैसा ब्राह्मण नेता था और अब सत्ता के शीर्ष पर नरेंद्र मोदी जैसा पिछड़ा नेता है। तब अटल बिहारी वाजपेई के साथ एक गुजराती दिमाग लालकृष्ण आडवाणी थे और अब नरेंद्र मोदी के साथ गुजराती दिमाग अमित शाह हैं। संयोग यह भी है कि तब लालकृष्ण आडवाणी भाजपा में नंबर दो के दावेदार थे और अब अमित शाह इसके दावेदार हैं। तब कल्याण सिंह ने लालकृष्ण आडवाणी की दावेदारी को चुनौती पेश की थी और अब ये काम योगी अमित शाह के खिलाफ कर रहे हैं। तब भी भाजपा का प्रदर्शन यूपी में कमजोर हुआ था और इस बार भी भाजपा का प्रदर्शन गिरा है।
आरोप है कि योगी ने कार्यकर्ताओं की उपेक्षा की इसलिए उसने लोकसभा चुनाव के पूर्व मतदाता सूची के रिवीजन में रुचि नहीं ली। जिसके चलते भाजपा के वोटरों के नाम मतदाता सूचियां से गायब हो गए। योगी राज में अफसरों की मनमानी चली, इससे जन प्रतिनिधियों की नहीं सुनी गई और कार्यकर्ताओं का कोई काम नहीं हुआ।

भाजपा के लिए चिंता की बात यह है कि योगी को हटाने में नुकसान यह है कि एक हिंदूवादी और दबंग नेता का नुकसान होगा। इसके अलावा पूर्वांचल में भी पार्टी को क्षति उठानी पड़ेगी। वहीं केशव मौर्य को इग्नोर करने पर पिछड़ों को सहेज पाना और समझाना बहुत मुश्किल काम होगा। इसे लेकर पार्टी असमंजस में है। योगी को हटाने से जहां राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नाराजगी का खतरा है वहीं केशव प्रसाद मौर्य को रोकने से पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को पार्टी पर अपनी पकड़ कमजोर होने का खतरा है।

इधर कावड़ यात्रा पर योगी आदित्यनाथ के स्टैंड को मध्य प्रदेश, उत्तराखंड और हरियाणा के मुख्यमंत्रियों ने भी समर्थन दिया है। इससे यूपी के बाहर भी योगी की स्वीकार्यता बढ़ी है और उनकी छवि एक राष्ट्रीय पहचान वाले नेता की बनी है। परंतु योगी में इतनी हैसियत नहीं है कि वे दोनों उपमुख्यमंत्रियों को हटा दें। क्योंकि दोनों ही नेता केंद्र की पसंद हैं। लगभग यही स्थिति उस समय कल्याण सिंह के साथ थी।

कुल मिलाकर मामले में पेंच फंसा हुआ है। फिलहाल दोनों पक्षों को संघर्ष विराम के लिए कह दिया गया है। सूत्रों से यह जानकारी मिल रही है कि फिलहाल योगी आदित्यनाथ से कहा गया है कि वे अपना काम करते रहें और सबको साथ लेकर चलें। दोनों डिप्टी सीएम को भी कहा गया है कि वे अपनी बात पार्टी फोरम पर ही करें। ऐसा कोई मैसेज न दें कि विरोधियों को मजा लेने का मौका मिले। पार्टी हाईकमान ने दोनों डिप्टी सीएम के योगी की मंडलीय समीक्षा बैठकों में न जाने को गंभीरता से लिया है। दोनों को बोला गया है कि किसी भी सारूमंच पर बयानबाजी नहीं करनी है। और एक साथ काम करना है।

मगर दिल्ली में पार्टी मुख्यालय पर हुई मीटिंग में गए केशव प्रसाद मौर्य की बाडी लैंग्वेज कुछ और कह रही थी। वे बड़े कॉन्फिडेंट दिख रहे थे। कुछ जानकार बताते हैं कि आलाकमान की नाराजगी की बात महज दिखावा है और लोगों को भ्रमित करने के लिए है। केशव प्रसाद मौर्य को कोई तगड़ा आश्वासन मिल गया है। पर फिलहाल उन्हें इंतजार करने के लिए कहा गया है।

अभयानंद शुक्ल
राजनीतिक विश्लेषक