लखनऊ। वर्ष 1997 में भाजपा और बसपा के संबंधों में दरार का कारण रहे उत्तर प्रदेश अनुसूचित जाति और जनजाति अधिनियम का दुरुपयोग एक बार फिर चर्चा में है। इस बार इलाहाबाद हाईकोर्ट में इसके दुरुपयोग पर नाराजगी जताई है। कोर्ट ने आदेश दिया है कि इसका दुरुपयोग रोकने के लिए एक सक्षम निगरानी तंत्र बनाया जाए। तब तक के लिए कोर्ट ने प्रदेश की पुलिस को आदेश दिया है कि वह इस कानून के तहत में प्राथमिकी दर्ज करने के पूर्व आरोपों और तथ्यों की प्रारंभिक जांच करे। और संतुष्ट होने पर ही मुकदमा दर्ज करें। हाई कोर्ट ने आदेश की प्रतिलिपि राज्य के सभी जिला न्यायालयों और प्रदेश के डीजीपी को भी भेजा है। डीजीपी से अपेक्षा की गई है कि वे अपनी ओर से इस बाबत एक सर्कुलर जिलों की पुलिस को भेजें और आदेश का अनुपालन सुनिश्चित कराएं।
इसके बाद से हड़कंप मचा हुआ है। सरकार अगर मुकदमों पर लगाम लगाती है तो विपक्ष उसे दलित विरोधी घोषित कर देगा। और अगर नहीं लगाती है तो हाईकोर्ट के आदेश का उल्लंघन तो होगा ही, सवर्णों की नाराजगी भी झेलनी पड़ सकती है। हाईकोर्ट ने कहा है कि इस कानून में मुकदमा दर्ज करने के पहले मामले की प्रारंभिक जांच की जाए और प्राथमिक सबूत मिलें तो ही आगे कार्रवाई की जाए। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने डीजीपी को दिए निर्देश में कहा है कि पुलिस अफसरों को कहा जाए कि धारा 182 भादवि और भारतीय न्याय संहिता 2023 की धारा 217 पर भी सोच-विचार करके ही कार्रवाई करें। कार्रवाई करते समय उक्त कानूनों के प्रावधानों के संबंध में कोर्ट द्वारा की गई टिप्पणियों पर भी विचार किया जाए। कानून के प्रावधानों को लागू करते समय कोर्ट की टिप्पणियों और अनुसूचित जाति और जनजाति अधिनियम पर भी सम्यक विचार किया जाना चाहिए।
हाईकोर्ट ने कहा है कि यह कानून पीड़ितों को राहत और सुरक्षा प्रदान करने के लिए बनाया गया था। किंतु देखने में आ रहा है कि कुछ व्यक्ति इस कानून का दुरुपयोग कर विरोधी को परेशान करने और मुआवज़े के लिए इसे हथियार बना रहे हैं। जिससे 1989 में बने इस कानून के दुरुपयोग को रोका जा सके। हाईकोर्ट ने अपने निष्कर्ष में कहा है कि यह देखने में आया है कि इस कानून की आड़ में अपने विरोधी को परेशान किया जा रहा है। इसके अलावा मुक़दमे की आड़ में सरकारी मदद भी प्राप्त की जा रही है। इसके चलते इस कानून को बनाने की मंशा पर सवाल उठने लगे हैं। इसका इस्तेमाल अब न्याय पाने के लिए कम और धमकाने-प्रताड़ित करने के लिए अधिक होने लगा है। जो न्याय की दृष्टि से ठीक नहीं है।
हाईकोर्ट ने सरकार को भी निर्देश दिए हैं कि वह इस कानून का दुरुपयोग रोकने के लिए स निगरानी तंत्र विकसित करने की दिशा में अति शीघ्र काम करें। सरकार से अपेक्षा की गई है कि कानून के प्रावधानों का दुरुपयोग रोकने के लिए इमानदारी से काम किया जाए ताकि जनता से कर के रूप में प्राप्त धन का गलत उपयोग रोका जा सके। कोर्ट की मंशा है कि इस कानून का दुरुपयोग रोकने के लिए दंड का भी प्रावधान किया जाए।
हाईकोर्ट के इस निर्देश के बाद उन लोगों पर लगाम लग सकेगी जो अब तक इसकी आड़ में अपना उल्लु सीधा कर रहे थे। ग्रामीण परिवेश में तो ये कानून अपने विरोधी को परेशान करने का हथियार बन गया है। गांवों में लोग अपनी रंजिश निकालने के लिए दलित वर्ग के लोगों को खड़ा करके अपने दुश्मन को परेशान करते हैं। ऐसे में हाईकोर्ट का यह निर्देश बेकसूरों के लिए वरदान साबित हो सकता है।
हाई कोर्ट ने आर्थिक लाभ के लिए एससी-एसटी एक्ट के दुरुपयोग पर चिंता जताते हुए कहा है कि झूठी शिकायत कर मुआवजा लेने वालों को धारा 182 व 214 के तहत दंडित किया जाय। इस बाबत आदेश न्यायमूर्ति मंजू रानी चौहान ने बिहारी व दो अन्य की याचिकाओं पर दिया। कोर्ट ने इस मामले में झूठी शिकायत कर 75 हजार रुपये प्राप्त किया गया मुआवजा भी लौटाने का आदेश दिया है।
यह मामला थाना कैला देवी (संभल) में दर्ज किया गया था। पुलिस ने इस मामले में चार्जशीट दाखिल की थी। प्रदेश सरकार ने इस मामले में पीड़ित को 75 हजार रुपये मुआवजा भी दिया। बाद में समझौता हो गया तो आपराधिक केस रद करने को याचिका दायर की गई। इस पर हाईकोर्ट ने शिकायत कर्ता को प्राप्त मुआवजा राशि लौटाने का आदेश दे दिया। हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला देते हुए कहा कि संज्ञेय व असंज्ञेय अपराधों को समझौते से समाप्त किया जा सकता है। कोर्ट ने इस मामले में पक्षकारों के बीच हुए समझौते को सही माना। हाईकोर्ट ने साथ ही झूठा केस दर्ज कर मुआवजा लेने वाले को दंडित भी किया जाए।
यूपी में इसी प्रकार का मामला 1997 में भी उठा था। उस समय की भाजपा की कल्याण सिंह सरकार से बसपा सुप्रीमो मायावती ने इसी मुद्दे पर समर्थन वापस ले लिया था। तब बसपा और भाजपा ने प्रदेश में राष्ट्रपति शासन समाप्त कर गठबंधन सरकार बनाने का फैसला किया था। छह-छह महीने में मुख्यमंत्री बदलने के समझौते के तहत 1997 में पहले छह महीने मायावती मुख्यमंत्री रहीं। उसके बाद कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने। परंतु कुछ ही दिनों बाद बसपा ने भाजपा पर दलित विरोधी होने का आरोप लगाकर समर्थन वापस खींच लिया था। दरअसल मायावती के शासनकाल में इसी अनुसूचित जाति और जनजाति अधिनियम को लेकर सवर्णों में बड़ी नाराजगी थी। उनकी शिकायत थी कि मायावती के शासन में इस कानून का जमकर दुरूपयोग हुआ। जिसके चलते बहुत से निर्दोष लोगों को बेवजह कानूनी कार्रवाई झेलनी पड़ी। आरोप है कि इसमें से अधिकतर मुकदमे फर्जी थे जो सिर्फ व्यक्तिगत दुश्मनी निकालने के लिए दर्ज कराए गए थे। ऐसे में कल्याण सिंह की सरकार बनते ही यह आदेश जारी किया गया था कि इस कानून के तहत मुकदमा दर्ज करने के पूर्व इसकी प्रारंभिक जांच होगी। मायावती ने तब इसी मुद्दे पर भाजपा को दलित विरोधी बताते हुए अपना समर्थन वापस ले लिया था।
हालांकि उस समय के सूत्रों का कहना है कि यह मुद्दा तो समर्थन वापस लेने का एक बहाना था। असल में मायावती भाजपा से पीछा छुड़ाना चाहती थीं। क्योंकि मायावती को अपनी कुर्सी जाना और भाजपा का मुख्यमंत्री आना पसंद नहीं आया। वे लगातार मुख्यमंत्री बने रहना चाहती थीं, लेकिन भाजपा इसके लिए तैयार नहीं थी। हालांकि अभी आरक्षण को लेकर जो हाय तौबा मची हुई है, उसमें इसकी भी आशंका है कि अगर योगी सरकार कोई निगरानी तंत्र बनाएगी तो मैसेज यही जाएगा कि भाजपा दलित विरोधी हो गई है। विपक्ष को भी भाजपा के खिलाफ नैरेटिव गढ़ने का मौका मिलेगा। क्योंकि मायावती ने 1997 में इस नैरेटिव की बुनियाद रख दी है। मायावती को तो बस उसे थोड़ा धार देने की जरूरत पड़ेगी। वैसे भी 2024 के बीते लोकसभा चुनाव में विपक्ष ने भाजपा के खिलाफ यही प्रचार किया था कि भाजपा आरक्षण खत्म करके दलितों और पिछड़ों को परेशान करना चाहती है। विपक्ष का यह नैरेटिव सफल भी हो गया था। और इसी कारण काफी हद तक दलित वोटर भाजपा से छिटक गया था जो 2019 में उसके साथ था। परिणाम यह हुआ कि यह हुआ कि भाजपा को उत्तर प्रदेश में काफी नुकसान हुआ। उसकी सीटें 62 से घट कर 33 पर आ गईं। ऐसे में हाईकोर्ट का ये आदेश कहीं भाजपा पर भारी न पड़ जाए। इससे भाजपा का दलित वोट बैंक गड़बड़ा सकता है। अब देखना यह है कि योगी सरकार इस मामले में ऐसा क्या करती है की हाईकोर्ट के आदेश का पालन भी हो जाए और दलित वोट बैंक पर असर भी न पड़े।
आयोग के पुनर्गठन से दलितों को साधने की कोशिश : “भारत का संविधान” के अनुच्छेद 200 के अधीन उत्तर प्रदेश मे अधिनियम संख्या 16/1995 के अन्तर्गत उत्तर प्रदेश अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति आयोग का गठन किया गया था। इसकी स्थापना 8 अगस्त 1994 से मानी गयी। परंतु आयोग जून 1995 से कार्यरत है। भाजपा के वरिष्ठ नेता और पूर्व सांसद, विधायक व राज्यमंत्री रहे 70 वर्षीय बैजनाथ रावत को इस आयोग का अध्यक्ष बनाया गया है। यूपी सरकार के इस फैसले पर कुछ समय तक उनकी उम्र को लेकर विवाद हुआ। इस कारण सरकार को अधिकतम उम्र सीमा में छूट के लिए अध्यादेश लाना पड़ा। और अंततः बैजनाथ रावत की नियुक्ति फाइनल हो गई। बैजनाथ रावत को ही इस आयोग का अध्यक्ष बनाए रखने की यूपी सरकार की यह कोशिश बताती है कि भाजपा के लिए वे कितने महत्वपूर्ण हैं। इस चयन को आने वाले विधानसभा उपचुनाव से पहले यूपी सरकार की रणनीति का हिस्सा माना जा रहा है। ताकि पिछली लोकसभा के परिणामों की पुनरावृत्ति न हो सके।
आसन्न उपचुनाव से पहले बैजनाथ रावत की नियुक्ति को भाजपा की एक सोची-समझी रणनीति माना जा रहा है। पार्टी के लिए यह नियुक्ति कई मायनों में महत्वपूर्ण है। ये कदम अनुसूचित जाति एवं जनजाति को पार्टी के प्रति आकर्षित करने का प्रयास है। साथ ही बैजनाथ रावत की सादगी और ईमानदारी का उपयोग कर जनता से सीधे जुड़ने की कोशिश भी।सरकार ने पहले वाली सूची को ही जारी कर दिया है। इसमें सिर्फ अजय कोरी का नाम नहीं है, क्योंकि चयन प्रक्रिया के दौरान ही उनका निधन हो गया था।
आयोग में अध्यक्ष बैजनाथ रावत के अलावा दो उपाध्यक्ष और 16 सदस्य भी शामिल किए गए हैं। आयोग के अध्यक्ष बैजनाथ रावत बाराबंकी जिले के निवासी हैं। पूर्व विधायक व गोरखपुर निवासी बेचन राम और सोनभद्र के जीत सिंह खरवार आयोग के उपाध्यक्ष होंगे। इसके अलावा 16 सदस्य भी नामित कि गए हैं। इनमें मेरठ के हरेंद्र जाटव व नरेंद्र सिंह खजूरी, सहारनपुर के महिपाल वाल्मीकि, बरेली के संजय सिंह व उमेश कठेरिया, आगरा के दिनेश भारत, हमीरपुर के शिव नारायण सोनकर, औरेया की नीरज गौतम, लखनऊ के रमेश कुमार तूफानी, आजमगढ़ के तीजाराम, मऊ के विनय राम, गोंडा की अनिता गौतम, कानपुर के रमेश चंद्र, भदोही के मिठाई लाल, कौशाम्बी के जितेंद्र कुमार, अंबेडकरनगर की अनिता कमल शामिल हैं।
गौरव शुक्ल/वरिष्ठ पत्रकार