प्रेम से ही देश और साहित्य प्रेम का पर्याय

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नई दिल्ली। प्रेम हमारी आवश्यकता है। हम सब उसे पाना चाहते हैं, लेकिन उससे पहले हमें प्रेम देना सीखना होगा, क्योंकि प्रकृति का नियम है जो देता है उसे ही मिलता है। हिंदुस्तान में जो देता है, उसे देवता कहते हैं। इसलिए जो हम देंगे, वही लौटकर आएगा। यदि हम साहित्य में प्रेम और सद्भावना देंगे, तो पाठकों के मन में भी वैसी ही भावना विकसित होगी। यह विचार भारतीय जन संचार संस्थान के महानिदेशक प्रो. (डॉ.) संजय द्विवेदी ने राष्ट्रीय पुस्तक न्यास द्वारा गाजियाबाद में ‘भारतीय भाषा साहित्य में प्रेम और सद्भावना के प्रसंग’ विषय पर आयोजित संगोष्ठी को संबोधित करते हुए व्यक्त किए।

संगोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए प्रो. द्विवेदी ने कहा कि साहित्य शब्द दो शब्दों से मिलकर बनता है। ‘सः’ और ‘हितः’, यानी एक ऐसा तरीका, जिसमें किसी एक वर्ग, जाति या धर्म की जगह, समस्त विश्व और समाज के कल्याण की भावना निहित हो। उन्होंने कहा कि साहित्य ही एक रास्ता है, जहां हम अपने सांस्कृतिक मूल्यों को बनाए और बचाए रख सकते हैं।

इस अवसर पर चंडीगढ़ से आए डॉ. अमरसिंह वधान ने कहा कि यदि वैश्विक परिदृश्य पर ध्यान दिया जाए, तो सृष्टि का हर आदमी प्रेम और सद्भावना का भूखा है। प्रेम मनुष्य के लिए ऑक्सीजन है, तो सद्भावना मानव सांसों की बहती नदी है। उन्होंने कहा कि हमारे दो ध्रुव हैं- हृदय और मस्तिष्क, लेकिन हृदय मस्तिष्क से ज्यादा महत्वपूर्ण है। हमें हृदय से काम लेना चाहिए, क्योंकि भाषा साहित्य की रचना भी हृदय से ही होती है, जिसके माध्यम से समाज के लोग अपना मार्ग तय करते हैं।

गिरिडीह से आईं हिंदी और बांग्ला की विदुषी डॉ. ममता बनर्जी ने कहा कि भारत की साहित्यिक पहचान में बांग्ला साहित्य का विशेष योगदान है। उन्होंने चैतन्य महाप्रभु की रचनाओं में प्रेम प्रसंग से लेकर बंगाली साहित्य के दिग्गजों की रचनाओं में भी प्रेम व सद्भावना के प्रसंगों के उदाहरण प्रस्तुत किए। उन्होंने रवींद्रनाथ टैगोर के साहित्य-सृजन में प्रकृति प्रेम, नारी प्रेम, देश प्रेम के महत्व पर प्रकाश डाला।