वर्तमान राजनीतिक माहौल में पक्ष और विपक्ष दोनों की भूमिका में भाजपा सरकार और संगठन ही खड़े हैं। विपक्ष के नाम पर जो भी दल है उनकी सियासत सिर्फ ट्विटर तक सीमित हो कर रह गयी है। सबसे बड़े दल और विपक्ष की भूमिका में अखिलेश यादव ही हैं लेकिन कहीं ऐसा नहीं लग रहा है कि वह मुलायम सिंह यादव के उत्तराधिकारी हैं, जिन्होंने विपरीत परिस्थितियों में संघर्ष करके एक नया मुकाम हासिल किया। मुलायम की सियासत सत्ता कम विपक्ष की ज्यादा रही है। मुलायम सिंह संघर्ष का कोई भी अवसर नहीं गवांते थे। वह कभी भी खाली नहीं रहते थे और अपनी टीम को हमेशा सक्रिय रखने के लिए संघर्ष के नए-नए तरीके और मुद्दे देकर उन्हें सड़कों पर उतरने के लिए दिशा निर्देश देते रहते थे।
1991 में जब मंडल कमंडल विवाद में भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बनी और मुलायम सिंह मात्र 30 सीटों पर सिमट गए। तरह-तरह के कयास और लोग भविष्यवाणियां करने लगे कि मुलायम सिंह का अब भविष्य नहीं रहा, पार्टी खत्म है, आदि आदि। लेकिन चंद महीनों के अंतराल में ही भाजपा को अपने सियासी सूझ-बूझ और संघर्ष के रास्ते पानी पिला दिया। मात्र 12 महीनों के अंतराल में पुनः धार्मिक ध्रुवीकरण का जवाब काशीराम के साथ मिलकर जातीय ध्रुवीकरण से दिया। विश्लेषकों की आवाज बंद कर दी। ऐसे तमाम उदाहरण है जब मुलायम सिंह समय-समय पर विपक्ष की भूमिका में संघर्ष करके आगे आए और सत्ता के शीर्ष पर पहुंचे।
उनके पुत्र अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश में सबसे बड़ी पार्टी और विपक्ष की भूमिका में है। माना भी जा रहा है कि अगर परिस्थितियां बदली तो विकल्प अखिलेश यादव हो सकते हैं। लेकिन परिस्थितियां ऐसे नहीं बदलती उसे बदलने के लिए विपक्ष की भूमिका बहुत तीखी तेवर वाली और कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाते हुए जनता से जुड़ने वाली होनी चाहिए। लगता है अखिलेश यादव केवल राजनीतिक उत्तराधिकारी बने पाये। पिता के संघर्षशील जीवन के उत्तराधिकारी नहीं बन पाए। मुलायम सिंह यादव के पास वरिष्ठ नेताओं की भारी-भरकम टीम थी। जिसमें हर बड़े नेता विभिन्न जातियों से जुड़े हुए थे। जनेश्वर मिश्रा, मोहन सिंह, आजम खां, बेनी प्रसाद वर्मा, रामशरण दास ऐसे तमाम नेता थे, जब मुलायम सिंह का दरबार लगता था। यह ऐसे कद्दावर नेता थे जिनकी बातें और अनुभव मुलायम सिंह सुनते और उनको साथ में लेकर संघर्ष करते रहे। मुलायम सिंह ने जातीय सियासत की लेकिन कभी ऐसा नहीं महसूस हुआ कि वह केवल यादवों को ही अधिक महत्व देते हैं।
जब मुलायम सिंह मुख्यमंत्री बने तो उनकी टीम में हर स्तर तथा हर जाति संप्रदाय के काबिल अधिकारी हुआ करते थे। 1989 में मुख्यमंत्री बनने के बाद नृपेन्द्र मिश्र पहले सचिव मुख्यमंत्री बने थे जो बाद में कल्याण सिंह के मुख्यमंत्री सचिव और 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें कैबिनेट सेक्रेटरी बनाया। शैलेश कृष्ण पीएल पुनिया ऐसे तमाम अधिकारियों की लम्बी सूची है। मुलायम सिंह के जगजीवन बाबू एक ऐसे व्यक्ति थे जो उनके हर इशारों को समझते थे। हर अच्छे बुरे की भूमिका पर पैनी निगाह रखते थे। मुलायम सिंह की सबसे बड़ी विशेषता यारों के यार, उनकी पसंद और नापसंद स्पष्ट थी। रिश्तों का सम्मान करते थे और सत्ता के लिए हर सियासी दांव पेंच इस्तेमाल करते हुए हमेशा संघर्ष करते रहे। अखिलेश यादव अपने पिता मुलायम सिंह के तमाम सियासती खूबियों से अलग हैं। यह सही है कि अखिलेश की अच्छी छवि मुख्यमंत्री के रूप में विकास के विजन होने सहित तमाम अच्छाइयां हैं लेकिन यह अच्छाइयां बिना संघर्ष के सत्ता में नहीं ला सकती।
प्रदेश में योगी सरकार पूरी तरह से कोरोना संकट में फेल रही है। ऑक्सीजन दवाओं के बिना हज़ारों हज़ारों लोग मरे है। श्मशान और कब्रिस्तान में अंतिम संस्कार और दफ़नाने की जगह नहीं थी। बेरोजगारी और महगाई चरम सीमा पर है। जनता में भाजपा सरकार के खिलाफ जबरदस्त जनाक्रोश है। भाजपा आन्तरिक कलह से जूझ रही है। ऐसे तमाम मुद्दे और अवसर अखिलेश यादव के सामने हैं जो संघर्ष के माध्यम से जनता से रूबरू होकर योगी सरकार के खिलाफ 2022 में राजनीतिक लाभ ले सकते हैं। लेकिन वह घर में कैद होकर ट्विटर ट्विटर की सियासत कर रहे हैं। अखिलेश के आस पास नेताओं की ऐसी कोई टीम नहीं दिख रही है जैसा मुलायम सिंह यादव के साथ थी। अखिलेश के तेवर, बयान विपक्ष के तो लगते हैं लेकिन यही तेवर अगर वह जनता के साथ जुड़ कर प्रदेश के सड़को पर आएं तो निश्चित रूप से लाभ मिल सकता है। लेकिन वह ऐसा नहीं कर रहे हैं। जबकि उनका मुकाबला 24 घंटे कार्य करने वाले लोकप्रिय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और मुख्यमंत्री आदित्यनाथ से है।
मुख्यमंत्री के रूप में योगी आदित्यनाथ, अखिलेश से कई गुना मेहनत कर रहे हैं। यह अलग बात है कि उनकी मेहनत पर कोरोना संकट में पानी फिर गया है लेकिन इस कड़वे सच को अखिलेश यादव को स्वीकार करना चाहिए और गलतफहमी हटा देनी चाहिए कि बिना संघर्ष किये उन्हें सरकार विरोधी जनाक्रोश का लाभ मिल पायेगा। यह भी कड़वा सच है और जनमानस में परसेप्शन भी बन गया है कि योगी सरकार कोरोना संकट से लड़ने में असफल रही है। तो यह भी पासेप्शन है कि विपक्ष की भूमिका निभाने में अखिलेश यादव भी फेल हैं। परसेप्शन यह भी बन रहा है कि अखिलेश यादव सत्ता में आने से पहले ही काफी ऐरोगेंट हो गए है। अपनी ही पार्टी के नेता और कार्यकर्ताओं से दिल खोल कर वैसे नहीं मिलते जैसे उनके पिता मुलायम सिंह यादव मिला करते थे। अखिलेश यादव को यह भी नहीं भूलना चाहिए कि उनके पास शिवपाल जैसे जनसरोकार से जुड़ा भाई भी नहीं है। परिवार के जो भी सदस्य उनसे जुड़े है उनमे चाचा शिवपाल जैसी राजनीतिक काबिलियत नहीं है। संगठन के नाम पर कोई ऐसा जुझारू चेहरा नहीं है जैसे मुलायम सिंह के समय उनके आसपास होते थे। समय किसी का इन्तजार नहीं करता। अखिलेश यादव निश्चित रूप से पढ़े लिखे युवा अच्छी छवि वाले नेता है लेकिन उनमे पिता मुलायम के जैसे संघर्ष करने की काबिलियत नहीं है। सत्ता का ख्याब देखने वाले अखिलेश यादव को चाटुकारों की मंडली से दूर रहकर जमीनी हक़ीक़त को पहचानना चाहिए क्योकि उनका मुकाबला योगी और मोदी जैसे कड़ी मेहनत और जनता के बीच निरंतर रहने वाले नेता से है। ट्विटर ट्विटर खेलने और चाटुकारों से घिरे किसी नेता से नहीं।
राजेन्द्र द्विवेदी, वरिष्ठ पत्रकार