दक्षिण भारत का काशी रामेश्वरम् ज्योतिर्लिंग…… उत्तर में जितनी मान्यता काशी की है, उतनी ही मान्यता दक्षिण में रामेश्वरम् की है जो सनातन धर्म के चार धामों में से एक है। रामेश्वरम चेन्नई से करीब 425 मील दूर दक्षिण-पूर्व में स्थित है। रामेश्वरम् एक सुंदर टापू है, जिसे हिंद महासागर और बंगाल की खाड़ी चारों तरफ से घेरे हुए हैं। यह टापू काफी हरा-भरा है।
प्राचीन समय में यह भारत के साथ सीधे जुड़ा हुआ था। बाद में धीरे-धीरे सागर की तेज लहरों ने इसे काट दिया, जिससे यह टापू चारों ओर से पानी से घिर गया। अंग्रेजों ने एक जर्मन इंजीनियर की मदद से रामेश्वरम् को जोड़ने के लिए एक रेलवे पुल का निर्माण किया। रामेश्वरम् शहर और प्रसिद्ध रामनाथ का मंदिर इस टापू के उत्तरी छोर पर है। टापू के दक्षिणी कोने में धनुषकोटि तीर्थ है। इसी को सेतुबंध कहा जाता है। यहीं पर हिंद महासागर से बंगाल की खाड़ी मिलती है। भगवान श्रीरामचंद्रजी ने लंका पर चढ़ाई करने के लिए इसी स्थान पर पुल बांधा था, इसलिए इसका नाम सेतुबंध पड़ा। यही कारण है कि इसका बहुत अधिक धार्मिक महत्व है।
रामेश्वरम् शहर से उत्तर-पूर्व में करीब डेढ़ मील की दूरी पर गंधमादन नामक छोटी-सी पहाड़ी है। हनुमानजी ने इसी पर्वत से समुद्र को लांघने के लिए छलांग लगायी थी। यहीं पर भगवान राम ने अपनी सेना संगठित की थी। यहां भगवान श्रीराम का मंदिर है, जहां उनके चरण चिह्नों की पूजा की जाती है। रामेश्वरम् भगवान श्रीराम के प्रसंगों से भरा पड़ा है। कहते हैं कि जब श्रीराम ने लंका पर चढ़ाई कर रावण को मार डाला तो उन्होंने ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्ति पाने के लिए एक शिवलिंग की स्थापना की योजना बनायी।
उन्होंने हनुमान को आदेश दिया कि काशी जाकर एक शिवलिंग ले आओ, लेकिन शिवलिंग की स्थापना की निश्चित घड़ी पास आने तक भी हनुमान नहीं लौट सके। तब सीताजी ने समुद्र के किनारे की रेत को मुट्ठी में बांधकर एक शिवलिंग बना डाला। श्रीराम ने प्रसन्न होकर इसी रेत के शिवलिंग को प्रतिष्ठापित कर दिया। यही शिवलिंग रामनाथ कहलाता है। बाद में हनुमान के आने पर उनके द्वारा लाये गये शिवलिंग को उसके साथ ही स्थापित कर दिया गया।
रामेश्वरम् में शिव तथा पार्वती की अलग-अलग दो-दो मूर्तियां स्थापित की गयी हैं। पार्वती की एक मूर्ति पर्वतवर्द्धिनी तथा दूसरी विशालाक्षी कहलाती है। मंदिर के द्वार के बाहर हनुमानजी की मूर्ति है। रामेश्वरम् मुख्यत: शिवजी का मंदिर है, लेकिन उसके परिसर में अन्य भगवानों के मंदिर भी हैं। इसमें भगवान विष्णु का मंदिर मुख्य है। यहां अलग-अलग मीठे जल के 22 कुएं भी हैं। इनमें स्नान करने से सारे पाप नष्ट हो जाते हैंं।
रामेश्वरम् से लगभग तीन मील दूर पूरब में तंगचिमडम नामक गांव है। यहां समुद्र में विल्लूरणि तीर्थ है। असल में यह समुद्र के खारे पानी के बीच मीठे जल का कुंड है। एक बार सीता जी को बहुत प्यास लगी तो श्री राम ने बाण की नोक से यह कुंड बनाया। रामेश्वरम् के दक्षिण में रामस्वामी का मंदिर है। विभीषण ने यहां पर राम की शरण ली थी। रावण वध के पश्चात् यहीं पर विभीषण का राजतिलक किया गया था। रामनाथजी के मंदिर के पूर्वी घाट के सामने सीताकुंड है। यहीं पर सीताजी ने अपना सतीत्व सिद्ध किया था। जिस धधकते अग्नि कुंड में सीता जी ने प्रवेश किया, वह जल कुंड में बदल गया। इसीलिए इसे सीताकुंड कहते हैं।
रामेश्वरम् का मंदिर भारतीय वास्तुकला का उत्कृष्ट नमूना है। चालीस-चालीस फुट ऊंचे दो पत्थरों पर चालीस फुट लंबे एक पत्थर को इतने सलीके से लगाया गया है कि दर्शक आश्चर्यचकित हो जाते हैं। विशाल पत्थरों से मंदिर का निर्माण किया गया है। ये काले पत्थर दूर-दूर से नावों पर लाये गये हैं, क्योंकि रामेश्वरम् में ऐसी कोई पहाड़ी नहीं है जहां पत्थर निकल सकें। रामनाथजी के इस विशाल मंदिर को बनवाने में रामनाथपुरम्’ रियासत के राजाओं का योगदान प्रमुख रहा।
प्रचलित धारणा के अनुसार जब भगवान राम, सीता और लक्ष्मण वनवास को निकले तो जिस केवट ने उनको अपनी नाव में बैठाकर नदी पार करवायी थी, उसी के वंशज ये सेतुपति थे। रावण वध के बाद जब रामचंद्रजी ने रामेश्वरम् में शिवलिंग की स्थापना की थी तब वही केवट वहां उपस्थित था। तब ये केवट सदा के लिए रामेश्वरम् में रहने लगे। रामनाथपुरम् के राज भवन में एक पुराना काला पत्थर आज भी पड़ा है। कहा जाता है कि इस पत्थर को राम ने केवटराज को राजतिलक के समय स्मृति चिह्न के रूप में दिया था।
कैसे पहुंचें… हवाई मार्ग से.. सबसे करीबी हवाई मार्ग मदुराई है। मदुराई से रामेश्वरम की दूरी 154 किमी है। रेल मार्ग से.. मुंबई से सीधी रेलगाड़ियां जाती हैं। सड़क मार्ग से… राज्य परिवहन निगम की बसें सभी जगहों से यहां के लिए चलती हैं।