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विश्व आत्महत्या रोकथाम दिवस :एक अवलोकन

आत्महत्या यानी सुसाइड एक लैटिन शब्द से उत्पन्न हुआ शब्द है। जिसका अर्थ है स्वयं को समाप्त कर लेना। वैसे तो आत्म संयम आत्म बल आत्मज्ञान आदि शब्दों से स्पष्ट हो जाता है कि किसी भी स्थिति में जब व्यक्ति स्वयं को रख कर कोई कार्य करता है तो वहां उसके आत्म को परिभाषित करता है लेकिन स्वयं की हत्या करना एक कठिन कार्य है।

जिसको भारतीय विधि व्यवस्था में परिभाषित किया गया है। धारा 309 में भारतीय दंड संहिता इस तथ्य को परिभाषित करता है कि आत्महत्या करने वाले को 1 साल की सजा या जुर्माना दोनों हो सकता है। उसके बाद भी हम रोज समाचार पत्रों में आत्महत्या की खबर पढ़ते हैं। वर्ष 2003 में वैश्विक स्तर पर आत्महत्या की गंभीरता को समझते हुए विश्व आत्महत्या रोकथाम दिवस मनाया जाने लगा। वैसे तो 1897 में प्रसिद्ध समाजशास्त्री इमाइल दुर्खीम द्वारा चार प्रकार की आत्महत्याओं का वर्णन अपनी पुस्तक आत्महत्या में कर दिया गया था लेकिन आज वास्तविक अर्थ में यह जानने की आवश्यकता है कि व्यक्ति आत्महत्या क्यों करने की ओर दिन पर दिन बढ़ता जा रहा है।

स्वयं लेखक की पुस्तक विकल्प के समाज में इस बात का उल्लेख किया गया है कि विकल्प की शून्यता में व्यक्ति आत्महत्या ज्यादा करता है। इसका सबसे बड़ा कारण है कि संस्कृति के आवरण में व्यक्ति का जीवन तुलनात्मक ज्यादा हो गया है। जैविक आधार पर जीवन जीने वाले प्राणियों में आत्महत्या का वह कोई भी स्तर नहीं पाए जाता जो सांस्कृतिक मानव में पाया जाता है। ऐसी स्थिति में सबसे महत्वपूर्ण तथ्य है कि भारतीय व्यवस्था में भारतीय दर्शन में हम उन भगवानों से प्रेरणा लें जो अपने अपने कार्यों के कारण जाने जाते हैं।

कभी भगवान शंकर ने अपनी तुलना भगवान विष्णु से करके अपने को कम या ज्यादा नहीं समझा लेकिन उसी परंपरा में मानव प्रतिदिन अपने को तुलनात्मक रूप से यह समझता है कि उसके पास दूसरों की अपेक्षा क्या है क्या नहीं है। समानता की दौड़ में किया जाने वाला यही प्रयास एक हताशा पैदा करता है और व्यक्ति को आत्महत्या की ओर बढ़ाता है। गुलाब के फूल का अपना महत्व है। गेंदे के फूल का अपना महत्व है। इसलिए कभी भी यह सोच लेना कि हम प्रत्येक मानव समान स्तर पर खड़े हो जाएं अंत में हमें आत्महत्या की ओर ले जाता है। यही तुलनात्मक स्थिति चाहे संबंधों में हो चाहे किसानों के लिए वह चाहे विद्यार्थी के जीवन में हो चाहे सामाजिक पद प्रतिष्ठा पाने की बात हो, सभी में महसूस की जा सकती है।

जब व्यक्ति इस तुलनात्मक जीवन को समानता के उच्च स्तर पर नहीं ले जा पाता, जिसके लिए उस पर सामाजिक आर्थिक सांस्कृतिक दबाव डाला जा रहा है तो वह विकल्पहीन होकर सिर्फ और सिर्फ एक रास्ता पाता है कि वह आत्महत्या कर ले जबकि महाभारत में पांडव की कहानी सुना कर या बताया जाता है कि सभी का सामर्थ्य अलग-अलग है। यदि अर्जुन धनुर्धर है तो भीम गदाधारी हैं। जिस दिन मनुष्य को यह समझ में आ जाएगा कि हर व्यक्ति की क्षमता एक जैसी नहीं होती और वह सिर्फ अपने जीवन को संपूर्ण करने के लिए इस दुनिया में जन्म ले रहा है। उसी दिन वह संतोषम परम सुखम के दर्शन की ओर बढ़ सकता है और आत्महत्या जैसी घातक स्थिति से अपने को बचा सकता है लेकिन यह एक कठिन कार्य है क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति अपने को स्वयं इस तर्क से मुक्त नहीं कर पाता कि वह दूसरे की तरह क्यों नहीं बन सकता या उसे क्यों नहीं बनना चाहिए।

इस विकल्प जीवन को जीने के कारण वह संसाधनों के जिस चक्रव्यूह में अपने को फसा लेता है। उसमें से अपने को न निकाल पाने के कारण वह सबसे सरल उपाय आत्महत्या को मान बैठता है। इसीलिए आत्महत्या से बचने का सबसे सरल उपाय यही है कि व्यक्ति के दिमाग में तुलनात्मक जीवन अपनी परिस्थिति और अपने सामर्थ्य के अनुसार होनी चाहिए। एकलव्य की तरह ही शिक्षा दिए जाने से इंकार किए जाने के बाद भी उसने अपने सामर्थ्य के अनुसार प्रतीकात्मक गुरु बनाकर अपनी शिक्षा को पूर्ण किया।

यदि यह भावना व्यक्ति के अंदर वास्तविक अर्थों में आ जाए तो व्यक्ति आत्महत्या के बजाय विषम परिस्थितियों में भी अपने को स्थापित करने में सफल होगा लेकिन उसके लिए आवश्यक है कि व्यक्ति अपने अंदर कभी विकल्पहीनता का भाव जागृत ना होने दें।

डॉक्टर आलोक चाटिया

लेखक विगत दो दशकों से मानवाधिकार कार्यक्रम को चलाकर लोगों में जागरूकता पैदा कर रहे हैं